जापान की राजधानी टोक्यो में एक समाधि है, जहां पर शहादत पाने वाले जापानियों को याद किया जाता है. जिस साल अहिंसक गांधी पैदा हुए थे, उसी साल 1869 में जापान में सैनिकों के लिए योकोसुनी समाधि बनाई गई थी. पर जब 1948 में गांधी मरे तब जापान की इस समाधि का रूप बदल गया. लगभग 25 लाख लोगों के नाम हैं यहां पर. इन नामों में 1068 नाम उन लोगों के हैं जो द्वितीय विश्व युद्ध में अपने अपराधों के लिए जाने जाते हैं. बाकी दुनिया के लिये ये अपराधी हैं, पर जापान के लिए हीरो माने जाते हैं. इन आरोपियों का ट्रायल भी हुआ था, जिसे टोक्यो ट्रायल कहा जाता है. ये जगह इतनी विवादास्पद है कि जापान का प्रधानमंत्री भी यहां चला जाए, तो बाकी दुनिया नाक-भौं सिकोड़ने लगती है.

यासुकुनी समाधि
हारने वाले का ट्रायल, जीतने वाले के जज
द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने से पहले जापान ने बहुत तांडव मचाया था. एक बार तो इंडिया के बॉर्डर पर आ गए थे. पर अमेरिका ने न्यूक्लियर बम गिराकर लड़ाई खत्म कर दी. ये कितना सही कदम था, वक्त बताएगा. पर इसके बाद जापानी सैनिकों का ट्रायल शुरू हुआ. क्योंकि उन पर लड़ाई के दौरान अत्यधिक क्रूरता का आरोप लगा था. रेप करना और इंसानों के मांस खाने तक के आरोप थे.
विजेता देशों ने टोक्यो ट्रायल शुरू किया. जर्मनी में इसी की तर्ज पर न्यूरेमबर्ग ट्रायल शुरू किया गया था. इंटरनेशनल मिलिट्री ट्रिब्यूनल ने 11 जजों को नियुक्त किया था जापान के लिए. 3 मई 1946 से ट्रायल शुरू हुआ. ढाई साल तक चला. जापान के प्रधानमंत्री हिदेकी तोजो की वॉर कैबिनेट के 28 लोग प्राइम आरोपी थे. ट्रायल के दौरान 2 लोग मर गए. एक मानसिक संतुलन खो बैठा. 25 लोगों को 12 नवंबर 1948 को सजा सुनाई गई और इनको दुनिया के सबसे खराब अपराधों का दोषी माना गया.
सारे जज एक साथ बैठे थे. सबके फैसले आ रहे थे. थोड़ा इंतजार कर, थोड़ा विराम लेकर, चेहरे पर नफरत और क्रोध भरकर जज एक के बाद एक अपने फैसले में इनको अपराधी घोषित करते. जूरी का सिस्टम था. सारे जजों को बोलना था. आवाजें आ रही थीं गिल्टी. तभी एक आवाज आई नॉट गिल्टी. ये आवाज राधागोविंद पाल की आवाज थी. ये कलकत्ता हाई कोर्ट के जज थे. इनको भी चुना गया था जजों की लिस्ट में. क्योंकि भारत के सैनिक द्वितीय विश्व युद्ध में लड़े थे.

भारत का स्वतंत्रता संग्राम बाकी देशों की लड़ाइयों और द्वितीय विश्व युद्ध की लड़ाइयों से बहुत अलग था. राधागोविंद पाल खुद विदेशी सरकार के सिस्टम में जज थे. तो वो इस ट्रायल को एकदम अलग नजर से देख रहे थे. बाकी जजों के देखने में पूर्वग्रह था, क्योंकि वो विजेता देशों से आ रहे थे, और हारे हुए देश जापान को वो नफरत से देखते थे.
पाल का कहना था कि दुनिया में न्याय फैलाने के नाम पर ये ट्रायल इसलिए किया जा रहा था ताकि विजेता देशों को सही साबित किया जा सके. इसकी आड़ में वो पाप छुपाए जा रहे थे जो विजेता देशों ने लड़ाई के दौरान किया था. इससे ये भी साबित करने की कोशिश की जा रही थी कि यूरोप एशिया से श्रेष्ठ है. क्योंकि जापान एशिया का पहला देश था जिसने यूरोप के देशों को लड़ाई में हराया था. वहीं यूरोप के देश एशिया औऱ अफ्रीका के देशों पर गुलामी थोप रहे थे. तो अपनी गलतियों को दबाने के लिए जापान को दोषी ठहराना जरूरी था.

पाल ने कहा: एशिया पर कब्जा करने के दौरान जापान ने यूरोपियन ताकतों की ही नकल की थी. यूरोप इस ट्रायल के बहाने जापान से अपना बदला पूरा कर रहा था.
पर उन्होंने जापान को भी बख्शा नहीं था. जापान की कारस्तानियों को भी स्वीकार किया था. पर इसके साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर जो बम गिराए वो हिटलर के अत्याचारों से कम नहीं थे.
क्या ये सिर्फ अलग बोलने का मसला था?
पाल का ये कहना बहुत बड़ी बात थी. जब आप विजेता के साथ कदम मिलाकर खड़े होते हैं, तो बहुत मुश्किल होता है उनके खिलाफ बोलना. उनको दोषी ठहराते हुए बोलना और बड़ी बात होती है. दुनिया जब किसी दोषी को ट्रायल से पहले दोषी करार कर चुकी है, आप उसके खिलाफ बोलते हैं तो अछूत बना दिये जाने की आशंका होती है. पर पाल के पास वो नजर थी जो सही को सही और गलत को गलत देखती है.
इसीलिए जापान आज भी राधागोविंद पाल को अपनी नजरों में बहुत ऊपर रखता है. उन पर डॉक्यूमेंट्री बनती रहती है वहां. पाल की मौत के एक साल पहले 1966 में जापान के सम्राट ने उनको जापान का सबसे बड़ा सम्मान दिया. ये कहानी भारत और जापान के रिश्तों में भी मायने रखती है. 2007 में जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे जब भारत आए तो वो कलकत्ता गए थे पाल के बेटे से मिलने.

पर पाल की जजों की लिस्ट में नियुक्ति को लेकर भी विवाद हैं. कई रिसर्चर ये मानते हैं कि पाल हाई कोर्ट के जज नहीं थे, वकील थे. एक गलती की वजह से उनका नाम वहां चला गया था. फिर ये भी कहा जाता है कि वो सुभाषचंद्र बोस से जुड़े हुए थे. तो इस नाते जापान की तरफ उनका झुकाव हो सकता था. पाल के 1235 पन्ने के ओपिनियन को अमेरिका ने पब्लिश करने से रोक रखा था. इसे 1952 में पब्लिश किया गया.
इस कहानी का मूल हॉलीवुड की मशहूर फिल्म 12 एंग्री मेन से मिलता-जुलता है. हालांकि अपराध की मात्रा और कहानी का अंत दोनों ही अलग हैं. पर कॉमन चीज है सच बात खोजना और कह देना. जिसकी हिम्मत नहीं होती लोगों में. हर कोई बहाव के साथ बहना चाहता है. टेंशन नहीं लेना चाहता. गालियां नहीं खाना चाहता. ऐसा ही फैसला सुप्रीम कोर्ट के जज एच आर खन्ना ने इमरजेंसी के दौरान लिया था. जब सारे जजों ने इंदिरा गांधी के अपने राजनैतिक विरोधियों को बिना ट्रायल जेल में डालने को सही ठहरा दिया था, खन्ना ने इसे गलत ठहराया था. खन्ना की आत्मकथा Neither Roses Nor Thorns
मुताबिक इसी वजह से चीफ जस्टिस की उनकी कुर्सी चली गई थी. पर खन्ना का नाम भारत के कानूनी इतिहास में सबसे बड़ा नाम बन गया.
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