(इस लेख को लिखा है दिल्ली से विशी सिन्हा ने. संक्षिप्त परिचय: ट्रिपल आई टी – इलाहाबाद से इनफार्मेशन सिक्योरिटी में एमएस करने के अलावा लॉ की पढ़ाई भी की है. खेल और इतिहास में विशेष रुचि है. दाल-रोटी का खर्च निकालने के लिए फिलहाल दिल्ली स्थित एक आईटी कंपनी में लीगल मैनेजर का काम करते हैं. जीवन का उद्देश्य है पढ़ना. खेल जगत पर इनके आर्टिकल्स काफी रुचि लेकर पढ़े जाते हैं. अपनी मित्रता के दायरे में ‘सर्टीफाईड सज्जन’ के नाम से मशहूर विशी सिन्हा एक हंसमुख व्यक्तिव के धनी हैं. उनका इतिहास का अध्ययन बेजोड़ है.) अमेजॉन ने वर्ष 2016 के बेस्टसेलर्स की सूची जारी की है और एक बार फिर से सुरेन्द्र मोहन पाठक की किताब ही हिंदी में सबसे ज्यादा लोकप्रिय किताब रही है – हार्पर कॉलिंस से प्रकाशित '
मुझसे बुरा कोई नहीं'. मुकाबले में श्रीलाल शुक्ल की प्रसिद्ध कृति 'राग दरबारी' (जिसका 35वा संस्करण इस साल प्रकाशित हुआ था), पीयूष मिश्रा की 'कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया', देवदत्त पटनायक की 'देवलोक' और दिव्य प्रकाश दुबे की 'मुसाफ़िर कैफ़े' थीं. गौरतलब है कि ये कोई पहली बार नहीं हुआ कि अमेजॉन ने सुरेन्द्र मोहन पाठक की किसी किताब को वर्ष की सबसे लोकप्रिय किताब घोषित किया हो – वर्ष 2014 के लिए सुरेन्द्र मोहन पाठक की ही 'कोलाबा कॉन्सपिरेसी' को 'इंडियन राइटिंग' सेक्शन में बेस्टसेलर घोषित किया था.
'मुझसे बुरा कोई नहीं'
उपन्यास की कहानी कुछ यूं है कि स्मगलिंग से राजनीति में आये एक कद्दावर शख्सियत – बहरामजी कांट्रेक्टर – के खिलाफ एक षड्यंत्र रचा जाता है और षड्यंत्र को अंजाम तक पहुंचाने के लिए उपन्यास के नायक जीतसिंह को मुख्य मोहरा बनाया जाता है. स्कूल ड्रॉप-आउट जीतसिंह के पास एक ही हुनर था – वो किसी भी ताले को खोल सकता था. अब बहरामजी के साथी और षड्यंत्र रचने वाले दोनों जीतसिंह की जान के दुश्मन बने उसे ढूंढ रहे हैं. हालात का सताया जीतसिंह – जिसका खुद के बारे में कहना था कि, बनाने वाले ने उसकी तकदीर ही ऐसी उकेरी थी कि खुद उसे इस हकीकत का एहतराम करना पड़ता था कि उससे बुरा कोई नहीं, कोई नहीं जिसके प्रारब्ध के पन्नों पर सदा से ही काली स्याही फिरी हो – कैसे अपनी जान सलामत रख पाया और कैसे षड्यंत्र के मास्टरमाइंड तक पहुंच सका - इन्हीं सवालों के जवाब तलाशते हुए कथानक अपने अंजाम तक पहुंचता है.
सुरेन्द्र मोहन पाठक

हिंदी जासूसी, रहस्य और अपराध कथाओं के शहंशाह सुरेन्द्र मोहन पाठक ने हाल ही में अफसानानिगारी में 57 वर्ष पूरे किये हैं और वे लम्बे समय से भारत में लोकप्रिय साहित्य के झंडाबरदार बने हुए हैं. 1959 में मनोहर कहानियां में प्रकाशित '57 साल पुराना आदमी' से शुरु किया लेखकीय सफ़र आज 300 के करीब उपन्यास और 40 कहानियों के प्रकाशन के बाद भी अनवरत रूप से जारी है. उनकी रचनाओं ने सीमायें लांघी हैं. लुगदी से सफ़ेद-शफ्फाक़ कागज़ पर छपने और मोबाइल-टेबलेट-किनडल तक का सफ़र तय किया है. उनकी तमाम रचनाएं ई-बुक के रूप में डेलीहंट पर उपलब्ध हैं. किनडल और गूगल बुक्स पर भी कुछ किताबें उपलब्ध हैं.
सुरेन्द्र मोहन पाठक की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके प्रशंसकों की अच्छी खासी तादाद सोशल मीडिया पर भी मौजूद है. 2006 में शरद श्रीवास्तव ने ऑरकुट पर फैन ग्रुप की स्थापना की थी. जो अब फेसबुक पर ट्रांसफर हो गया है. एसएमपियंस/सुमोपाई के नामे से चर्चित ये प्रशंसक समय-समय पर एसएमपियंस मीट भी आयोजित करते रहते हैं.
सुरेन्द्र मोहन पाठक का मुख्य सीरियल किरदार - सुनील कुमार चक्रवर्ती
सुनील – एक खोजी पत्रकार है जिसका मोटो है 'सत्यमेव जयते', हमेशा और हर कीमत पर सत्य के साथ खड़े रहना. काल्पनिक शहर राजनगर से प्रकाशित होने वाले अख़बार 'ब्लास्ट' में सुनील चीफ रिपोर्टर है. 1963 में प्रकाशित 'पुराने गुनाह नए गुनाहगार' से जब सुनील पाठकों के सामने पहली बार आया था तो सब इस तरह के हीरो को लेकर आशंकित थे. क्या प्रकाशक, क्या विक्रेता और क्या पाठक, सभी का ये मानना था कि जासूसी साहित्य की दुनिया में – जहां सीक्रेट एजेंट, प्राईवेट जासूस या पुलिस इंस्पेक्टर जैसे सेन्ट्रल किरदारों का चलन था - एक पत्रकार का किरदार नहीं टिक सकता, नहीं टिकेगा.
आज आधी सदी बीतने के बाद, 121 प्रकाशित उपन्यासों के साथ सुनील ने उन प्रकाशकों-विक्रेताओं की आशंकाओं को न सिर्फ पूरी तरह निर्मूल साबित किया बल्कि एक पीढ़ी को पत्रकारिता के क्षेत्र में करियर बनाने के लिए प्रेरित भी किया. आज के दौर के बहुत से पत्रकार खुले तौर पर ये स्वीकार करते हैं कि उन्होंने सुनील को नहीं पढ़ा होता तो वे पत्रकार नहीं बने होते.
सुनील का जिक्र हो और उसके जिगरी यार रमाकांत का जिक्र न हो ऐसा संभव नहीं. इनकी दोस्ती और ‘स्मार्ट-टॉक’ पाठकों में खासी लोकप्रिय है. सुनील सीरीज के कुछ चर्चित उपन्यास हैं – 'मैं बेगुनाह हूं', 'मीना मर्डर केस', 'जादूगरनी', 'कानून का चैलेन्ज', 'फिंगरप्रिंट्स', 'धमकी' आदि.
दूसरा और सबसे मकबूल सीरियल किरदार – विमल उर्फ़ सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल
विमल एक एक एंटी-हीरो है, जिसकी तलाश में आठ प्रदेशों की पुलिस है, लेकिन जो वास्तव में परिस्थितियों का शिकार है. जो दीन के हित के लिए, दमन करने वालों के खिलाफ लड़ता है. बुरे का मुकाबला आतिश से करता है. विमल सीरीज की ख़ास बात है कि ये एक 42 उपन्यासों और दस हजार से अधिक पृष्ठों में पसरी एक अविकल महागाथा है, अफ़सानानिगारी में जिसकी दूसरी मिसाल नहीं है.
एक वक़्त ऐसा भी आयेगा, जब इसे पढने वाला ये मानने से इनकार कर देगा कि इतनी लम्बी कथा किसी एक आदमी का लिखा हो सकता है. विमल की मक़बूलियत का आलम ये है कि एक वक़्त विमल सीरीज एक अघोषित स्कूल हो गया था – लुगदी साहित्य का हर उभरता लेखक विमल के किरदार की तरह ही अपने मुख्य किरदार को दर्शाना चाहता था और लुगदी साहित्य का हर प्रकाशक विमल सीरीज जैसे ही उपन्यास छापना चाहता था.
विमल सीरीज के उपन्यास “65 लाख की डकैती” के अबतक अंग्रेजी अनुवाद समेत 18 संस्करण आ चुके हैं.
अन्य किरदार और उपन्यास
फिलॉसफ़र – डिटेक्टिव सुधीर कोहली और तालातोड़ जीतसिंह अन्य सीरियल किरदार हैं जिनके क्रमशः 21 और 10 उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं.
ख़ालिस दिल्ली वाली किस्म का सुधीर युवाओं में बहुत ज़्यादा लोकप्रिय रहा है जो खुद को हरामी कहलवाना अपनी तारीफ़ समझना है. विविध श्रृंखला – जिसमें कोई स्थापित सीरियल किरदार नहीं होता - में 60 के करीब उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. इस सीरीज के कुछ प्रसिद्द उपन्यास हैं – 'डायल - 100', 'कागज़ की नाव', 'तीन दिन', 'दस मिनट', 'मेरी जान के दुश्मन', 'जीने की सज़ा', 'कोई गवाह नहीं', 'बीस लाख का बकरा', 'वहशी' आदि. जासूसी/अपराध-कथा लेखन की सबसे बड़ी चुनौती होती है दोहराव से बचना, फिर भी यदि कोई लेखक आधी सदी से ज्यादा वक़्फ़े तक लिखते के बावजूद बर्न-आउट का शिकार नहीं हुआ, बल्कि आज भी कोई नया उपन्यास प्रकाशित होते ही बड़ी संख्या में पाठकों द्वारा हाथो-हाथ खरीद लिया जाता है तो निस्संदेह इसके पीछे लेखक द्वारा हर कथानक पर की गयी मशक्कत और जांमारी है.
दूसरी जो बड़ी खासियत है वो ये कि उपन्यास में प्रयोग की गयी भाषा आमतौर पर बोलचाल की भाषा ही है, जो हिंदी-पंजाबी-उर्दू-अंग्रेजी की कॉकटेल है. कभी कभी किरदार के मुताबिक मुम्बईया या गोवानी बोली का भी प्रयोग देखने को मिलता है. और सबसे बड़ी ख़ासियत कि अपराध की पृष्ठभूमि पर लिखे जाने के बावजूद, सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यासों में कभी भी अपराध को महिमामंडित नहीं किया गया. बल्कि उन्होंने जुर्म को अंत-पंत ‘कागज़ की नाव’ ही साबित किया है, जो बहुत देर तक – बहुत दूर तक नहीं चल सकती.