जिन टॉपिक पर हमारा मुल्क सबसे ज़्यादा दोगली बातें करता है, उनमें से एक है खेल. क्रिकेट, हॉकी, फुटबॉल या कबड्डी नहीं. खेल. हर कोई इंडिया को हर जगह जीतते देखना चाहता है, पर अपने बच्चे को कोई खेलने नहीं देना चाहता. ओलंपिक में मेडल सबको चाहिए, लेकिन बच्चा कहीं से खेलकर आ रहा है, तो घर में कूट देंगे. वो कहावत है न, 'भगत सिंह हर कोई चाहता है, पर अपने नहीं, पड़ोसी के घर में'. खेल की हालत उससे भी खराब है. अपना घर छोड़िए, लोग पड़ोसी के घर में तक खिलाड़ी पैदा नहीं होने देना चाहते.
लोग मैदान में शौच करके, कील फेंककर चले जाते थे, ताकि ये लड़की खेल न पाए
पर जब शमा ने ईरान में तिरंगा फहराया, तो आज वही लोग हाथ जोड़कर खड़े हैं.

आप सोच रहे होंगे कि टीम इंडिया अंडर-19 में तगड़ा खेल रही है, हॉकी में भी बीच-बीच में खुशखबरी आ जाती है, कबड्डी को प्रो हो ही गई है. तो हम ये अचानक कहां का राग अलापने लगे. तो हुज़ूर जवाब हैं
शमा परवीन. बिहार के एक मुस्लिम परिवार से आने वाली कबड्डी खिलाड़ी, जो ईरान में तिरंगा फहराकर आई हैं.

शमा परवीन
कोई कितने ताने और विरोध झेलने के बाद भी अपना सपना पूरा कर सकता है, इसकी मिसाल हैं शमा. वो बिहार की राजधानी पटना के एक दूर-दराज़ गांव की रहने वाली हैं. परिवार में जैसा माहौल था, उसकी वजह से शमा का हाफ पैंट और जींस वगैरह पहनना बहुत मुश्किल था. ऊपर से कटे बालों के साथ कबड्डी खेलना... शिव शिव शिव. आलोचना करना छोड़िए, लोग मज़ाक उड़ाते थे.
शमा की दादी अक्सर कहती थीं कि वो खानदान का नाम डुबो रही है. एक अंकल ने तो जींस पहनकर उनके घर आने से ही रोक दिया था. परिवार भी आर्थिक रूप से कमज़ोर था, लेकिन भला हो मम्मी फरीदा और पापा इलियास का, जो हर कदम पर शमा के साथ खड़े रहे.
गांववाले मैदान में टट्टी कर जाते थे
शमा बताती हैं कि गांववालों को उनका कबड्डी खेलना इतना खलता था कि जिस मैदान में वो खेलती थीं, वहां लोग टट्टी करके चले जाते थे. ग्राउंट में टूटा हुआ कांच और कीलें वगैरह फेंक देते थे. शमा जिसके घर कपड़े बदलती थीं, आसपास के लोग उस पर भी दबाव डालते थे कि वो शमा को न खेलने दे. कबड्डी के लिए कोई फिक्स मैदान तो था नहीं. ऐसे में शमा को 10-15 ग्राउंड बदलने पड़े.

शमा परवीन (दाएं)
पर मम्मी-पापा की वजह से टिकी रहीं शमा
शमा बताती हैं कि उन्हें पेरेंट्स से बहुत मज़बूत सपोर्ट मिला. लोग उनके बारे में तरह-तरह की उल्टी-सीधी बातें किया करते थे, लेकिन वो नहीं झुके. ये शमा के पापा की ही कोशिश थी कि और भी कई मुस्लिम लड़कियों को हौसला मिला कि वो भी खेल सकती हैं. हालांकि, इनमें से कुछ ऐसी भी थीं, जिन्हें सोसायटी का रिऐक्शन की वजह से वापस जाना पड़ा. फिर भी, शमा के साथ इतनी लड़कियां थीं कि वो प्रैक्टिस कर सकें.

कबड्डी खेलते हुए शमा
और फिर आया खुशी का मौका
साल 2017. जगह ईरान. इवेंट एशियन महिला कबड्डी 2017. शमा ने इस प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल जीता. जीत के बाद जब वो वापस गांव पहुंची, जो अब तक जो लोग उन्हें हिकारत की निगाह से देखते थे, आज वो दिल खोलकर उनका इस्तकबाल कर रहे थे. शमा बताती हैं कि उन्हें तो अपनी आंखों पर भरोसा ही नहीं हो रहा था कि ये वही लोग हैं. बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने जब खुद शमा को बधाई दी, तो ये उनके लिए बड़ा मौका था.

शमा को बधाई देते बिहार के सीएम नीतीश कुमार
पर ईरान तक का रास्ता बना कैसे था
शमा पहली बार अपने गांव से 2007 में आरा गई थीं खेलने के लिए. तब उन्हें इनाम में 100 रुपए मिले थे. यही उनकी सबसे बड़ी प्रेरणा बना. फिर उन्होंने 39वीं से 41वीं जूनियर नेशनल कबड्डी चैंपियनशिप और 60वीं से 64वीं सीनियर नेशनल चैंपियनशिप में शानदार परफॉर्म किया. इसी प्रदर्शन के बूते उनका ईरान तक का रास्ता बना और आज वो देश की न जाने कितनी लड़कियों के लिए प्रेरणा हैं.
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