अपने आस-पास की चिल्ल-पौं में हम इतने उलझे रहते हैं कि अपनी ज़िन्दगी की छोटी-मोटी परेशानियों से ऊपर उठ ही नहीं पाते. नहीं सोच पाते कि हमसे बाहर भी एक दुनिया है और उसमें लोग रहते हैं. ऐसे में कोई अपनी कीमत पर दूसरों की सुध लेने निकाल पड़े तो उसकी कहानी हमारे वक़्त में जिंदा बची उम्मीद का बयान बन जाती है. दिल्ली के मेडिसिन बाबा एक ऐसी ही कहानी के हीरो हैं.
80 साल के बाबा घूम-घूम कर उन लोगों से दवाएं इकट्ठा करते हैं जिन्हें उनकी ज़रूरत नहीं, और उन लोगों तक पहुंचाते हैं जिन्हें उनकी ज़रूरत है लेकिन वे खरीद नहीं सकते.

मेडिसिन बाबा का नाम ओमकार नाथ है. साथ का सरनेम वो नहीं लगाते क्योंकि उनका मानना है कि पहले आदमी को इंसान बनना चाहिए. और बाबा इस नाम के मोह से भी ऊपर उठ चुके हैं. अपना परिचय मेडिसिन बाबा के तौर पर ही देते हैं, फ़ोन आता है तो भी 'हेलो मेडिसिन बाबा' ही कहते हैं. 2008 में लक्ष्मीनगर में मेट्रो की साइट पर जो हादसा हुआ था, उसने कुछ मज़दूरों की जान ले ली. और कई और की ज़िन्दगी बदल दी. हादसे के तमाशबीनों में एक इंसान ऐसा भी था, जो घायल मज़दूरों के पीछे-पीछे अस्पताल तक गया. वहां उसने देखा कि मज़दूरों को मामूली मरहम-पट्टी करने के बाद ये कह कर वापस भेजा जा रहा है कि दवाएं नहीं हैं. खरीद के लाओ तो इलाज कर देंगे. मजदूर मायूस होकर वापस चले गए. लेकिन वो इंसान नहीं गया. वो वहीं रह गया. लौटा एक बिलकुल नया आदमी - मेडिसिन बाबा. तब से बाबा रोज़ सुबह एक भगवा कुर्ता पहनकर मंगलापुरी के अपने घर से निकलकर शहर के अलग अलग इलाकों में जाते हैं और आवाज़ लगा-लगा कर लोगों से वो दवाएं उन्हें दे देने को कहते हैं, जो उनके लिए बेकार हैं. बाबा के कुर्ते पर आगे हिंदी में और पीछे अंग्रेजी में 'चलता-फिरता मेडिसिन बैंक' लिखा होता है. साथ में उनके नंबर भी कि कोई दवाएं देना या फिर लेना चाहे तो उन तक पहुंच सके. मेट्रो में कम चलते हैं, क्योंकि महंगी है. डीटीसी बस में चलते हैं अपना सीनियर सिटीजन पास लिए. जहां बस नहीं पहुंचती वहां पैदल जाते हैं. बचपन में 12 की उम्र में एक्सीडेंट में एक पैर टेढ़ा हो गया था. लेकिन बाबा चलते हैं. रोज़ 5 से 6 किलोमीटर.
कुर्ते के रंग के बारे में बाबा कहते हैं कि योगियों का रंग है, इसलिए पहन लिया.
शुरू में लोगों को उन पर भरोसा नहीं हुआ. तरह-तरह के सवाल पूछे जाते थे. कुछ ऊल-जलूल तो कुछ हौसला तोड़ने वाले. डॉक्टर उनकी दवाओं से बचते थे. ड्रग कंट्रोल डिपार्टमेंट वालों ने कार्यवाही की धमकी दी कि बिना लाइसेंस दवाएं बांटते हो, अंदर कर दिए जाओगे. लेकिन बाबा लगे रहे और धीरे-धीरे सब पटरी पर आने लगा. लोग साथ आने लगे और अब उनके नाम से एक पूरा ट्रस्ट खड़ा हो गया है. इसी काम से जुड़े और एनजीओ भी उनके साथ काम करने लगे हैं. बाबा के काम पर इतना भरोसा किया जाने लागा है कि कई डॉक्टर अब बाबा से दवाएं लेकर लोगों को देते हैं.
देश में और बाहर भी बाबा की तरह दवाएं बांटने का काम होता है. ज़्यादातर बड़े संगठन या ट्रस्ट हैं. बाबा की पहल इस मामले में अलहदा है कि वे अकेले अपने भरोसे इतने बड़े काम को करने निकल पड़े हैं.
बाबा ज़्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं लेकिन अपने काम को पूरे पेशेवर ढंग से करते हैं. हर रोज़ दिन के आखिर में इकट्ठा दवाइयों को बाकायदा कैटेलॉग करते हैं जिसमें दवाओं के बैच नम्बर से लेकर उनकी एक्सपायरी डेट तक सारी ज़रूरी जानकारी होती है. किसी को दवा देने से पहले वो डॉक्टर का प्रेस्क्रिप्शन भी देखते हैं. बाबा दिल्ली के पौने दो करोड़ लोगों में से 1 करोड़ लोगों से चाहते हैं कि वे कम से कम एक पत्ता दवाई का उन्हें दें जिसे वे अपने नेटवर्क से ज़रूरतमंदों तक पहुंचाएंगे. जो लोग नेब्युलाइज़र, ऑक्सीजन सिलेंडर या किसी साधारण सी व्हीलचेयर का इंतज़ाम नहीं कर पाते, बाबा उनके लिए मेडिकल उपकरण दान करने में भी मदद करते हैं. दिल्ली में कई जगह पर मंदिरों और अस्पतालों में बाबा ने डोनेशन बॉक्स भी लगा रखे हैं जिसमें लोग दवाइयां डाल सकते हैं.
हिंदुस्तान इन दिनों ब्रिटेन को पीछे कर दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का जश्न मना रहा है. लेकिन हमारे देश में मोटे-मोटे तौर पर 40 फ़ीसदी आबादी आधुनिक स्वास्थ्य सेवाओं से दूर है. ये तब है जब ये देश दुनिया भर को जेनेरिक दवाएं सप्लाई करता है. बावजूद इसके हमारी सरकार देश की जीडीपी का केवल 1.87 फ़ीसदी स्वास्थ्य पर खर्च करती है जिसे वो 'धीरे-धीरे बढ़ा कर' 2.5 फ़ीसदी करने वाली है (!). 
बाबा ने अपनी ज़िन्दगी में ज़्यादा कमाई नहीं की. किसी नामचीन कॉलोनी में घर नहीं है. बस्ती में है. किराए के घर में अपनी पत्नी और मानसिक रूप से विकलांग बेटे के साथ रहते हैं. कोई कहेगा कि अपनी जिंदगी में ये सब देख कर शायद दूसरों की मदद कर के ख़ुशी ढूंढते हैं. या ये कि एक वक़्त लैब टेकनीशियन रहे थे, इसलिए लोगों की परेशानी, उनकी हताशा याद कर के उन्हें अपना काम करते रहने की ताकत
मिलती होगी. लेकिन उनके बारे में जानने के बाद ये सब उनसे जुड़े 'ट्रिविया' से ज़्यादा नहीं लगते. क्योंकि इस सब से ऊपर उनका काम नज़र आता है, जिसके पीछे उनकी सीधी-सादी और सुलझी हुई सोच है कि 'मेरे मांगने से किसी की ज़िन्दगी बच रही हो तो इसमें क्या हर्ज़ है.' बजाज ने अपनी बाइक विक्रांत के लिए एक सरोगेट एड सीरीज़ बनाई है 'इनविंसिबल इंडियंस' नाम से. उसमें बाबा की कहानी भी है. अच्छा वीडियो है. देखिए बाबा की कहानी उनकी ज़ुबानी. https://www.youtube.com/watch?v=IjeJfm2tQqg
*बाबा के काम से जुड़ने के लिए और उनके रखे डोनेशन बॉक्सेस की जानकारी उनकी साइट
www.medicinebaba.in पर मौजूद है. ** तस्वीरें इसी वेबसाइट से साभार.