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प्रिय खिलाड़ियों! भाड़ में जाए लोगों का दबाव, आप खेलिए लल्लनटॉप

जीते तो सम्मान और हारे तो धिक्कार. प्लीज ऐसा करना बंद कर दो. सपोर्ट नहीं कर सकते तो उंगली भी मत उठाओ.

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REUTERS
हम मेडल न लाने वाले खिलाड़ियों से उस बाप की तरह बिहेव करते हैं जो अपने बेटे को कहता है, इस बार 95% नहीं लाए तो तू मेरी औलाद नहीं. रियो ओलंपिक में ब्रिटेन के एक गोल्ड मेडलिस्ट ने गोल्ड जीतने के बाद कहा कि मुझ पर कोई दबाव नहीं था. ब्रिटेन में लोग मुझे जानते तक नहीं थे. विदेशों में खिलाडियों को सुविधाएं सारी मिलती हैं और दबाव नाम की कोई चीज़ नहीं होती है.
हमारे यहां उल्टा होता है. सुविधाएं हैं नहीं और क्वालिफाई करते ही एक अरब लोगों की उम्मीदें-सपने हिलोरे लगाने लगता है. भारत में खिलाड़ी को धन्य और धिक्कार के बीच जीना पड़ता है. जीत गए तो अहो ! अहो ! धन्य है ! धन्य है ! नहीं तो धिक्कार है. बीच की कोई स्थिति नहीं है. आमतौर पर खिलाड़ी को धिक्कार ही मिलता है. या कभी-कभी साई हॉस्टलों के न रहने लायक कमरों और 1000 मासिक की खाने के खर्चे से सीधे स्टारडम.
2012 ओलंपिक में दीपिका कुमारी की उम्र महज़ 18 साल थी. इतनी सी उम्र में एक अरब लोगों के लिए मेडल लाने का दबाव हो तो तीर चलाते वक्त हाथ कांपने लगते हैं और यही हुआ. दीपिका नंबर 1 रैंक होने के बावजूद पहले ही दौर में बाहर हो गई. इस बार हमारे ज्यादातर शूटर्स के साथ भी यही हुआ है. और यही दबाव हम धीरे-धीरे दीपा कर्माकर पर बना रहे हैं बल्कि बना ही दिया है.
लॉंग जंपर अंजू बॉबी जॉर्ज को याद कीजिए जो वर्ल्ड एथलेटिक्स में गोल्ड ले आईं थीं. लेकिन 2008 ओलंपिक में तीनों के तीन जंप फाउल कर बैठी थीं. ओलंपिक के दौरान पड़ने वाला दबाव भी अगर हटा दिया जाए तो भारत के पदकों की संख्या में अच्छी खासी वृद्धि हो जाए. 4 साल तक संघर्षकाल में सुध न लेने वाला मीडिया ओलंपिक के क्वार्टर फाइनल में पहुंचते ही ऐसे टूट पड़ता है जैसे शादी-बियाह में रिश्तेदार दूल्हे-दूल्हन को घेर लेते हैं. ये ओलंपिक के अंदर उत्पन्न किया जाने वाला अतिरिक्त दबाव है जो अगर कोई खिलाड़ी गलती से पदक के पास चला भी जाए तो उसका ध्यान भटकाने में, दबाव में लाने में मदद करता है.
भारत के ज्यादातर खिलाड़ी अपने बल-बूते बिना किसी मदद के, अपनी पढ़ाई-लिखाई, कैरियर सब-कुछ दांव पर लगाकर ओलंपिक जाते हैं. चाहें वो अमीर हों या गरीब हों. शूटर आयोनिका पॉल ने इस साल ओलंपिक की तैयारी में अपनी जेब से 1.09 करोड़ रूपए खर्च किए हालांकि अच्छी तैयारी के बावजूद वो हार गईं. अभिनव बिंद्रा अपनी शूटिंग रेंज पर करोड़ों रूपए और कई-कई महीनों की तैयारी खर्च करने बाद के चौथे स्थान पर आ पाए. जूडो खिलाड़ी अवतार सिंह को तुर्की में एक गेम खेलने के लिए अपना फिक्स्ड डिपोजिट तुड़वाना पड़ा. न सरकार ने मदद की और न फेडरेशन ने.
क्या किसी ऐसी लेखिका-कम-सेलेब्रिटी-ज्यादा को जिसने सपने में भी साई हॉस्टल नहीं देखे यह दबाव डालने का अधिकार है कि आप तो सेल्फी लेने गए हैं, आपने हमारे संसाधन औऱ पैसा बर्बाद कर दिया है. जो खिलाड़ी जीत जाए वो पुरस्कृत होता है लेकिन हार गए तो प्रताड़ना ही प्रताड़ना है. पुरस्कार और प्रताड़ना के बीच का खिलाड़ी किसी को नहीं दिखता. दुनिया का श्रेष्ठ गोलची श्रीजेश किसी को नहीं दिखता. वज़न उठाने में नाकाम रहकर वापिस परदे के पीछे कॉल रूम में रोता हुआ इंसान दिखाई नहीं देता जिसे हम वेटलिफ्टर मान बैठे थे और पदक की उम्मीद लगा गए थे.
वो भी उन देशों के खिलाफ जो खेल को प्रतिष्ठा का प्रश्न मानते हैं और अपने खिलाड़ियों को हर तरह की सुविधा, दवाओं और प्रशिक्षकों से संपन्न रखते हैं. क्या हमें उन खिलाड़ियों से पदक का हिसाब लेना चाहिए जिनकी हमने कभी कोई मदद नहीं की, जो अपना सबकुछ दांव पर लगाकर, घरवालों की डांट खाकर भारत का झंडा कम से कम फहरा तो रहे हैं. क्या हारने के बाद इन खिलाड़ियों को सोशलाईट्स ट्विटर पर और हम टीवी पर गाली देने का कोई हक रखते है. हम तो इन अपनी ही धुन के हिंदुस्तानियों को, अपने खिलाड़ियों को यही कहेंगे, प्रिय खिलाड़ियों! भाड़ में जाए लोगों का दबाव, आप खेलिए लल्लनटॉप !!

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