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जब गांधी ने देश की जनता के गुस्से को ललकारा

दंगे में लोगों ने गांधी से कहा, ज़िंदा नहीं जाओगे, फिर शाम तक सारे गांधी के साथ बैठे थे.

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नोआखाली में महात्मा गांधी.
1942 में 73 साल के गांधी ने अंग्रेजों को ललकारा था. साथ ही ललकारा जनता के गुस्से को. अपने दो शब्दों से. करो या मरो. गांधी ने पूरी जिंदगी खुद यही किया था.
भारत छोड़ो आंदोलन अपने तात्कालिक उद्देश्य में सफल नहीं रहा था. पर दूरगामी उद्देश्य तो भाई पूरा हो गया था. जनता अब डरती नहीं थी. डर अब अंग्रेजी सरकार को लगने लगा था. एक साल लगा निहत्थे लोगों के आंदोलन को कुचलने में. पर अंग्रेज अब हताश हो रहे थे. गांधी को गिरफ्तार किये दो साल हो गये थे. पुणे के आगा खान पैलेस में गांधी नजरबंद थे. इसी दौरान उनके सेक्रेटरी महादेव देसाई की मौत हो गई. महादेव ने ही गांधी की किताबें प्रकाशित करवाई थीं. उनसे बहुत स्नेह का नाता था. वहीं 22 फरवरी 1944 को कस्तूरबा गांधी की भी मौत हो गई. बुढ़ापे में गांधी के दो सबसे करीबी लोग निकल गए. खुद गांधी को मलेरिया हो गया था.
“Courage, Tuppy! Think of Gandhi.” “What about Gandhi?”
“He hasn’t had a square meal for years.”
“Nor have I. Or I could swear I hadn’t. Gandhi, my left foot.”
I saw that it might be best to let the Gandhi motif slide. I went back to where we had started.
– P.G.Wodehouse (मशहूर ब्रिटिश हास्य लेखक पी जी वुडहाउस ने गांधी का जिक्र करते हुए एक कहानी में कुछ यूं लिखा था.)
इससे पहले 1943 में गांधी ने 21 दिन का उपवास रखा. क्योंकि 1942 के बाद हुए सरकारी दमन के लिए ब्रिटिश सरकार गांधी और कांग्रेस को ही जिम्मेदार ठहरा रही थी. वो मजबूर कर रहे थे कि गांधी इस बात को मान लें. 10 फरवरी को बूढ़े गांधी ने अपना आग्नेयास्त्र चला ही दिया. उपवास शुरू कर दिया.
महात्मा गांधी
महात्मा गांधी

अंग्रेजों को डर था कि गांधी मर गए तो लोगों को संभालना मुश्किल हो जाएगा

ब्रिटिश सरकार दुविधा में थी. एक तरफ चाहती थी कि गांधी मर जाएं ताकि टंटा ही खत्म हो. दूसरी तरफ डर ये था कि अगर गांधी जेल में मर गए तो नाराज लोगों को संभालना मुश्किल हो जाएगा. पर गांधी को प्रैक्टिस थी. उपवास रखना उनके डीएनए का पार्ट हो चुका था. ब्रिटिश सरकार अपने दबाव से पीछे हटी. गांधी मरे नहीं. गांधी मरते भी नहीं.
आखिरकार 6 मई 1944 को गांधी रिहा हुए. तब तक माहौल बदल चुका था. अंग्रेजी सरकार थकने लगी थी. वहीं कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच दूरियां न पटने वाली हो चुकी थीं. मुस्लिम लीग अब पाकिस्तान के लिए बहुत सीरियस थी. दूसरा विश्व युद्ध अपने निर्णय की ओर बढ़ रहा था. हालांकि जापान इस बात को मानने के लिए राजी नहीं था.
ब्रिटिश सरकार भी अब सच्चाई स्वीकार करने लगी थी. एक लाख के आस-पास राजनैतिक कैदी छोड़े गए. जनता अब राजनीतिक हो चुकी थी. हर जगह चर्चाएं होतीं कि क्या किया जा सकता है, क्या नहीं.
फिर 1945 में दूसरा विश्वयुद्ध भी खत्म हुआ. ब्रिटिश सरकार मित्र राष्ट्रों के साथ जीती तो, पर ये क्लियर हो गया कि अब इनके बस का कुछ नहीं है. तो 1946 में उन्होंने एक नया शिगूफा छोड़ा कि ब्रिटिश सरकार अब इंडियन नेताओं को सत्ता ट्रांसफर करना चाहती है. पर ये भी चाहते हैं कि भारत की एकता बनी रहे. मतलब देखिए कितने नेक लोग थे. बदमाशी पर बदमाशी किए जा रहे हैं, साथ ही साबित कर रहे हैं कि हमसे अच्छा कौन है.
1946 में आया कैबिनेट मिशन. ब्रिटिश पीएम क्लीमेंट एटली के निर्देश पर बना था. वही एटली जो चर्चिल के इस्तीफे के बाद सत्ता में आए थे लेबर पार्टी से. 23 मार्च को ये इंडिया आए. 2 अप्रैल को दिल्ली पहुंचे.
इस मिशन का उद्देश्य था कि भारतीय नेताओं से बात कर एक एग्रीमेंट तैयार करें जिससे कि संविधान बनाने का रास्ता साफ हो. इस मिशन ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग से बात करना शुरू किया.
यही दोनों सबसे बड़ी पार्टियां थीं. बाकी तो छोटी थीं. पर यहां मैटर हो गया. बात होने लगी कि सांप्रदायिकता को रोकने के लिए हिंदू मुस्लिम के बीच पावर शेयर किया जाए. माने ये अद्भुत उपाय था. लोहे को लोहे से काटिए. हाथ भी काट लीजिए.
गांधी और नेहरू चाहते थे कि एक मजबूत केंद्रीय सरकार रहे जो कि राज्य सरकारों से बहुत ताकतवर हो. क्योंकि इसी तरीके से एकता सुरक्षित रखी जा सकती थी. वहीं मुहम्मद अली जिन्ना का मानना था कि मुस्लिमों को अलग से वादे किए जाएं. उनके मुताबिक डर था कि अंग्रेजों के जाते ही ये देश हिंदू राष्ट्र हो जाएगा. मुस्लिम देश पाकिस्तान की मांग की जाने लगी. पर कैबिनेट मिशन ने मुस्लिम पाकिस्तान की मांग को रिजेक्ट कर दिया.
शिमला कॉन्फ्रेंस में शरीक हुए दिग्गज.
शिमला कॉन्फ्रेंस में शरीक हुए दिग्गज.

शिमला कॉन्फ्रेंस हुआ मई के पहले सप्ताह में. 16 मई 1946 को कैबिनेट मिशन ने अपना प्लान दिया

1. एकीकृत भारतीय गणराज्य को स्वतंत्रता दी जाएगी. 2. मुस्लिम मेजॉरिटी वाले राज्य एक साथ रखे जाएंगे. सिंध, पंजाब, बलूचिस्तान, नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस एक ग्रुप में रहेंगे. वहीं बंगाल और आसाम एक ग्रुप में. 3. हिंदू मेजॉरिटी वाले सेंट्रल और साउथ इंडिया में एक ग्रुप में रहेंगे. 5. जबकि केंद्रीय सरकार दिल्ली में रहेगी. इनके जिम्मे डिफेंस, करेंसी और इंटरनेशनल रिलेशन रहेंगे. बाकी ताकतें केंद्र और राज्यों में बांट दी जाएंगी.
ये कोई बहुत अलग प्लान नहीं था. ये बस 1935 वाला एक्ट ही था. जैसे कोई नशेड़ी दोस्त 3-4 हजार बार मना करने के बाद भी जब नशा करता है तो एक बार पूछ ही लेता है, वैसे ही ब्रिटिश सरकार भी कर रही थी. बार-बार एक ही बात. कुछ फंसा के.
इससे पहले 1946 की शुरुआत में चुनाव कराए गए थे. कांग्रेस ने अनारक्षित सीटें जीत ली थीं. पर मुस्लिमों के लिए सुरक्षित ज्यादातर सीटों पर मुस्लिम लीग का ही कब्जा हुआ था. इस बात से कांग्रेस आतंकित थी कि सांप्रदायिकता को अगर काउंटर नहीं किया गया तो मामला बिगड़ जाएगा. एक कम्युनल पार्टी को सत्ता निर्देश करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता.
16 जून 1946 को फिर से नया प्लान बना दिया भाइयों ने. कहा कि हिंदू बहुल और मुस्लिम बहुल के आधार पर बांटा जाएगा. कांग्रेस ने इसे भी रिजेक्ट कर दिया. मुस्लिम लीग ने पहले तो प्लान मानने में दिलचस्पी दिखाई फिर रिजेक्ट कर दिया कि पूरा देश चाहिए अलग. 27 जुलाई को मुस्लिम लीग काउंसिल बंबई में मिली जहां जिन्ना ने कहा कि अब तो पाकिस्तान ही चाहिए. 29 जुलाई को जिन्ना ने कहा कि अब डायरेक्ट एक्शन से लेंगे पाकिस्तान. 16 अगस्त की तारीख तय कर दी गई इसके लिए.

फ्यूचर पाकिस्तानी पीएम हुसैन सुहरावर्दी का ग्रेटर बंगाल प्लान, कांग्रेस और मुस्लिम लीग से अलग

1946 के चुनाव में बंगाल में मुस्लिम लीग जीत गई. 121 रिजर्व्ड सीटों में से इनको 114 सीटें मिलीं. इस जीत ने साबित किया कि अब जनता में भी दो देश का विचार फ़ैल चुका है. इस चीज को मुस्लिम लीग ने खूब भुनाया. जब भी पाकिस्तान और ‘दो दिलों के टूटने’ की बात होती तो ये लोग इस जीत का जिक्र करते.
पर बंगाल के मुस्लिम नेता हुसैन सुहरावर्दी ने एक अलग प्लान भी बनाया था. ईस्ट इंडिया में एक अलग देश की. पूरा बंगाल, असम और बिहार के कुछ जिलों को मिलाकर. इसको ग्रेटर इंडिपेंडेंट बंगाल कहे जाने का प्लान था. हुसैन सुहरावर्दी उस वक़्त बंगाल के मुख्यमंत्री थे. इस प्लान में बंगाल के हिन्दू नेता शरत चन्द्र बोस, किरण शंकर रॉय और सत्य रंजन बख्शी भी शामिल थे. पर ये प्लान फ्लॉप हो गया.
इसी दौरान एक घटना हुई जिसने सारे रिश्ते-नाते बदल दिए. ब्रिटेन से आए कैबिनेट मिशन ने प्लान किया था कि इंडिया को डोमिनियन स्टेटस यानी ब्रिटेन के अंडर रखकर सत्ता ट्रान्सफर कर दी जाएगी. पर मुस्लिम लीग कांग्रेस के साथ किसी भी तरह का जोड़ करने के लिए तैयार नहीं थी. इन्होंने दलील दी कि हिन्दू वाले एरिया हिंदुस्तान और मुस्लिम वाले पाकिस्तान में बांट दिए जाएं. कांग्रेस इस बात पर राजी नहीं हुई.
जिन्ना और गांधी
जिन्ना और गांधी

जिन्ना का डायरेक्ट एक्शन डे और सुहरावर्दी पर क़त्ल का इल्जाम

इसके जवाब में मुहम्मद अली जिन्ना ने कलकत्ता में 16 अगस्त 1946 के दिन ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ का ऐलान किया. इरादा था अपनी पाकिस्तान की इच्छा को पब्लिक के माध्यम से जगजाहिर करना. उस वक़्त बंगाल में हिन्दू महासभा भी मारवाड़ी व्यापारियों के साथ अपना सपोर्ट जुटा चुकी थी. बंगाल हिन्दू-मुस्लिम में बंट गया था. नेताओं को इस बात का अंदाज़ा था कि क्या हो सकता है. उन्माद और पागलपन की रोज नई खबरें आतीं. पर सब इंतजार करते रहे.
16 अगस्त को प्रदर्शन के साथ झड़प शुरू हुई. और दंगे में बदल गई. ये दंगा 6 दिन तक चला. हजारों लोगों की मौत हुई और लाखों बेघर हो गए. हुसैन सुहरावर्दी पर इल्जाम लगा कि वो खुद लालबाज़ार पुलिस थाने में जाकर मुआयना करते. दंगों के लिए. पुलिस को खुली छूट दे दी थी. मारने के लिए.
गांधी और सुहरावर्दी
गांधी और सुहरावर्दी

गवर्नर सर फ्रेडरिक बरो और लेफ्टिनेंट जनरल सर फ्रांसिस टकर ने सुहरावर्दी पर सीधे इल्जाम लगाया. कि डायरेक्ट एक्शन के लिए सुहरावर्दी ने पुलिस को एक दिन की छुट्टी दे दी थी. पर ये नहीं बताया कि उन्होंने अपनी आर्मी को क्यों रोक रखा था. क्योंकि जब आर्मी सड़क पर निकली तो दंगाई भाग गए.

थ्योरी सीधी थी

कमजोर को मार देना है. फिर ताकतवर इतिहास से उनका नाम मिटा देंगे. भारत-पाकिस्तान बनने की घोषणा के बावजूद सुहरावर्दी कलकत्ता में ही रुके थे. वजह थी कि दोस्तों ने रोक लिया था. फिर नोआखाली में गांधी और सुहरावर्दी रुके एक छत के नीचे. इसी दंगे के बाद सबसे भयानक दंगा नोआखाली में हुआ था. अगस्त 1947 में. हालांकि इसकी भूमिका 1946 से ही बन रही थी. यहां का दिआरा शरीफ हिन्दू और मुसलमान दोनों के लिए धार्मिक जगह था. पर यहां के खादिम गुलाम सरवर ने हिन्दुओं के खिलाफ तकरीरें करनी शुरू कर दी थीं. तकरीरें चलती रहीं, दंगे होते रहे. सैकड़ों लोगों को मार दिया गया. हजारों औरतों का रेप हुआ. हजारों का जबरी धर्म बदलवा दिया गया. नोआखाली के दंगे ने हिंसा का एक अलग रूप दिखाया.
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नोआखाली में महात्मा गांधी.

महात्मा गांधी दंगों के दौरान नोआखाली गए. उस इलाके में गए जहां पर मुसलमान ज्यादा मरे थे. वहां उन्होंने सुहरावर्दी से जिद की कि मेरे साथ एक ही घर में रुको. दोनों हैदरी हाउस में रुके. इस बात से जनता में बहुत आक्रोश था. फिर दोनों बाहर निकले, एक अधनंगा और दूसरा सूट-बूट में. एक अहिंसा का प्रेमी और दूसरा हजारों के क़त्ल का इल्जाम लिए हुए.
जनता ने आवाज दी: गांधी, यहां क्यों आए हो? हिन्दुओं का दर्द नहीं दिखता?
गांधी ने कहा: इसीलिए आया हूं. मुझे सबका दर्द दिखता है.
जनता ने कहा: जिंदा नहीं जाओगे.
गांधी ने कहा: मार दो. मुझे डर नहीं लगता सही करने से. मैं उपवास रख रहा हूं.
शाम तक हजारों लोग गांधी के साथ बैठे थे. हर तरह के सवाल-जवाब हुए. नए लड़के गरमा-गर्मी से सवाल पूछते. गांधी प्यार से जवाब देते. दंगा ख़त्म हो गया था. गांधी दंगे में बेघर लोगों के आंसू पोंछ रहे थे.


 

ये खबर 'दी लल्लनटॉप' के लिए ऋषभ ने की है.




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