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संकट की घड़ी में जब-जब सरकार बनने का मामला सुप्रीम कोर्ट में गया तो क्या हुआ?

पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों में सरकार के गठन में अहम भूमिका निभाई है.

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महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे (फाइल फोटो- PTI)

महाराष्ट्र में शिवसेना विधायकों की बगावत के कारण महा विकास अघाडी (MVA) सरकार मुश्किल में फंसी है. बुधवार 22 जून को सीएम उद्धव ठाकरे वर्षा बंगले (आधिकारिक आवास) को छोड़कर मातोश्री चले गए. उन्होंने यहां तक दिया है कि वे इस्तीफा देने को तैयार हैं. उधर, बगावत करने वाले एकनाथ शिंदे अलग-अलग दावा करते नजर आ रहे हैं. बगावत करने वाले गुट ने एकनाथ शिंदे को विधायक दल का नेता बना दिया.

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महाराष्ट्र की राजनीति में बनी यह अनिश्चितता कोई पहली घटना नहीं है. इससे पहले भी कई राज्यों में विधायकों की बगावत देखने को मिली है. इस तरह के राजनीतिक संकट के दौरान मामले सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचे हैं. कोर्ट ने ऐसे कई मौकों पर फ्लोर टेस्ट को एक सही तरीका बताया है. जिससे पार्टियों के सरकार में बने रहने या नहीं रहने की स्थिति स्पष्ट हुई है. इंडिया टुडे से जुड़ीं लीगल रिपोर्टर अनीषा माथुर ने ऐसे कुछ मामलों की लिस्ट तैयार की है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने अहम भूमका निभाई है. इसलिए मौजूदा मामले को कुछ पुराने केसों से समझते हैं.

उत्तर प्रदेश

21 फरवरी 1998. उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार थी. तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी ने सीएम कल्याण सिंह को पद से हटा दिया था. लोकतांत्रिक कांग्रेस के नेता जगदंबिका पाल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया. दो दिन बाद ही इलाहाबाद हाई कोर्ट ने जगदंबिका पाल सरकार को अवैध बताया. और कल्याण सिंह सरकार को बहाल करने का आदेश दिया. फिर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया. कोर्ट ने निर्देश दिया कि सत्ता में कौन होगा, इसके लिए तुरंत फ्लोर टेस्ट कराया जाए.

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यह मामला तब उठा था जब सत्ताधारी बीजेपी के ही 12 विधायकों ने अपनी पार्टी से समर्थन वापस ले लिया था. बाद में सुप्रीम कोर्ट में विधायकों के खिलाफ दलबदल विरोधी कानून के तहत कार्रवाई का मामला भी पहुंचा. कोर्ट ने कहा था कि फ्लोर टेस्ट कराए जाने के आदेश के बाद भी एक दिन पहले तक स्पीकर ने 12 विधायकों की अयोग्यता को बरकरार रखा था. मामले में स्पीकर की भूमिका की काफी आलोचना हुई थी. 26 फरवरी 1998 को हुए फ्लोर टेस्ट में कल्याण सिंह के पक्ष में 225 वोट पड़े थे और उन्होंने बहुमत साबित किया. जगदंबिका पाल को 196 वोट मिले थे.

झारखंड

साल 2005. झारखंड में पहली बार विधानसभा चुनाव हुए थे. किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था. 81 सदस्यीय राज्य विधानसभा में बहुमत के लिए 41 विधायकों की जरूरत थी. बीजेपी 30 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी थी. वह जेडीयू और निर्दलीय विधायकों के साथ सरकार बनाने का दावा भी कर रही थी. लेकिन तत्कालीन राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी ने 2 मार्च 2005 को झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन को सीएम पद की शपथ दिला दी. जबकि जेएमएम के पास 17 सीटें थीं और उसकी सहयोगी कांग्रेस के पास 9 विधायक थे. राज्यपाल ने शिबू सोरेन को 21 मार्च तक बहुमत साबित करने को कहा.

बीजेपी नेता अर्जुन मुंडा इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए. कोर्ट ने फ्लोर टेस्ट कराने की तारीख 11 मार्च तय कर दी. 11 मार्च को विधानसभा में काफी हंगामा हुआ. क्योंकि यूपीए के पास पर्याप्त संख्याबल नहीं था. प्रोटेम स्पीकर ने सदन को 15 मार्च तक स्थगित कर दिया. बीजेपी ने फिर हंगामा किया. शिबू सोरेन ने राज्यपाल को इस्तीफा सौंप दिया. इसके बाद 12 मार्च को अर्जुन मुंडा ने सीएम पद की शपथ ली थी.

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गोवा

साल 2017. गोवा विधानसभा चुनाव के नतीजों में कांग्रेस 17 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी थी. बीजेपी के पास 13 विधायक थे. छोटी पार्टियों और निर्दलीयों के साथ सरकार बनाने का दावा करने पर राज्यपाल ने बीजेपी को आमंत्रित किया. राज्यपाल ने मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर को शपथ ग्रहण के बाद बहुमत साबित करने के लिए 15 दिनों का समय दिया था. राज्यपाल मृदुला सिन्हा के फैसले के खिलाफ कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट चली गई. फिर सुप्रीम कोर्ट ने 24 घंटे के भीतर फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया था. हालांकि सीएम पर्रिकर ने बहुमत साबित कर दिया था.

कर्नाटक

कर्नाटक में 2018 विधानसभा चुनाव में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था. चुनाव नतीजों के बाद राज्यपाल ने बीजेपी के बीएस येदियुरप्पा को सीएम पद की शपथ के लिए बुलाया. उन्हें विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन का समय दिया गया. इसके खिलाफ कांग्रेस और जेडी(एस) सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए. कोर्ट से कहा कि फ्लोर टेस्ट में देरी होने से विधायकों की खरीद-फरोख्त शुरू हो जाएगी. इसके बावजूद येदियुरप्पा ने सीएम पद की शपथ ली.

आधी रात को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई. कोर्ट ने तुरंत फ्लोर टेस्ट कराने का आदेश दिया. सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के फैसले को गलत ठहराया. और कहा कि विधानसभा के सदस्यों ने शपथ भी नहीं ली और विधानसभा अध्यक्ष का चुनाव भी नहीं हुआ. तीन दिन बाद ही येदियुरप्पा सरकार गिर गई. उन्होंने सीएम पद से इस्तीफा दे दिया. फिर जेडी(एस) के एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने.

मध्य प्रदेश

2018 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जीत हासिल कर कमलनाथ के नेतृत्व में सरकार बनाई थी. मार्च 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में चले गए. कांग्रेस के 22 विधायकों ने भी इस्तीफा दे दिया था. राज्यपाल लालजी टंडन ने कमलनाथ सरकार को फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया. लेकिन स्पीकर ने कोविड-19 का हवाला देते हुए सदन को स्थगित कर दिया था. शिवराज सिंह चौहान और कई बीजेपी विधायकों ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया. सुप्रीम कोर्ट ने भी 24 घंटे के भीतर कांग्रेस सरकार को बहुमत साबित करने का आदेश दिया. लेकिन कमलनाथ ने फ्लोर टेस्ट से पहले ही अपना इस्तीफा सौंप दिया था. शिवराज सिंह चौहान एक बार फिर राज्य के मुख्यमंत्री बन गए.

कांग्रेस ने तर्क दिया था कि राज्यपाल कैबिनेट की सिफारिश के बिना फ्लोर टेस्ट के लिए नहीं बुला सकते, वो भी तब जब विधायकों के इस्तीफे को स्पीकर ने स्वीकार नहीं किया था. बाद में अप्रैल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि राज्यपाल का फ्लोर टेस्ट के लिए आदेश देना सही था.

महाराष्ट्र

महाराष्ट्र की मौजूदा महा विकास अघाडी (MVA) सरकार भी सुप्रीम कोर्ट में मामला पहुंचने के बाद बनी थी. 2019 विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन टूट गया था. उधर, शिवसेना ने एनसीपी और कांग्रेस के साथ मिलकर महा विकास अघाडी गठबंधन बना लिया. लेकिन राज्यपाल ने बीजपी नेता देवेंद्र फडणवीस को सरकार बनाने का न्योता दिया. एनसीपी नेता अजित पवार ने दावा कर दिया था कि पार्टी विधायक उनके साथ हैं. राज्यपाल के फैसले के खिलाफ शिवसेना सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई और फ्लोर टेस्ट की मांग करने लगी. कोर्ट में रविवार के दिन विशेष सुनवाई हुई और आदेश दिया गया कि 24 घंटे के भीतर फ्लोर टेस्ट कराया जाए. तीन दिन बाद ही देवेंद्र फडणवीस को इस्तीफा देना पड़ा. इसके बाद उद्धव ठाकरे पहली बार राज्य के सीएम बने थे.

महाराष्ट्र में फिलहाल उद्धव ठाकरे सरकार घिर गई है. विधानसभा में शिवसेना के 55 विधायक हैं. बगावत करने वाले एकनाथ शिंदे का दावा है कि उनके साथ 40 से ज्यादा विधायक हैं. अगर इस संख्याबल के साथ वे कोई फैसला लेते हैं तो विधायकों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होगी. दरअसल, दल बदल विरोधी कानून के मुताबिक अगर किसी पार्टी के कुल विधायकों में दो तिहाई से ज्यादा विधायक अलग होते हैं, तो उन्हें अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता है.

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