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क्या BJP नेता रहीं विक्टोरिया गौरी को नियमों के खिलाफ जाकर हाईकोर्ट में जज बनाया गया?

क्या जस्टिस गौरी के खिलाफ चल रहा विरोध अपने आप हो रहा है या फिर उसकी जड़ें तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति में हैं.

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जज के पद की शपथ लेते हुए विक्टोरिया गौरी

न्यायपालिका की दुनिया औपचारिकताओं से भरी पड़ी है. कौन क्या पहनेगा, कहां बैठेगा, क्या बोलेगा, ये सब दशकों और कुछ मामलों में तो सदियों पुरानी परंपराओं से तय होता है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि इस दुनिया में नाटकियता की ज़रा भी कमी है. तभी तो एक तरफ सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रही थी कि विक्टोरिया गौरी को मद्रास हाईकोर्ट में जज बनाया जाना चाहिए कि नहीं और दूसरी तरफ उन्होंने पद की शपथ ले भी ली.

मामला तय होने से पहले शपथग्रहण की बात आती है, तो हमारे ज़ेहन में आते हैं राजभवनों के वो दरबार, जहां महामहिम कभी-कभी माननीयों को चुपके से शपथ दिला देते हैं. कि जो होगा, बाद में देखा जाएगा. लेकिन मद्रास हाईकोर्ट में हुआ शपथग्रहण किसी से छिपा नहीं था. वो अपने तय वक्त पर शुरू हुआ, और विक्टोरिया गौरी, जस्टिस गौरी बन गईं. इसके कुछ ही देर बाद सुप्रीम कोर्ट में विक्टोरिया गौरी के खिलाफ लगी याचिका खारिज हो गई. लेकिन चेन्नई के वकीलों ने इसे स्वीकार नहीं किया और प्रदर्शन करने लगे. कारण - अतीत में विक्टोरिया गौरी का भारतीय जनता पार्टी से संबंध और अल्पसंख्यकों के खिलाफ दिये उनके कथित बयान जिनमें से कुछ को हेट स्पीच की संज्ञा दी गई.

जस्टिस गौरी के मामले के बहाने हम आज दो महत्वपूर्ण प्रश्नों के जवाब खोजेंगे -

> क्या किसी राजनैतिक दल से जुड़ा रहा व्यक्ति आगे चलकर न्यायपालिका का हिस्सा बन सकता है?
> अगर ऐसा होता है, तो न्यायिक स्वतंत्रता के प्रश्न को कैसे देखा जाए, क्योंकि न्यायिक स्वतंत्रता, निष्पक्षता से नत्थी है.
> ये जानना ज़रूरी है कि जस्टिस गौरी के मामले में इन प्रश्नों का वज़न क्या है. और क्या उनके खिलाफ चल रहा विरोध स्वतः स्फूर्त है या फिर उसकी जड़ें तमिलनाडु की द्रविड राजनीति में हैं.

हम पहले ही स्पष्ट कर दें कि हमारा मकसद जस्टिस गौरी के आचरण पर टिप्पणी करना नहीं है. वो अब एक संवैधानिक अदालत में आसीन हैं. और परंपरा ये कहती है कि न्यायधीशों के फैसलों पर टिप्पणी अथवा आलोचना हो, न कि उनके व्यक्तित्व पर. हम बस ये देखने का प्रयास कर रहे हैं कि मद्रास हाईकोर्ट में अडिशनल जज बनने से पूर्व विक्टोरिया गौरी का सार्वजनिक जीवन कैसा था. और उनके एक वकील और फिर एक जज बनने की प्रक्रिया में कौन-कौनसे मोड़ आए, कौन-कौन से प्रश्न खड़े हुए. ताकि मद्रास हाईकोर्ट के वकीलों द्वारा जताए गए विरोध को सही संदर्भ में देखा और समझा जा सके.

शुरुआत करते हैं संक्षिप्त परिचय से. लक्ष्मण विक्टोरिया गौरी तमिलनाडु के कन्याकुमारी ज़िले से आती हैं. समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक उन्होंने शपथग्रहण के बाद दिए अपने भाषण में कहा,

''मैं एक बेहद सामान्य परिवार से आती हूं. मैं अपने परिवार की पहली सदस्य हूं, जो वकील बनी.''

गौरी ने वकालत वहीं से शुरू की, जहां से उनकी पढ़ाई हुई थी - मदुरै. वहां के लॉ कॉलेज से पढ़ाई होने के बाद वो जल्द ही मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै पीठ में प्रैक्टिस करने लगीं. जज बनने से पहले उनके 20 साल के करियर का हाई पॉइंट कहा जा सकता है 8 सितंबर 2020 को. तब मोदी सरकार ने उन्हें असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल ऑफ इंडिया नियुक्त किया.

आगे बढ़ने से पहले इस पद का महत्व समझिये - दर्शक जानते ही हैं कि अटॉर्नी जनरल भारत सरकार के मुख्य वकील होते हैं. इनकी मदद के लिए सॉलिसिटर जनरल और अनेक असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरलों की एक टीम होती है. चूंकि भारत सरकार को देश की तमाम हाईकोर्ट्स और उनकी पीठों में भी पेश होना होता है, इसीलिए हर संबंधित न्यायालय या उसकी पीठ के यहां कम से कम एक असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल या ASG को नियुक्त किया जाता है. केंद्र सरकार के विधि कार्य विभाग की वेबसाइट पर ASG की सूची है. इसमें 27 वें स्थान पर मद्रास हाईकोर्ट की मदुरै बेंच के आगे विक्टोरिया गौरी का नाम लिखा है. 7 फरवरी, माने आज तक वो मदुरै बेंच में भारत सरकार की वकील थीं.

लेकिन विक्टोरिया गौरी के परिचय में एक वकील के तौर पर उनकी कामयाबी के अलावा भी बहुत कुछ है. विक्टोरिया गौरी लंबे समय तक भारतीय जनता पार्टी से जुड़ी रहीं. एक ट्विटर हैंडल की बड़ी चर्चा है, जो अब एक्टिव नहीं. इसे गौरी का ही बताया जाता है. इंडियन एक्सप्रेस के लिए अरुण जनार्दन ने एक लेख में बताया है कि हैंडल का नाम  चौकीदार विक्टोरिया गौरी था. बायो में उन्होंने खुद को भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय महासचिव बताया था. टाइमलाइन में ज़्यादातर रीट्वीट थे - कुछ प्रधानमंत्री मोदी के ट्वीट्स, और कुछ गृहमंत्री अमित शाह के. अरुण जनार्दन के लेख में ही मदुरै बार के एक वकील के हवाले से लिखा गया है छात्र जीवन से ही विक्टोरिया गौरी का झुकाव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर था. और ये बात किसी से छिपी नहीं थी.

केंद्र में मोदी सरकार है, तो ये बात किसी को असहज कर सकती है कि पूर्व में भाजपा समर्थक रहा कोई व्यक्ति संवैधानिक अदालत में जज बन जाए. लेकिन हमने जितना अध्ययन किया, उससे यही सामने आया कि राजनैतिक पृष्ठभूमि से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े जजों का भारत में लंबा इतिहास रहा है.

अरुण जनार्दन अपने लेख में तमिल नाडु से ही आने वाले दो और उदाहरण देते हैं. पहला है जस्टिस एस रतनवेल पांडियन का. ये तिरुणेवेली ज़िले में DMK के ज़िला सचिव थे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में जज बने. इसी तरह जस्टिस वीएम वेलुमणी का उदाहर है. ये AIADMK की सदस्य थीं. जब विरोध हुआ, तब AIADMK की मुखिया जे जयललिता ने स्पष्ट किया कि वेलुमणि ने पार्टी छोड़ दी है. इसके बाद वो जज बन पाईं.

तो राजनैतिक रुझान प्रायः जज बनने के आड़े नहीं आता. हमने प्रायः इसीलिए जोड़ा, क्योंकि इसके लिए कोई लिखित नियम नहीं है. निष्पक्षता को लेकर एक आग्रह है, जिसका मान रखा जाता है. तब विक्टोरिया गौरी का इतना मुखर विरोध क्यों हो रहा है? इसके पीछे हैं राजनैतिक रुझान के चलते दिये गए उनके बयान. कुछ बयानों पर गौर कीजिए -

> 'जहां तक ​​भारत की बात है, मैं कहना चाहूंगी कि ईसाई समूह, इस्लामिक समूहों से ज्यादा ख़तरनाक हैं. धर्मांतरण और खासकर लव जिहाद के संदर्भ में मुस्लिम और ईसाई समूह दोनों समान रूप से खतरनाक हैं.

> 'मुझे एक हिंदू लड़की के मुस्लिम लड़के से शादी करनें में कोई आपत्ति नहीं है जब तक कि वो एक दूसरे से प्यार ना कर रहे हों. और प्यार से जीवन जी रहे हों. लेकिन अगर मेरी लड़की खो जाए, और फिर एक सीरियाई आतंकवादी कैंप में मिले, तो मुझे आपत्ति होगी. मैं इसे लव जिहाद के रूप में परिभाषित करती हूं.'

>''यह रोमन कैथोलिक संप्रदाय का सबसे ग़लत काम है. इस संप्रदाय ने कला, संस्कृति और साहित्य के नियंत्रण के लिए एक ग्रुप बनाया . द्रविड़ साहित्य के नाम पर वामपंथी विचारधारा को लाया गया और बाद में उसने धर्मांतरण को फलने-फूलने के लिए जगह दी.''

'आर्टिकल 14' में छपी सौरव दास की रिपोर्ट में विक्टोरिया गौरी के ऐसे कई बयानों का ज़िक्र है. रिपोर्ट के मुताबिक एक वक्त तो गौरी ने इस्लाम की तुलना 'ग्रीन टेरर' और ईसाई धर्म की तुलना 'व्हाइट टेरर' से कर दी थी. गौरी ने 1 अक्टूबर 2012 को ऑर्गनाइज़र के लिए एक लेख लिखा था. ये मैगज़ीन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी हुई बताई जाती है. इस लेख का शीर्षक है - Aggressive baptising destroying social harmony. लेख में कन्याकुमारी में चल रहे कथित डेमोग्रैफिक चेंज के बारे में चिंताएं जताई गई थीं. और क्रश्चियन मिश्नरीज़ को दोष दिया गया था. गौरी के परिचय में लिखा था - The author is a National Secretary of BJP Mahila Morcha and the Prabhari of BJP Mahila Morcha – Kerala. माने लेखक भाजपा महिला मोर्चा की महासचिव हैं और केरल की प्रभारी हैं.

विक्टोरिया गौरी का दावा है कि उन्होंने सॉलिसिटर जनरल बनने से तकरीबन तीन महीने पहले भाजपा की सदस्यता छोड़ दी थी. लेकिन उनके बयानों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. 17 जनवरी 2023 को भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाले सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम ने विक्टोरिया गौरी के नाम को मंज़ूरी दी थी. और तभी से गौरी के बयानों को आधार बनाकर उनके जज बनने का विरोध भी शुरु हुआ. मद्रास हाईकोर्ट के 21 वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम और भारत के राष्ट्रपति से शिकायत की. उनके बयानों को भड़काऊ बताया. और मांग की, कि विक्टोरिया गौरी के नाम का संकल्प वापिस लिया जाए.

विक्टोरिया गौरी को अडिशनल जज बनाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दो याचिकाएं भी लगाई गईं. 6 फरवरी को इन याचिकाओं का ज़िक्र सुप्रीम कोर्ट में किया गया. वरिष्ठ अधिवक्ता राजू रामचंद्रन की दलीलें सुनने के बाद कोर्ट ने 10 फरवरी को मामले की सुनवाई मुकर्रर की. लेकिन दोपहर बाद खबर आई कि केंद्र सरकार ने कोलेजियम की सिफारिशों को मानते हुए जस्टिस गौरी की नियुक्ति को मंज़ूरी दे दी है. केंद्रीय कानून मंत्री किरेण रिजिजू ने ट्वीट करके ये बताया. गौरी समेत कुल 13 नामों को केंद्र से मंज़ूरी मिली थी. माने अब इनके नाम भारत की राष्ट्रपति एक वॉरंट जारी करने वाली थीं.

वॉरंट में ये नहीं लिखा होता है कि नियुक्ति इस तारीख को, इतने बजे हो. बस राष्ट्रपति ये बताते हैं कि वो अमुक शख्स को नियुक्त कर रहे हैं. लेकिन वॉरंट के बाद शपथ ग्रहण कभी भी हो सकता है. एक तरह से ये राष्ट्रपति के आदेश की तामील होती है. इसीलिए दोपहर बाद राजू रामचंद्रन एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे. उन्होंने न्यायालय से मांग की, कि सुनवाई जल्द से जल्द हो. इधर शपथ ग्रहण का कार्यक्रम आ गया - 7 फरवरी, सुबह साढ़े दस बजे के लिए. उधर सुप्रीम कोर्ट ने भी सुनवाई के लिए 7 ही तारीख दे दी.

अब ये कयास लगने लगे कि सुप्रीम कोर्ट तय समय से पहले मामले की सुनवाई करेगा, ताकि शपथ ग्रहण से पहले ही फैसला आ जाए. लोग 1992 के एक मामले की मिसाल देने लगे. केस था कुमार पद्म प्रसाद बनाम भारत संघ. लाइव लॉ के लिए मनु सबैस्टियन ने इस मामले पर विस्तृत लेख लिखा है. वो बताते हैं -

गुआहाटी हाईकोर्ट में के.एन श्रीवास्तव नाम के व्यक्ति को बतौर जज नियुक्त किया गया. उनकी शपथ से पहले बार काउंसिल ने नियुक्ति को चुनौती दी गई. के.एन श्रीवास्तव पर भ्रष्टाचार के आरोप थे. उन्होंने कभी वकालत की प्रैक्टिस नहीं की थी और ना ही कभी ज्यूडिशयल ऑफिसर के पोस्ट पर रहे थे. बार ने ये भी कहा कि के.एन श्रीवास्तव संविधान के अनुच्छेद 217 के तहत हाईकोर्ट का जज बनने की निर्धारित योग्यता को पूरा नहीं करते हैं. 

दरअसल जज बनने के लिए हाईकोर्ट में 10 साल वकालत का अनुभव चाहिए होता है. जबकि के.एन श्रीवास्तव मिजोरम के लॉ एंड ज्यूडिशयल डिपार्टमेंट में सचिव स्तर के अधिकारी थे और उस क्षमता में कुछ न्यायाधिकरणों और आयोगों के सदस्य भी रहे.

उनकी नियुक्ति को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका दायर की तो गुआहाटी हाईकोर्ट ने एक अंतरिम आदेश जारी किया. जिसमें निर्देश दिया कि श्रीवास्तव के लिए राष्ट्रपति के नियुक्ति वारंट को प्रभावी नहीं किया जाना चाहिए. हाईकोर्ट ने आगे केंद्र सरकार को उनकी नियुक्ति पर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया और उसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया. सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन जस्टिस कुलदीप सिंह, पीबी सावंत और एनएम कासलीवाल की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने पाया कि श्रीवास्तव कार्यपालिका के नियंत्रण में एक पद पर थे और इसलिए ये एक न्यायिक कार्यालय नहीं था. कोर्ट ने कहा था -

''स्वतंत्रता के बाद ये पहली बार है कि इस न्यायालय को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा है, जहां उसे एक ऐसे व्यक्ति की पात्रता निर्धारित करने का दर्दनाक कर्तव्य निभाना है, जिसे भारत के राष्ट्रपति द्वारा उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया गया है और जो अपने कार्यालय में प्रवेश करने की प्रतीक्षा कर रहा है. हमने आधिकारिक रिकॉर्ड को देखा और पार्टियों के विद्वान वकील को इसकी जांच करने की अनुमति दी. हम समझ नहीं पा रहे हैं कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 217(1) के तहत परामर्श की प्रक्रिया के दौरान श्रीवास्तव का बायोडाटा अधिकारियों की जांच से कैसे बच गया.''

आदेश देते हुए कोर्ट ने कहा, 

'' हम कुमार पद्म प्रसाद की स्थानांतरित रिट याचिका की अनुमति देते हैं और घोषणा करते हैं कि के.एन. श्रीवास्तव, भारत के राष्ट्रपति द्वारा वारंट जारी करने की तारीख पर, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के योग्य नहीं थे. हम गुआहाटी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में उनकी नियुक्ति को रद्द करते हैं.''

विक्टोरिया गौरी केस में भी सीनियर वकील राजू रामचंद्रन ने इसी केस का हवाला दिया था. मगर इस बार मामला थोड़ा पेचीदा है. के एन श्रीवास्तव की नियुक्ति प्री कोलेजियम इजा यानी जजों की नियुक्ति में कोलेजियम की व्यवस्था आने से पहले की थी. इस बार नियुक्ति खुद सुप्रीम कोर्ट के जजों वाली कोलेजियम के रास्ते हुई थी. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई की टाइमिंग को लेकर कैसे कयास लगे और उहापोह की स्थिति रही.

विशेषज्ञों ने हमें ये बताया कि जस्टिस गौरी अभी अडिशनल जज बनी हैं. और स्थायी जज बनने तक उनके काम की समीक्षा मद्रास उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट में होती रहेगी. अगर दोनों न्यायालय संतुष्ट नहीं होते हैं, तो वो स्थायी जज नहीं भी बन सकती हैं. लेकिन अभी से ये बताना मुश्किल है. क्योंकि जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर का उदाहरण भी हमारे सामने है. वे कम्युनिस्ट थे. लेकिन जज बनने के बाद वे एक विख्यात न्यायाधीश बने. जस्टिस गौरी फिलहाल स्थापित प्रक्रिया के मुताबिक जज बनी हैं. इस बात पर ज़रूर सवाल उठाए जा सकते हैं कि जो सरकार और कोलेजियम कुछ नामों पर सालों ले लेते हैं, वहां जस्टिस गौरी के नाम पर इतनी तेज़ी से अमल कैसे हुआ. लेकिन ये कयासों की दुनिया में प्रवेश करने जैसा है. क्योंकि जहां तक प्रक्रिया का सवाल है, उसका पालन पूरी तरह से हुआ है. अब हमें जस्टिस गौरी का मूल्यांकन उनके फैसलों से करना होगा. 

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