10 अगस्त को प्रधानमंत्री मोदी अविश्वास प्रस्ताव पर बोले. जमकर बोले. 2 घंटे 13 मिनट बोले. कांग्रेस के सवालों के जवाब में उन्होंने कांग्रेस से ही सवाल किए. उन्होंने मणिपुर हिंसा पर कहा,
'वायुसेना ने मिजोरम पर हमला किया', PM मोदी के दावे में कितनी सच्चाई है?
अविश्वास प्रस्ताव पर भाषण देते हुए पीएम नरेंद्र मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में हुई इस सैन्य कार्रवाई पर ये बड़ा दावा किया था. ये तथ्य तो है, लेकिन पूरा सत्य नहीं है.

5 मार्च 1966. इस दिन कांग्रेस ने मिजोरम में असहाय नागरिकों पर अपनी वायुसेना से हमला करवाया था. और बड़ा गंभीर विवाद हुआ था. कांग्रेस वाले जवाब दें, क्या वो किसी दूसरे देश की वायु सेना थी क्या? क्या मिजोरम के लोग मेरे देश के नागरिक नहीं थे क्या? क्या उनकी सुरक्षा भारत सरकार की जिम्मेदारी थी कि नहीं थी? 5 मार्च 1966 को वायुसेना से हमला करवाया गया. निर्दोष नागरिकों पर हमला करवाया गया. आज भी 5 मार्च को पूरा मिजोरम शोक मनाता है.
प्रधानमंत्री मोदी के जवाब में कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने ट्विटर पर लिखा
1966 में Mizo National Front के बाग़ी आइज़ॉल पर कब्ज़ा कर चुके थे. उन्हें भगाने के लिए भारतीय वायु सेना से बमबारी कराना ज़रूरी हो गया था. बमबारी की वजह से MNF (मिजोरम नेशनल फ्रंट) के बाग़ी भाग खड़े हुए और फिर से भारत का आधिपत्य जमा.
ये तथ्य है कि 5 मार्च 1966 को भारतीय वायुसेना ने मिजोरम (तब मिज़ो हिल्स) में अभियान चलाया. एक लोकतंत्र में सरकार अपने नागरिकों पर वायुसेना का इस्तेमाल करे, ये दुर्भाग्यपूर्ण ही है. लेकिन तभी, जब आप बिना संदर्भ आइज़ॉल पर हवाई हमलों की चर्चा करें. तब दिल्ली में सरकार ज़रूर इंदिरा गांधी की थी. लेकिन इस ऑपरेशन के वक्त निर्णय प्रकिया में शामिल कुछ और नामों पर गौर कीजिए -
ले.ज. सैम मानेकशॉ - पूर्वी कमान के कमांडर, आगे चलकर बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के नायक बने. भारत के दूसरे फील्ड मार्शल बने.
एयर चीफ मार्शल अर्जन सिंह - वायुसेना प्रमुख, 1965 युद्ध के नायक. देश के पहले और इकलौते मार्शल ऑफ द इंडियन एयर फोर्स.
आखिर इतने ज़हीन लोगों ने आइज़ॉल पर बम बरसाने का फैसला क्यों लिया? कुछ जवाब हम यहां पेश कर रहे हैं -
बांस के फूल, चूहे और चुनौती11 जनवरी 1966 को लाल बहादुर शास्त्री का ताशकंद समझौते के दौरान निधन हो गया. शास्त्री के बाद कांग्रेस के अंदरखाने इंदिरा के पक्ष में समीकरण बने और वो जनवरी 1966 में भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री बन गईं. प्रधानमंत्री बनते ही उत्तर-पूर्व में एक चुनौती उनका इंतजार कर रही थी. इस चुनौती ने उसी साल अकार लेना शुरू किया था, जिस साल इंदिरा विधिवत राजनीति में आई थीं. साल 1959 में जब इंदिरा कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं, उसी साल “मिज़ो नेशनल फेमिन फ्रंट” बना. ये संगठन चूहों की लाई एक त्रासदी से लड़ने के लिए बना था. त्रासदी अकाल की. जिसे “मौतम अकाल” कहा गया.
दरअसल यह अकाल बांस के फूलों और चूहों की देन था. उस साल पूर्वोत्तर के जंगलों में बांस के फूल उगे थे. ऐसे बांस के फूल 48 साल में एक बार खिलते हैं. ये फूल चूहों को बहुत पसंद होते हैं. इनके चलते चूहों की आबादी भयानक ढंग से बढ़ गई थी. चूहों की अचानक बढ़ी आबादी का मतलब था, मौतम अकाल. चूहों ने खेत-खलिहान की फसल के साथ-साथ गोदामों में रखी रसद चट कर दी. चूहों की आफत से घिरी असम सरकार ने जनता से कहा, "एक चूहा मारो, 40 पैसा पाओ". लोग बोरों में चूहों की लाशें लिए सरकारी दफ्तरों के बाहर दिखते थे. ये 1960 का दशक था. 40 पैसे की कीमत थी. दस्तावेज़ बताते हैं कि असम सरकार ने लोगों को करीब 20 लाख चूहे मारने का भुगतान किया था.
चूहे बसंत में त्रासदी लेकर आए थे. बांस के पेड़ो पर फूल थे और जमीन पर भूख. लोग भूख से मर रहे थे. मिज़ो हिल में इस अकाल की भीषण मार थी. लोगों का जीवन भी दूभर हो गया था. (आजादी के बाद ये इलाका असम के "लुशाई हिल्स" जिले में आता था. 1954 में इसे "मिज़ो हिल्स" नाम दे दिया गया. 1972 में यह केंद्र शासित राज्य बनाया गया और 1987 में इस अलग राज्य का दर्जा मिला.)
अब एक ही चारा था, बाकी देश से अनाज मिज़ो हिल्स (मिज़ोरम) और पूर्वोत्तर के बाकी इलाकों तक पहुंचाया जाता. लेकिन उस समय पूर्वोत्तर तक वैसी कनेक्टिविटी नहीं थी और भारत के दूसरे सूबों में भी खद्यान्न का संकट था. याद कीजिए, 1965 की लड़ाई में अमेरिका ने गेहूं देने के लिए ढेर सारी शर्तें लाद दी थीं. और तब प्रधानमंत्री शास्त्री ने सामूहिक उपवास का आह्वान किया था.
इन सबके चलते पूर्वोत्तर को वैसी मदद नहीं मिल सकी, जैसी उस समय मिलनी चाहिए थी. भरोसा टूटा, और गहरा असंतोष पनपा. लुशाई हिल्स में अकाल से निपटने के लिए एक युवक सामने आया. नाम था लालडेंगा. उस ज़माने में लुशाई हिल्स असम का हिस्सा थे. तो लालडेंगा ने मौजूदा असम सरकार को विफल बताते हुए शहर और गांव के नौजवानों को मिला कर एक नागरिक संगठन बनाया, "मिज़ो नेशनल फेमिन फ्रंट". ये संगठन नहीं था, चुनौती थी. मौतम अकाल के बाद 1961 में इस संगठन से "फेमिन" शब्द हट गया और संगठन बन गया, "मिजो नेशनल फ्रंट (MNF)" ये संगठन और इसका नेता लालडेंगा भारत के खिलाफ विद्रोह करने वाला था. पकिस्तान और चीन की कठपुतली होने वाला था. भारत से अलग मिज़ो देश की मांग करने वाला था.
लालडेंगा: सैनिक-उग्रवादी-मुख्यमंत्रीलालडेंगा उस समय के असम और आज के मिजोरम के पुकपुई गांव के रहने वाले थे. 1944 में उन्होंने ब्रिटिश आर्मी जॉइन की थी. अंग्रेजों के जाने के बाद उन्होंने सेना छोड़ दी और असम सरकार में क्लर्क हो गए. बाद के दिनों में उन्हें इल्हाम हुआ कि उनका जन्म नेतृत्व करने के लिए हुआ है. उन्होंने नेतृत्व की तैयारी की. किताबों में डूब गये. मार्क्स, लेनिन, माओ जैसे विचारकों को पढ़ा. लोगों के बीच काम करना शुरू किया.
लालडेंगा आधुनिक म्यांमार के प्रणेता आंग सान की सशस्त्र क्रांति से प्रभावित थे. उन पर कम्युनिस्ट विचारों का प्रभाव था, सो राष्ट्र की संकल्पना जकड़न लगती थी. अपने लक्ष्य को पाने के लिए उन्हें विदेशी मदद से गुरेज नहीं थी. सो लालडेंगा ने चीन और पाकिस्तान की मदद से भारत में विद्रोह किया. मिजो हिल्स में उग्रवादी आंदोलन का नेतृत्व किया. लेकिन अंततः वो भारत सरकार के साथ शांति वार्ता में शामिल हुए. जब मिजोरम अलग राज्य बन गया तो उसके पहले मुख्यमंत्री बने.
लालडेंगा को लंग कैंसर था. 7 जुलाई 1990 को न्यूयॉर्क से इलाज करा कर दिल्ली लौटते हुए रास्ते में उनकी तबियत बिगड़ी, लंदन में इमरजेंसी लैंडिग कराई गई और लंदन में ही मौत हो गई.

आखिर यह कैसे हुआ कि उग्रवादी पृष्ठभूमि वाला कोई नेता किसी प्रदेश का मुखिया बन गया? ज़ाहिर है, इस कहानी में कई मोड़ थे. हिंसा थी, भारतीय सेना के अभियान थे. चीन और पाकिस्तान की चालें थीं और था वह कलंक जो इंदिरा गांधी के माथे आना था.
संदर्भ सहित 5 मार्च 1966अकाल के दौरान असम सरकार के रवैए से लोगों में गुस्सा था. मिज़ो आदिवासी असम सरकार पर पक्षपात का आरोप लगा रहे थे. और ये गुस्सा अचानक पैदा नहीं हुआ था. असम के मैदानों पर नियंत्रण स्थापित होते ही अंग्रेज़ों ने पहाड़ी इलाकों का रुख किया, जैसे आधुनिक नागालैंड, मेघालय, मिज़ोरम आदि. 1895 में अंग्रेज़ों ने लुशाई हिल्स के मिजो आदिवासियों को काबू कर लिया. लेकिन आदिवासी समाज के लिए किसी बाहरी ताकत के मातहत जीवन की कल्पना करना मुश्किल ही रहा. छोटी-छोटी बातों पर सवालों की सुई ‘’बाहरियों'' की ओर घुमा दी जाती. आज़ादी से पूर्व जो गुस्सा अंग्रेज़ों के प्रति था, आज़ादी के बाद उसके निशाने पर शिलॉन्ग से चलने वाली असम सरकार आ गई.
दरअसल आजादी के बाद संविधान की छठवीं अनुसूची के तहत उत्तर-पूर्व में आदिवासी इलाकों में जिला परिषदों (District Councils) का गठन किया गया. इसी के तहत 1952 में लुशाई हिल्स डिस्ट्रिक्ट काउंसिल बनाई गई. कांउसिल के गठन के बाद से ही मिज़ो हिल्स के आदिवासी कबीलों में असंतोष था. उनका मानना था कि असम सरकार काउंसिल की स्वतंत्रता और स्वायत्ता को खत्म कर देना चाहती है. पुराना कबीलाई प्रशासन खत्म हो चुका था. स्वायत्त जिला परिषद कमजोर बताई जा रही थी. ऐसे में मिज़ो आदिवासियों ने एक संगठन बनाया गया. नाम रखा मिज़ो यूनियन. ये यूनियन, मिज़ो बहुल जिला परिषदों पर हावी था.
देश में उसी समय भाषा के आधार पर अलग राज्य बनाने की मांग उठी. केंद्र सरकार ने दिसंबर 1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग (States Reorganisation Commission-SRC) बनाया. साल 1954 में मिज़ो यूनियन ने SRC को एक मेमोरंडम सौंपा. मांग की गई कि मणिपुर, त्रिपुरा और लुशाई हिल्स के मिज़ो बहुल इलाके मिलाकर अलग राज्य बना दिया जाए. इस क्षेत्र की भाषाई और सांस्कृतिक विविधता को देखते हुए मिज़ो यूनियन की मांग नहीं मानी गई. इसके बाद साल 1959 में मौतम अकाल आया. अकाल अभी गया नहीं था. साल 1960 में असम के कांग्रेसी मुख्यमंत्री बिमला प्रसाद चाहिला "असम ऑफिशियल लैग्वेज एक्ट-1960" लेकर आ गए. असमिया को राज्य की आधिकारिक भाषा घोषित कर दिया गया. मिज़ो भाषा "कुकी-चिन" को इस कानून में जगह नहीं मिली. जगह तो बंगाली को भी नहीं मिली थी. भाषाई आंदोलन ने जोर पकड़ा. साल 1961 में कानून में संशोधन हुआ. बंगाली को जगह मिली और मिज़ो भाषियों को अधिकारों की रक्षा का आश्वासन मिला. इसी समय "मिजो नेशनल फेमिन फ्रंट" फेमिन हटाकर "मिजो नेशनल फ्रंट" हो गया. फ्रंट ने पहले केंद्र और राज्य की कांग्रेस सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किए और फिर भारत के खिलाफ ही लोगों को भड़काना शुरू कर दिया. साल 1963 में सुरक्षा बलों ने MNF के अध्यक्ष लालडेंगा और उपाध्यक्ष लालनुनमाविया को गिरफ्तार कर लिया. फरवरी 1964 में असम सरकार ने इन्हें रिहा कर दिया गया. उसी साल सेना ने असम रेजीमेंट की सेकेंड बटालियन को अनुशासनहीनता के चलते भंग कर दिया. इस बटालियन में अधिकतर मिजो हिल्स के जवान थे. सेना से निकाले गए जवानों ने MNF ज्वाइन कर लिया. सेना के इन जवानों ने NMF की एक आर्मी विंग बनाई. नाम रखा “मिजो नेशनल आर्मी (MNA)”. यही से मिजो आंदोलन पूरी तरह सशस्त्र आंदोलन में बदल गया.
लालडेंगा ने मिज़ो नेशनल फ्रंट के जरिए पहले से ही आदिवासियों के गुस्से का इस्तेमाल कर रहा था. मीज़ो नेशनल आर्मी बनने के बाद उसने लोगों को अपना अलग देश बनाने का सपना दिखाया. युवा मिज़ो नेशनल आर्मी से जुड़ने लगे. इस ‘फौज’ को ट्रेनिंग मिली पाकिस्तान में.
उन दिनों पाकिस्तान में अयूब खान का निजाम था. 1964 से पूर्वी पाकिस्तान में आंतरिक अशांति की शुरुआत हो चुकी थी.लगातार दंगे हो रहे थे. पाकिस्तान ने भारत में भी आंतरिक अशांति फैलाने की नीयत से लालडेंगा और उनके साथियों को मदद पहुंचाना शुरू किया. 1964 में पूर्वी पाकिस्तान की चिटगांव पहाड़ियों पर मिजो नेशनल आर्मी के उग्रवादियों की ट्रेनिंग हुई. भारी मात्रा में हथियार मुहैया कराए गए.
नतीजा - मिजो हिल्स में उग्रवादी घटनाएं होने लगीं. 1965 में लाल बहादुर शास्त्री सरकार ने पहली बार मिज़ो विद्रोहियों से बातचीत की. लालडेंगा ने मिज़ो हिल्स को भारत से अलग करने की मांग रखी. शास्त्री सरकार ने मांग खारिज कर दी. इसके बाद मिजो नेशनल आर्मी ने हमले तेज कर दिए. जातीय हिंसा, दंगे और सेना के साथ मुठभेड़ की घटनाएं बढ़ गईं.

इसी दौरान 11 जनवरी, 1966 को प्रधानमंत्री शास्त्री का निधन हो गया. इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे अभी एक महीने चार दिन ही हुए थे. 28 फरवरी 1966 को मिज़ो नेशनल आर्मी ने "ऑपरेशन जेरिको" का ऐलान कर दिया. इस अभियान के जरिए मिजो नेशनल फ्रंट, मिजो हिल्स में तैनात भारतीय जवानों को बाहर निकालना चाहता था. ये भारत सरकार के खिलाफ खुला विद्रोह था.
असम राइफल्स चूंकि पूर्वोत्तर में स्थायी रूप से तैनात थी, वो ऑपरेशन जेरिको के लिए सबसे बड़ा टार्गेट बनी. असम राइफल्स के लुंगलेई और आइज़ॉल के ठिकानों पर हमले शुरू कर दिए गए. एक उग्रवादी संगठन द्वारा इस तरह का संगठित हमला अप्रत्याशित था. पूरे मिजो हिल्स में लड़ाई छिड़ गई. आइज़ॉल इसके केंद्र में था.
1 मार्च का सूरज उगने के साथ ही लालडेंगा ने मिजो हिल्स को आजाद देश घोषित कर दिया. इस घोषणा के साथ ही पूरे इलाके में अव्यवस्था फैल गई. हथियारबंद लड़ाकों ने सरकारी दफ्तरों पर कब्जा कर लिया. पुलिस चौकियां लूटी जाने लगीं. 2 मार्च 1966 को लगभग 10 हजार मिजो उग्रवादियों ने आइज़ॉल (Aizawl) शहर में सरकारी खजाना और हथियार डिपो लूट लिया. सरकारी मुलाजिम, पुलिस अधिकारी और सिविल अफसर बंधक बना लिए गए.
सड़क रास्ते से जब आइज़ॉल पहुंचना नामुमकिन हो गया, तब फंसे हुए सैनिकों की मदद के लिए वायुसेना को लगाया गया. भारतीय वायुसेना के इतिहास पर पकड़ के लिए मशहूर अंचित गुप्ता ने भारतीय वायुसेना के 29 स्कॉड्रन की स्कॉड्रन डायरी में दर्ज तथ्यों को एक्स (ट्विटर) पर साझा किया है. 29 स्कॉड्रन 1966 में बागडोगरा में तैनात था और इसने आइज़ॉल पर चले अभियान में हिस्सा लिया था. अंचित बताते हैं,
''2 मार्च तक MNF के उग्रवादियों ने आइज़ॉल स्थित असम राइफल्स के बटालियन मुख्यालय को घेर लिया था. तब भारतीय वायुसेना को कार्रवाई का आदेश मिला. वायुसेना का शुरुआती मकसद था - हवाई रास्ते से सेना को रसद और हथियार पहुंचाना. इसके लिए गुवाहाटी और जोरहाट से डकोटा और कैरीबू मालवाहक विमानों को रवाना किया गया.
इनमें से एक डकोटा विमान को पूर्वी वायु कमान के कमांडर एयर वाइस मार्शल यशवंत विनायक मालसे खुद उड़ा रहे थे. (मिज़ो उग्रवादियों की गोलीबारी में) मालवाहक विमान को 21 जगह गोलियां लगीं और उसे कुंभीग्राम एयरबेस पर लौटना पड़ा. तब जाकर वायुसेना ने आक्रामक कार्रवाई पर विचार किया.
1960 में नागा विद्रोहियों ने वायुसेना का एक डकोटा विमान इसी तरह गिराया था. तब वायुसेना ने मालवाहक विमानों की सुरक्षा के लिए 'तूफानी' लड़ाकू विमानों को साथ भेजना शुरू किया गया.
यही फैसला मिज़ो हिल्स वाली घटना के बाद भी लिया गया. 4 मार्च 1966 को बागडोगरा से 6 तूफानी लड़ाकू विमान कुंभीग्राम भेजे गए. यहां क्रू के लिए कोई सुविधाएं नहीं थीं. 29 स्कॉड्रन के कमांडर एसके सरीन (जो आगे चलकर वायुसेना प्रमुख बने) ने एक क्षतिग्रस्त कैरीबू विमान को स्कॉड्रन का बेस बनाया.
सेना ने उग्रवादियों के ठिकानों की जानकारी दी और 5 मार्च 1966 से इनपर 30 एमएम गन से गोलियां और T-10 रॉकेट्स दागे गए. 6 मार्च की शाम तक उग्रवादियों की गोलीबारी को काबू में कर लिया गया और वायुसेना के हेलिकॉप्टर सैनिकों की एक कंपनी को आइज़ॉल पहुंचाने में कामयाब हो गए.
7 मार्च से उग्रवादियों ने जंगल में आग लगानी शुरू कर दी, ताकि तूफानी के पायलट निशाना न लगा पाएं. लेकिन वायुसेना ने अपना अभियान नहीं रोका. जैसे-जैसे इलाकों पर उग्रवादियों का नियंत्रण शिथिल हुआ, वायुसेना ने अभियान बंद किए. 12 मार्च को दिमागिरी में आखिरी मिशन हुआ. और 17 मार्च को 29 स्कॉड्रन को कुंभीग्राम खाली कर बेस लौटने का हुक्म दे दिया गया.''
रक्षा पत्रकार शिव अरूर से बातचीत में एयर वाइस मार्शल मनमोहन बहादुर (रि) ने भी आइज़ॉल पर वायुसेना की कार्रवाई को संदर्भ दिया है. वो बताते हैं,
''कुंभीग्राम से Mi4 हेलिकॉप्टर 5 पैरा के जवानों को लेकर आइज़ॉल की तरफ बढ़े. इन हेलिकॉप्टर्स को लौटना पड़ा क्योंकि इनपर ताबड़तोड़ फायरिंग हो रही थी. इसीलिए अगले दिन इन हेलिकॉप्टर्स और डकोटा मालवाहक विमानों की सुरक्षा के लिए 29 स्कॉड्रन के तूफानी लड़ाकू विमान और 31 स्कॉड्रन के हंटर लड़ाकू विमान भेजे गए, जिन्होंने MNF लड़ाकों के ठिकानों पर स्ट्रेफिंग की. माने हवा से गोलियां चलाईं.
ज़्यादातर मिशन 5 और 6 मार्च को ही पूरे हो गए थे. इसके बाद सेना का नियंत्रण स्थापित होता गया.तब हमारे पास कोई और विकल्प नहीं था. अगर ये निर्णय नहीं लिया जाता, तो हम बड़ी मुश्किल में फंस सकते थे.''
आइज़ॉल की घेराबंदी तोड़ने के लिए वायुसेना के मिशन्स में शामिल कई पायलट्स को अलंकृत किया गया. फ्लाइट लेफ्टिनेंट राजेंद्र नारायण पांडे को तो शौर्य चक्र से नवाज़ा गया. वो 3 मार्च 1966 को उन हेलिकॉप्टरों का नेतृत्व कर रहे थे, जो जवानों को लेकर आइज़ॉल जा रहे थे. हेलिपैड के बेहद नज़दीक मौजूद उग्रवादियों ने फ्लाइट लेफ्टिनेंट पांडे के हेलिकॉप्टर पर ताबड़तोड़ गोलियां चला दीं. इसके बाद हेलिकॉप्टर को लौटना पड़ा. खतरा कम नहीं हुआ था. लेकिन अगले दिन राजेंद्र पांडे फिर अपना हेलिकॉप्टर लेकर आइज़ॉल गए और इस बार जवानों को वहां उतारकर ही लौटे. इसके लिए उन्हें शौर्य चक्र मिला. पांडे आगे चलकर वायुसेना में एयर कॉमोडोर के पद से सेवानिवृत्त हुए.
हवाई हमला हुआ, बम नहीं गिराए गएये समझने वाली बात है कि आइज़ॉल और मिज़ोरम के दूसरे इलाकों पर भारतीय वायुसेना ने हवाई हमले किए, लेकिन ये स्ट्रेफिंग मिशन थे, न कि बॉम्बिंग मिशन. ये एक अहम फर्क है. मिज़ो हिल्स में चलाए अभियान में वायुसेना ने गोलियां और रॉकेट दागे थे. इन्हें सादी भाषा में बमबारी लिख दिया जाता है, लेकिन इन अभियानों में वायुसेना ने बम इस्तेमाल नहीं किए थे. पहले मिज़ो उग्रवादियों ने वायुसेना को निशाना बनाया, न कि वायुसेना ने उग्रवादियों को.
लेकिन ये भी तथ्य है कि निशाना भले उग्रवादी रहे हों, लेकिन वायुसेना की कार्रवाई की चपेट में आम नागरिक भी आए. कई निर्दोष नागरिकों की जान गई. आइज़ॉल के लोगों ने जान बचाने के लिए पहाड़ियों में शरण ली. लालडेंगा और उनकी मिजो नेशनल आर्मी के उग्रवादी जान बचाने के लिए बंगलादेश के जंगलों की तरफ भाग गए.
हमले के बाद क्या हुआ?मार्च 1966 के हमले के बाद लालडेंगा पूर्वी पाकिस्तान की चिटगांव पहाड़ियों से मिजोरम में उग्रवाद का संचालन करते रहे. साल 1970 बिमला प्रसाद चाहिला की ही सरकार थी. मिज़ो उग्रवादी उन्हें अपने हितों के खिलाफ समझते थे. मिज़ो नेशनल आर्मी का हिंसक आंदोलन जारी था. इस बीच पूर्वी पाकिस्तान स्वतंत्रता आंदोलन ने जोर पकड़ रहा था. साल 1971 में इंदिरा गांधी सरकार ने पूर्वी-पाकिस्तान में दखल का फैसला लिया और बांग्लादेश का जन्म हुआ. युद्ध के दौरान बांग्लादेश का पूरा इलाका भारत की सेना के नियंत्रण में आ गया था और युद्ध के बाद वहां शेख मुजीब की सरकार आई, जिसके भारत से रिश्ते बहुत मज़बूत थे. अतः लालडेंगा को ठिकाना भी बदलना पड़ा और साथी भी. इस बार उनकी मदद को आगे आया चीन. चीन ने भी हथियार और ट्रेनिंग देनी शुरू की. भारत सरकार ने 1972 में उग्रवाद के खतरे को देखते हुए मिजोरम को केंद्र शासित राज्य बना दिया. 1978 में केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ, तो लालडेंगा ने मोरारजी देसाई सरकार से बात की.

इसके बाद 1980 में इंदिरा ने वापसी की. मिज़ो नेशनल फ्रंट से इंदिरा सरकार की बात हुई, लेकिन बेनतीजा रही. 1985 तक मिजो नेशनल फ्रंट सक्रिय रहा. इस बीच अक्टूबर 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो गई और राजीव गांधी सत्ता में आए. उग्रवाद की समस्या उनकी प्राथमिकता थी. उन्होंने प्रधानमंत्री बनते ही उग्रवादी संगठनों को शांति समझौते की मेज पर लाना शुरू किया. MNF लंबे दौर के संघर्ष और सेना के साथ मुठभेड़ों से पस्त हो चुका था. 30 जून 1986 को राजीव गांधी ने मिजो विद्रोहियों के साथ मिजो पीस एकॉर्ड पर दस्तख्त किये. इसके नतीजे में मिजो नेशनल फ्रंट से बैन हटा. इसके मेंबर्स के ऊपर से आपराधिक मामले हटाए गए. उग्रवादियों को जेल से छोड़ा गया. MNF चुनावी राजनीति के माध्यम से मुख्यधारा में आया. इसकी सरकार बनी और लालडेंगा मिजोरम राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने. लालडेंगा 1988 तक मुख्यमंत्री रहे.
इंदिरा सरकार ने छिपाई थी हकीकतमार्च 1966 में मिज़ो हिल्स में जो हुआ, उसके बारे में भारत सरकार ने किसी को कुछ पता नहीं चलने दिया. मीडिया की पहुंच उस समय तक उत्तर-पूर्व में बेहद कम थी. वायुसेना के इस अभियान की जानकारी दशकों बाद सतह पर आई, जब मिजो उग्रवादियों ने समर्पण किया. उन्होंने हवाई हमलों के ब्योरे सार्वजनिक किए. लेखकों, पत्रकारों और शोधकर्ताओं ने उस समय इस हमले के चश्मदीदों के बयान और अनुभव लिखने शुरू किए. इस मसले पर उस समय हंगामा, बहस और विवाद हुए.
9 मार्च 1966 को जब प्रेस ने इंदिरा गांधी से मिजोरम में फाइटर जेट भेजने की वजह पूछी तो इंदिरा गांधी ने हिंदुस्तान स्टैंडर्ड को बताया था,
विमान रसद और सैनिकों को एयर ड्रॉप करने गए हैं, ना कि बम गिराने.
उस समय अखबारों में ये सवाल उठे थे कि रसद और सैनिकों को एयरड्रॉप करने के लिए चार-चार फाइटर जेट भेजने की क्या जरूरत थी. लेकिन कोई पुख्ता बात तत्काल सामने नहीं आई. वायुसेना के इस अभियान में कितने लोग मारे गए थे इसकी कोई ठीक-ठीक जानकारी नहीं है, फिर भी सरकारी रिपोर्टस के अनुसार इस अभियान में 13 आम नागरिकों की जान गई थी. मिज़ो एक्टिविस्टों ने दावा किया कि इस हमले में लगभग सौ लोगों की जान गई.
नागालैंड दी नाइट ऑफ दी गुरिल्ला (Nagaland The Night of the Guerrillas) के लेखक निर्मल निबेदॉन ने उत्तर-पूर्व उग्रवादी आंदोलन पर काम किया है. उन्होंने अपनी किताब, "मिज़ोरमः दी डैगर ब्रिगेड (Mizoram: The Dagger Brigade)" में पेज न. 124 में हताहतों की संख्या बताई है. निर्मल निबेदॉन के अनुसार 1 मार्च 1966 से 31 दिसंबर 1967 के दौरान 491 मिज़ो नागरिक मारे गए, वहीं इस अभियान में सुरक्षा बलों के 12 जवान भी शहीद हुए. निर्मल से इतर असम के पूर्व मुख्य सचिव विजेंद्र सिंह जाफा अगल ही आंकड़ा देते हैं. जाफा के मुताबिक मार्च से दिसंबर 1966 के बीच सुरक्षा बलों के 95 जवान शहीद हुए और सेना के 60 आधुनिक हथियार भी छीन लिए गए. अपने लेख (Counterinsurgency Warfare The Use & Abuse of Military Force) में जाफा लिखते हैं
सेना के जावन इतनी बड़ी संख्या में इसलिए शहीद हुए क्योंकि सुरक्षाबलों को मिज़ो उग्रवादियों को जंगलों से खोजना था. इस दौरान उग्रवादियों से मुठभेड़ होती थी. सुरक्षाबल के जवान जंगलों से उस तरह परिचित नहीं थे, जैसे मिज़ो उग्रवादी थे. उग्रवादियों की मदद के लिए पूर्वी पाकिस्तान से लड़ाके और हथियारों की लगातार सप्लाई हो रही थी. इससे सुरक्षाबलों को अधिक जान गंवानी पड़ी.
कुल जमा ये कि मृतकों और हताहतों की संख्या पर कोई एक सर्वमान आंकड़ा या रिपोर्ट नहीं है. दावें हैं सबके. वो भी अलग-अलग. हकीकत बस यही है कि मिज़ोरम में 5 मार्च 1966 को वायुसेना अभियान चला. भारत विरोधी हिंसक उग्रवादी आंदोलन को दबाने के लिए चला. लोग मारे गए. दुर्भाग्यपूर्ण था कि अपने ही देश के सैन्य अभियान में अपने ही देश के नागरिक मारे गए.
मिज़ोरम के लोग 5 मार्च 1966 की याद में इस दिन को शोक दिवस की तरह मनाते हैं. इस दिन को मिज़ो लोग 'जोराम नी' यानी 'जोराम दिवस' कहते हैं. इस दिन मिज़ोरम की चर्चों में मृतकों की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थनाएं आयोजित की जाती है. 30 जून 1986 मिज़ो पीस एकॉर्ड पर समझौता हुआ था, इसलिए मिजोरम सरकार 30 जून को “रेमना नी” यानी “शांति दिवस” मनाती है.
जैसा कि हमने पहले बताया, एक लोकतंत्र में सरकार को अपने लोगों के खिलाफ वायुसेना का इस्तेमाल करना पड़े, ये दुर्भाग्यपूर्ण ही है. लेकिन संदर्भ सहित देखने पर हम पाते हैं कि आइज़ॉल पर हवाई हमले पूर्व नियोजित नहीं थे. और न ही पहली खेप में लड़ाकू विमान ही भेजे गए थे. जब कोई विकल्प नहीं बचा, तब जाकर गोलीबारी का निर्णय लिया गया था.
(ये स्टोरी हमारे साथी अनुराग अनंत ने की है)