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कुलभूषण जाधव की रिहाई के लिए प्रधानमंत्री जी को ये फिल्म देखनी चाहिए

इस फिल्म में दिखाया गया है कि हमारे देश के खिलाफ साजिश कर रहा विदेशी जासूस भी कभी काम आ सकता है.

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कुलभूषण जाधव पाकिस्तान की कैद में है. वहां उनको फांसी की सजा सुनाई गई है. एक कन्फेशन वाला वीडियो दुनिया भर में घूम रहा है. वो मल्टी कैमरा सेटप वाला वीडियो बिना किसी स्क्रिप्ट के नहीं तैयार हो सकता. बिना किसी खास सुबूत के पाकिस्तान अपनी नीचता साबित करने पर उतारू है. हमारे देश में साजिद मुनीर नाम का एक असली पाकिस्तानी जासूस भोपाल पुलिस के अंडर में रोटियां तोड़ रहा है. पाकिस्तान की जेलों में पता नहीं कितने बेकुसूर भारतीय बंद हैं और बहुत ही घिनौना टॉर्चर सह रहे हैं. जाहिर है हमारे देश की जेलों में वहां के कैदी भी होंगे. हालांकि कैदियों की अदला बदली का रिवाज अपने यहां बहुत कारगर नहीं है. 'कंधार कांड' जैसी बदमाशियां होती हैं. जिसमें हमारा प्लेन हाईजैक करके आतंकी छुड़ाए जाते हैं. फिर भी ये आइडिया बुरा नहीं है. हो सकता है कि आपका खून खौल जाए कैदियों की अदला बदली वाले ऑफर पर, लेकिन प्रैक्टिकली ये दोनों देशों के लिए, खासतौर से कैदियों के परिवारों के लिए बहुत अच्छा होगा.
2015 में हॉलीवुड के शानदार फिल्म मेकर स्टीवेन स्पीलबर्ग ने एक फिल्म बनाई थी, 'ब्रिज ऑफ स्पाइज़.' ये फिल्म 10 फरवरी 1962 की उस ऐतिहासिक तारीख पर बेस्ड थी जब ग्लीनेके ब्रिज पर तीन हाई प्रोफाइल कैदियों की अदला बदली हुई थी. इन कैदियों में सबसे खास था रूस का जासूस रूडॉल्फ एबेल, जिसके बदले में अमेरिका को मिले थे दो लोग. एक तो था CIA के टॉप सीक्रेट जासूस प्लेन का पायलट गैरी पावर्स. और दूसरा एक ग्रेजुएट स्टूडेंट प्रायोर. लेकिन ये अदला बदली इतनी आसान नहीं थी. इसके लिए अपनी जान से लेकर करियर और प्रतिष्ठा यानी सब कुछ दांव पर लगा दी थी जेम्स डॉनोवेन नाम के आदमी ने.
इस फिल्म की कहानी कुछ इस तरह है. रूडॉल्फ नाम का एक चेहरे और शरीर से बुजुर्ग, कमजोर आदमी न्यूयॉर्क शहर में FBI के हत्थे चढ़ा. साल था 1957. इस पर अमेरिका के खिलाफ साजिश और रूस के लिए जासूसी करने का केस चला. जेम्स डॉनोवेन, जो कि एक इंश्योरेंस लॉयर थे, रूडॉल्फ का केस हाथ में ले लिया. बड़े उसूलों वाला आदमी था भाईसाब. चिटफंडिये वकीलों की तरह नहीं. इनका सबसे ऊंचा सिद्धांत था कि दोषी कोई भी हो, उसको अपने बचाव का पूरा मौका देना चाहिए. रूडॉल्फ को बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि दुश्मन देश में कोई एक इंसान भी होगा जो उसकी जान बचाना चाहता था. इसीलिए जब डॉनोवेन ने अपना प्रपोजल उसके सामने रखा तो एकाएक उसे भरोसा नहीं हुआ. फिर अपनी तरफ से एकदम पक्का कर लिया कि ये वकील बीच में छोड़कर चला न जाए. तो बुरी से बुरी स्थितियों का खाका डॉनोवेन के सामने खींचा. लेकिन डॉनोवेन ने कमिटमेंट कर दी थी. इसलिए पीछे नहीं हटना था. tom 1 CIA ने डॉनोवेन को उनके मुवक्किल यानी रूडॉल्फ से मिलने में अड़चने डालीं. जिनसे निपटने में अच्छे अच्छों के पसीने छूट जाएं. लेकिन फिर भी डॉनोवेन ने रूडॉल्फ का केस कोर्ट में जोरदार तरीके से लड़ा. और मौत की सज़ा बदलवा ली. ये भी सुझाया कि भविष्य में रूडॉल्फ अमेरिका के काम आ सकता है. डॉनोवेन का प्लान वही था, अदला बदली वाला. बड़ी दूर की नजर रखने वाला आदमी था. लेकिन इस केस के चक्कर में उनको बड़े बुरे दिन देखने पड़े. पूरा देश ही उनके खिलाफ हो गया था. आखिर वो देश के सबसे बड़े गद्दार का केस लड़ रहे थे. मीडिया उनके घर के बाहर डेरा डाले हुए था. TRP बढ़वाने लायक बाइट्स के लिए. लोग राह चलते गालियां देते थे. एक बार तो कुछ गुंडों ने घर पर गोलियां भी चला दीं. जिसमें इनके बीवी बच्चे बाल बाल बचे. उन हालात में कोई भी समझदार आदमी अपनी सरकार और उसकी एजेंसियों से समझौता कर लेता. लेकिन इस बंदे ने नहीं किया. जो काम हाथ में उठाया था उसे अंजाम तक पहुंचाना था. लोगों का क्या है. वो भीड़ है. भीड़ का कल्चर तो जानते ही हो. बहुमत की तरफ झुकना सामान्य इंसानी स्वभाव है. भीड़ नहीं समझ पाती कि बहुमत का मतलब हमेशा सही नहीं होता. अल्पमत हमेशा गलत नहीं होता. कभी धरती को गोल कहने वाला गैलीलियो भी अल्पमत में था. tom2 खैर इसी बीच CIA के साथ एक हादसा हो गया. उसके खुफिया फाइटर प्लेन U-2 को रूस के अंदर मार गिराया गया. क्योंकि वो रूस की सीमा में आ गया था. और पायलट गैरी पावर्स को अरेस्ट कर लिया गया. ट्रायल चला और 13 साल कैद की सज़ा हो गई. राम के 14 वर्ष के वनवास से एक वर्ष कम. इस हादसे के बाद CIA की हालत पतली हो गई. उनका सारा खुफिया ज्ञान इस पायलट के पास था. इसी बीच डॉनोवेन को ईस्ट जर्मनी से एक खत मिला. उस वक्त जर्मनी में भी ईस्ट वेस्ट की मार चल रही थी. बर्लिन की महान दीवार भी इसी वक्त बननी शुरू हुई थी. तो ये खत रूडॉल्फ की बीवी का था. डॉनोवेन को अपने पति की जान बचाने के लिए थैंक्यू बोलने के लिए भेजा था. साथ ही अपने वकील से बात करने की सलाह देने के लिए भी. garry CIA ने अबकी बार अकल लगाई. दिमाग की बत्ती जल गई कि यही मौका है, इस रूसी जासूस को इस्तेमाल करने का. इसके बदले अपने पायलट को हासिल करना था. लेकिन मामला इतना सीधा नहीं था. कौन उस पार जाएगा, कौन बात करेगा? उनके दिमाग में पहला और आखिरी नाम आया डॉनोवेन का. उनसे बात की कि ये काम निपटाओ भाई. बर्लिन जाओ और ये एक्सचेंज ऑफर पेश करो. तो डॉनोवेन जान हथेली पर रखकर ईस्ट जर्मनी क्रॉस करके नई बन रही दीवार के उस तरफ जाते हैं. वो सीन बड़ा डरावना होता है. दीवार को किसी भी तरह पार करने वालों को दन्न से गोली मारकर सुला दिया जाता था. दोनों तरफ हालात बदतर थे. कुछ मिनट्स का वो सीन रोंगटे खड़े कर देता है. खैर डॉनोवेन किसी तरह रूसी एंबसी पहुंचकर रूसी खुफिया एजेंसी KGB के अफसर से मिलते हैं, जो उन्हें रूडॉल्फ की बीवी के वकील तक पहुंचाता है. berlin wall अब मामला एकदम तलवार की नोक पर पहुंच जाता है. CIA महा स्वार्थी एजेंसी की तरह सिर्फ अपने पायलट पर फोकस किए हुए है. वो वापस मिल जाए इस रूसी जासूस के बदले. लेकिन डॉनोवेन का कहना था कि वो पायलट और वो स्टूडेंट प्रायोर, दोनों को वापस लाना है. इसके लिए CIA के तमाम दबाव के बाद भी वो अपनी बात से नहीं हटते. वो रूसी अटॉर्नी जनरल को मैसेज भेजते हैं कि भैया अगर अपना जासूस चाहिए तो प्रायोर और पावर्स दोनों को वापस करो, नहीं तो सौदा भूल जाओ. उधर वाला अफसर पता नहीं समझदार होता है कि बेवकूफ, लेकिन वो धमकी में आ जाता है. सौदा तय हो जाता है और ग्लीनेके पुल पर तीनों की घरवापसी होती है. इसके बाद इस पुल को ब्रिज ऑफ स्पाइज़ पुकारा जाने लगा. डॉनोवेन को देशद्रोही बताने वालों के मुंह में दही जम गया. अर्थात उनकी खोई हुई इज्जत वापस आ गई. डॉनोवेन के इस काम से अमेरिका इतना उत्साहित था कि अपने क्यूबा में बंद फौजियों की रिहाई के लिए भी इनको बिचौलिया बनाकर भेज दिया. फिल्म का ट्रेलर यहां देखिए. https://www.youtube.com/watch?v=7JnC2LIJdR0 ये ब्रिज ऑफ स्पाइज़ की कहानी थी. डॉनोवेन का किरदार हॉलीवुड के परफेक्शनिस्ट टॉम हैंक्स ने निभाया था. अगर हम आज अपने कुलभूषण जाधव को पाकिस्तान से छुड़ाने के लिए इस फिल्म का रिफरेंस लें तो कुछ चीजें सामान्य हो सकती हैं. हालां ISI और CIA में बड़ा फर्क है. CIA ने अपना पायलट वापस पाने के लिए एक जासूस छोड़ने का फैसला किया था. लेकिन ISI या पाकिस्तान सरकार अपने भेजे जासूस को पाकिस्तानी नागरिक तक नहीं मानती. उनको चाहे जितने सुबूत दे दो, मुंडी उनकी हॉरिजेंटल ही हिलती है. कुलभूषण को फटाफट केस चलाकर सजा सुना दी. 26/11 के सब सुबूत होने के बावजूद केस को ऐसे लटका रखा है जैसे पेड़ में कटहल. फिर हमारे पास पाकिस्तान से निगोशिएट करने लायक कौन सा आदमी है, सबसे बड़ा सवाल तो ये है.
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