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कहानी डॉ. पीके सेठी की, जिन्होंने अमेरिका से सस्ता नकली पैर बनाकर करोड़ों का भला किया

जिन्होंने टायर से आर्टीफिशियल पैर बनाकर क्रांति कर दी थी.

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डॉ. पीके सेठी का आविष्कार गरीबों के लिए वरदान साबित हुआ.
फिल्म 'नाचे मयूरी' वाली सुधा चंद्रन को हम सब जानते हैं. एक एक्सीडेंट में उनका एक पैर जाता रहा था. पर सुधा ने हार नहीं मानी और आर्टिफिशियल लेग के जरिए एक बार फिर फिल्मों में वापसी की. और जबरदस्त डांस करके फिल्मों में नए सिरे से छा गईं. आज भी सुधा अपने उसी प्लास्टिक के पैर के साथ डांस करके बड़े-बड़े सूरमाओं को मात दे रही हैं. पर आज हम आपको सुधा चंद्रन का ये किस्सा क्यूं सुना रहे हैं? असल में सुधा चंद्रन की इस कहानी के जरिए हम आपको डॉक्टर पीके सेठी का काम याद दिलाना चाहते हैं. हममें से ज्यादातर लोग शायद इस नाम से परिचित न हों. लेकिन 'जयपुरी पैर' के बारे में बहुत से लोग जानते होंगे. असल में डॉ. सेठी ही वो शख्स थे, जिन्होंने जयपुरी पैर ईजाद किया था. एक ऐसी बनावटी टांग जो किसी हादसे में पैर खो देने वाले लोगों के लिए वरदान साबित हो रही है.
सुधा चंद्रन अपने नकली पैर के साथ.
सुधा चंद्रन अपने नकली पैर के साथ.

बनारस में जन्मे - जयपुर में काम

पीके सेठी यानी प्रमोद करन सेठी 28 नवंबर 1927 को बनारस में पैदा हुए. पिता निहाल करन सेठी बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में साइंटिस्ट थे. डॉ. पीके सेठी ने अपने कैरियर की शुरुआत आगरा से एक जनरल सर्जन के तौर पर शुरू की. बाद में जयपुर के सवाई मान सिंह हॉस्पिटल में ऑर्थोपेडिक्स यानी हड्डी रोग में स्पेशलाइजेशन किया. डॉ. पीके सेठी के ऑर्थोपेडिक सर्जन बनने का किस्सा भी बड़ा दिलचस्प है. कहते हैं इंडियन मेडिकल काउंसिल की एक टीम सवाई मान सिंह हॉस्पिटल में इंस्पेक्शन के लिए आनी थी.
अस्पताल मैनेजमेंट को ऑर्थोपेडिक सर्जन की सख्त जरूरत थी. इस पर डॉ. पीके सेठी को ऑर्थोपे़डिक सर्जन के हेड ऑफ डिपार्टमेंट के तौर पर काम करने के लिए कहा गया. हड्डी रोग से जुड़े मसलों की ज्यादा जानकारी न होने के चलते डॉ. सेठी अपने काम में फिजियोथेरेपी का सहारा लेने लगे. वे मरीजों को दर्द से राहत दिलाने के लिए फिजियोथेरेपी की सलाह देते थे. इन मरीजों में एक्सीडेंट या गैंग्रीन आदि की वजह से अपने अंग खो देने वाले भी होते थे. यहीं से डॉ. सेठी का दिमाग नकली पैर बनाने की ओर गया. इस काम में उनका सहयोगी बना रामचंद्र शर्मा, जो बिना पढ़ा-लिखा बढ़ई था.
डॉ. पीके सेठी.
डॉ. पीके सेठी.

कैसे बना जयपुर का पैर?

जयपुर का पैर बनने की कहानी भी मज़ेदार है. कहा जाता है एक बार डॉ. पीके सेठी का सहयोगी रामचंद्र शर्मा साइकिल से अस्पताल जा रहा था. रास्ते में उसकी साइकिल पंक्चर हो गई. उसे ठीक कराने वो दुकान पहुंचा. दुकानदार उस वक्त ट्रक का पंक्चर बना रहा था. रामचंद्र की नजर उस टायर पर पड़ी. वह दौड़ा-दौड़ा अस्पताल गया और डॉ. पीके सेठी को लेकर पंक्चर की दुकान पहुंचा. डॉ. सेठी ने अपना दिमाग लगाना शुरू किया. थोड़ी देर में वे एक मरीज को भी वहां ले आए और उसकी नाप का टायर कटवाया. डॉ. सेठी का तीर एकदम निशाने पर लगा. उन्होंने टायर से आर्टीफिशियल पैर बना डाला. प्रयोग सफल रहा. और हां, जब टायर के दुकानदार को ये सब पता चला तो उसने पैसे भी नहीं लिए.

किससे बनता है?

जयपुरी पैर बनाने में आज रबड़ और लकड़ी यूज होती है. इसको दुनिया में सबसे सस्ता और बेहतरीन प्रोस्थेटिक लिंब माना जाता है. इंटरनेशनल रेडक्रॉस सोसाइटी ने अफगानिस्तान में और भारत ने कारगिल वार के दौरान अपने सैनिकों को ऐसे ही आर्टीफिशियल लिंब मुहैया कराए थे.

पेड़ पर भी चढ़ सकते हैं

अमेरिका की टाइम मैगज़ीन ने साल 2000 में इस पर आर्टिकल लिखा. '28 डॉलर का पैर' नाम से प्रिंट स्टोरी में टाइम ने लिखा, 'दुनिया भर के जंग के मैदानों, मसलन अफगानिस्तान और रवांडा के लोगों ने चाहे न्यूयार्क- पेरिस का नाम न सुना हो, लेकिन वो जयपुर का नाम जानते हैं. ये शहर अपने ऑर्टीफिशियल पैर के लिए दुनिया भर में फेमस है. जयपुरिया पैर की खूबसूरती उसकी मोबिलिटी यानी आसानी से मुड़ने की क्वालिटी है. और साथ में लाइटनेस माने हल्कापन इसे दुनिया का बेस्ट आर्टीफिशियल पैर बनाता है. इसे पहनकर दौड़ सकते हैं, पेड़ पर चढ़ सकते हैं और साइकिल चला सकते हैं. अमेरिका में इस तरह का प्रोडक्ट बनाने में हजारों डॉलर लग सकते हैं. मगर भारत में इसकी लागत केवल 28 डॉलर है.'
जयपुर फूट.
जयपुर फुट.

पहले लगाते थे अमेरिकी पैर

टाइम मैगज़ीन के मुताबिक डॉ. सेठी पहले अमेरिकी मॉडल लिंब लगाते थे. मगर इनकी मोबिलिटी अच्छी नहीं थी. ये महंगे भी बहुत थे. आम आदमी तो इनको लगवाने की सोच भी नहीं पाता था. डॉ. सेठी और उनके सहयोगी रामचंद्र शर्मा को ये बात खटकती थी. टाइम मैगज़ीन ने साल 2000 में इसकी कीमत 28 डॉलर बताई थी. वैसे आज इसकी कीमत 43 डॉलर यानी 3100-3200 रुपए के आस-पास है.
डॉ. पीके सेठी को दुनिया भर में सराहा गया. उनके काम के लिए उनको साल 1981 में कम्युनिटी लीडरशिप के लिए रमन मैग्सेसे अवॉर्ड मिला. उसी साल उनको भारत सरकार ने पद्मश्री सम्मान भी दिया. साल 2008 की 6 जनवरी को 80 साल की उम्र में उन्होंने दुनिया छोड़ दी. जयपुर में आज उनके काम को भगवान महावीर विकलांग सेवा समिति आगे बढ़ा रही है.


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