कराची में बैठ कर जब फरीद अयाज़ गाते हैं:
भला हुआ मोरी गगरी फूटी मैं पनिया भरन से छूटी रे मोरे सर से टली बला... भला हुआ मोरी माला टूटी मैं राम जपन से छूटी रे मोरे सर से टली बला...

फरीद अयाज़ (यू ट्यूब स्क्रीन ग्रैब)
आप मन्त्रमुग्ध सुनते रहते हैं. इस बीच पाकिस्तान और भारत की सीमा से सटे उमरकोट से धूल का अंधड़ आता है. साथ में आती है सफी फकीर की आवाज जो गाने को बीच से उठा लेती है. गाते-गाते वो कबीर से पास पहुंच जाते हैं और कभी बाबा बुल्लेशाह के पास.
उनकी आवाज थार के दूसरे छोर पर पहुंच जाती है:
काजी किताबें खोजता करता नसीहत और को महरम नहीं उस हाल से काजी हुआ तो क्या हुआ सुनता नहीं दिल की खबर अनहद का बाजा बाजता...रेगिस्तान से गुजरती उनकी आवाज बीकानेर के छोटे से गांव पुगल पहुंच जाती है. यहां मुख्तियार अली अपने हारमोनियम को दुरुस्त कर रहे हैं. उनके साथी ढोलक की चाकी कास रहे हैं कि वो गाना शुरू कर देते हैं.
सफी फकीर की आवाज इस मेहमाननवाजी से खुश होकर कोने में बैठ कर इत्मीनान से सुनने लगती है:
अष्ट कमल दल चरखा चाले पांच रंग की पुणी नौ-दस मास बनन को लागे मुरख मैली किन्ही चदरिया चदरिया झीनी रे झीनी....

प्रह्लाद टिपानिया (यू ट्यूब स्क्रीन ग्रैब)
मालवा का प्राइमरी मास्टर प्रहलाद टिपानिया जोकि नौकरी छोड़ कर तंबूरा पकड़ चुका है, हिन्दू धर्म की वैचारिक राजधानी पहुंचता है. उसकी दिलचस्पी ना तो काशी के विश्वनाथ मंदिर में और ना ही घाट पर छतरी लगाए बैठे पंडों में.
वो उस गंगा को वो भजन सुनाना चाहता है जिसे इसके किनारे पर एक जुलाहे ने बुना था:
हाथी में हाथी बन बैठो कीड़ी में है छोटो तू होय महावत ऊपर बैठो हांकन वाला तू का तू...जब वो गंगा से निकल कर घाट के जीने चढ़ रहे थे तो आखिरी जीने पर उन्हें मिले कबीर. मझले कद के एकदम साधारण इंसान. दोनों बनारस की गलियों में साथ भटकते हैं. प्रहलाद आदतन इक तारा खटकाने लगते हैं.
चोरों के संग चोरी करता बदमाशों में भेलो तू चोरी करके तू भग जावे पकड़न वाला तू का तू....
कबीर इस खनक को पकड़ कर गाना शुरू करते हैं:
साधू देखो जग बौराना.. बहुत मिले मोहि नेमी, धरमी, प्रात करे असनाना आतम बहुत मिले मोहि नेमी, धर्मी, प्रात करे असनाना आतम-छांड़ि पषानै पूजै, तिनका थोथा ज्ञाना. बहुतक देखे पीर-औलिया, पढ़ै किताब-कुराना करै मुरीद, कबर बतलावैं, उनहूं खुदा न जाना.गाते- गाते दोनों मड़ुआडीह पहुंच जाते हैं. लहरतारा के पास खड़े संगमरमर के विशाल मंदिर के सामने कबीर ठिठक जाते हैं. उतरे हुए मुंह के साथ वो कहते हैं, "इन्होंने मुझे भगवान बना डाला."
पर कबीर समाज के विद्रोही कवि ही नहीं रहे. वो भगवान बन गये. कैसे?
कहानी की शुरुआत 15वीं सदी में होती है. लोक श्रुतियों के हिसाब से बांधवगढ़ का एक व्यापारी यात्रा पर था. एक शाम को उसने अपना डेरा मथुरा के पास डाल दिया. शाम को खाने के लिए खिचड़ी चढ़ा दी. जब खिचड़ी बन कर तैयार हुई तो उसने देखा कि एक जलावन लकड़ी से चींटियां निकल रही है. उस वैष्णव व्यापारी के लिए वो खाना हराम हो चुका था. लेकिन खाना बर्बाद भी तो नहीं किया जा सकता है. खाना ठिकाने लगाने की उहापोह में जब उसने आस-पास देखा तो पाया कि दूर पेड़ के नीचे एक फकीर बैठा हुआ है. उसने वो खाना फकीर दे दिया. फकीर ने थाली पकड़ी और वो व्यापारी दंग रह गया. गर्म खिचड़ी में से जिंदा चींटियां बाहर निकलने लगीं. उसे अपनी गलती का अहसास हुआ और उसने फकीर के पांव पकड़ लिए.

कबीर और धरमदास
इस व्यापारी का नाम धरमदास था. कबीरपंथी परम्परा में इन्हें धनी धरमदास के नाम से जाना जाता है. ये उनकी कबीर से पहली मुलाकात थी. कबीरपंथी मान्यताओं में इस किस्म की किंवदंतियां भरी पड़ी हैं. हालांकि कई इतिहासकारों का मानना है कि धरमदास और कबीर समकालीन नहीं थे. कई लोग ये भी मानते हैं कि हमारे हाथ में बीजक का संकलन करने वाले भी यही धरमदास साहेब हैं. कबीर को निर्गुण भक्ति धारा के विद्रोही कवि की बजाए 'परमपुरुष-परमात्मा' के रूप में स्थापित करने में इनका काफी योगदान रहा है. ये कबीर के मिथक को राम के त्रेता युग तक खींच ले जाते हैं:
रहे नल-नील यत्न करी हार, तबे राघुबीरन करी पुकार जाय सतरेखा लिखी सुधार, सिन्धु में सिला तिराने वाले. धन-धन सतगुरु सत्य कबीर, भक्त भवपीर मिटाने वाले.
धरमदास ने कबीर को जैसे स्थापित किया, वैसे ही बाकी लोगों के साथ भी हुआ
छत्तीसगढ़ में एक छोटा सा शहर है दामाखेड़ा. यहां कबीरपंथ की सबसे बड़ी गद्दी या फिर पीठ है. प्रकाश मुनि यहां के महंत हैं. हर साल जेठ की पूनम पर यहां कबीर जयंती को ‘कबीर प्राकट्य दिवस’ के रूप में मनाया जाता है. इस दिन हजारों श्रद्धालु यहां जुटते हैं. कबीर की आरती होती है. भोग लगाया जाता है और भंडारे में प्रसाद बांटा जाता है. इस मौके पर धरमदास का लिखा हुआ एक भजन गाया जाता है:
धन्य कबीर कुछ जलवा दिखाना हो तो ऐसा हो बिना माँ बाप के दुनिया में आना ह तो ऐसा हो उतर आसमान के एक नूर का गोला कमदल पर वो आके बन गया बालक, बहाना हो तो ऐसा हो
प्रकाश मुनि से पहले उनके पिता इस मठ के महंत थे. ये धरमदास की पंद्रहवीं पीढ़ी है. महंती के वंशानुक्रम के पीछे का किस्सा इस परम्परा के लोग कुछ यूं बयान करते हैं:

प्रकाश मुनि और रमन सिंह
धरमदास के इकलौते बेटे का नाम नारायण था. पिता के बहुत कहने पर भी उसने कबीर साहेब से नाम की दीक्षा नहीं ली. इसके बाद धरमदास को पता लगा कि नारायण दरअसल काल का दूत है. इससे वो चिंतित हो गए. इस पर कबीर साहेब ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि उन्हें एक और पुत्र होगा. उसका नाम चूड़ामणि रखा जाए. इससे धरमदास का वंश चलता रहेगा. धरमदास की अगली 42 पीढ़ियां पंथ पर राज करेंगी. इस तरह पीठ की गद्दी उनके अपने गढ़े हुए परमात्मा कबीर के जरिए इस परिवार के पास सुरक्षित हो गई. आज लाखों लोग इस पंथ से जुड़े हुए हैं. इनमे सबसे बड़ी तादाद दलित वर्ग की है. अनुराग सागर में यह किस्सा कुछ इस तरह से दर्ज है:
संवत पंद्रह सौ सत्तर सारा, चूरामणि गादी बैठारा वंश बयालीस दिनहु राजु, तुमसे होय जिव जंहा काजू तुमसे वंश बयालीस होई, सकल जीव कहां तारे सोई.
कबीर विद्रोही जरूर थे लेकिन नास्तिक नहीं थे. उनकी रचनाओं में रहस्यवाद को पर्याप्त जगह दी गई है. वो आध्यात्मिक तो कहे जा सकते हैं लेकिन धार्मिक नहीं. खास तौर पर जिस किस्म के कर्मकांडी खांचों में उन्हें तोड़ा गया है, वो तो कतई नहीं थे. इतिहास इस बात का गवाह है कि किस तरह निर्गुण भक्ति धारा से पैदा हुई जन चेतना को सम्प्रदाय बना दिया गया. यह सिर्फ कबीर के मामले में नहीं हुआ. नानक, दादू, पीम्पा, रैदास सहित सभी संतों के विरसे में ऐसे ही सम्प्रदाय दर्ज हैं.
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