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नूपुर शर्मा के बयान का बदला इस्लामिक स्टेट ने ले लिया?

18 जून को अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी में एक गुरुद्वारे पर आतंकी हमला हुआ. इस हमले में तीन लोगों की मौत हो गई. कई लोग गंभीर रूप से घायल हैं.

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इस्लामिक स्टेट-खुरासान प्रॉविंस ने कहा कि ये हमला बीजेपी के पूर्व प्रवक्ताओं द्वारा पैगंबर मोहम्मद पर की गई विवादित टिप्पणी के विरोध में किया गया. (फोटो- AP,India Today))

आज हम काबुल, कोलोंबिया और कॉन्गो की बात करने वाले हैं.

- 18 जून को अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी में एक गुरुद्वारे पर आतंकी हमला हुआ. इस हमले में तीन लोगों की मौत हो गई. कई लोग गंभीर रूप से घायल हैं. इस घटना पर तालिबान क्या कह रहा है? और, भारत सरकार की तरफ़ से क्या रिएक्शन आया?

- काबुल के बाद कोलोंबिया की कहानी. एक समय तक सरकार की हिट लिस्ट में शामिल रहा एक लड़ाका देश का राष्ट्रपति बन गया है. क्या है पूरी कहानी?

- और, कॉन्गो में क्या हुआ? यहां प्रायश्चित का फल सोने के दांत के रूप में सामने आया है. बेल्जियम दशकों पहले चुराया एक दांत क्यों लौटा रहा है?

पहले काबुल में गुरुद्वारे पर हुए आतंकी हमले की कहानी-

तारीख़ 18 जून. शनिवार का दिन था. अफ़ग़ानिस्तान में सिखों का अंतिम गुरुद्वारा काबुल में है. इसे करते परवान के नाम से जाना जाता है. शनिवार की सुबह 30 से अधिक श्रद्धालु गुरुद्वारे में इकट्ठा थे. इसी समय बाहर में खड़ी एक कार में बम धमाका हुआ. धमाके की आवाज़ सुनकर सिक्योरिटी गार्ड बाहर निकला. हमलावरों ने उसे देखते ही गोली मार दी. फिर अंधाधुंध फ़ायरिंग शुरू हो गई. तब तक साफ़ हो चुका था कि गुरुद्वारे पर आतंकी हमला हो गया है. बाहर खड़े तालिबान लड़ाकों ने मोर्चा संभाला. ये मुठभेड़ सुबह के दस बजे तक चली. जब तक गोलीबारी शांत हुई, तब तक तीन लोगों की मौत हो चुकी थी. कई लोग घायल थे. ये संख्या काफ़ी बड़ी हो सकती थी. दरअसल, आतंकी विस्फ़ोटकों से लदा एक ट्रक लेकर भी आए थे. लेकिन तालिबान लड़ाकों ने उसे गुरुद्वारे तक पहुंचने नहीं दिया.

अफगानिस्तान में अल्पसंख्यकों खासतौर पर सिख समुदाय पर आतंकी हमला कोई नई बात नहीं है. इससे पहले अक्टूबर 2021 में भी करते परवान पर हमला हुआ था. मार्च 2020 में गुरुद्वारा ‘हर राई साहिब’ में हुए हमले में 25 अफ़गान सिख मारे गए थे. इस हमले के दौरान आतंकियों ने 80 लोगों को 06 घंटे तक बंधक बनाकर रखा था. अफ़ग़ान और नेटो सैनिकों के हस्तक्षेप के बाद उन्हें छुड़ाया जा सका.

इसके अलावा, 1980 और 1990 के दशक में अफ़ग़ान वॉर और बैटल ऑफ़ जलालाबाद के दौरान गुरुद्वारों को निशाना बनाया जाता रहा है. अफ़ग़ानिस्तान में एक समय एक लाख से अधिक सिख रहा करते थे. लेकिन आतंकी हमलों और बढ़ते अत्याचार के चलते उनकी संख्या एक सौ से कुछ ही अधिक रह गई है.

आज हम जानेंगे गुरुद्वारा करते परवान पर हमले के पीछे की वजह क्या है? इस हमले की ज़िम्मेदारी किसने ली और दुनियाभर से क्या रिएक्शन आया?
आतंकी हमले के बाद के शुरुआती कुछ घंटे भय और गुत्थी को सुलझाने में बीते. कयास लगाए जा रहे थे कि हमले के पीछे इस्लामिक स्टेट का हाथ हो सकता है. हमले के एक दिन बाद ये आशंका सच साबित हो गई. 19 जून को इस्लामिक स्टेट-खुरासान प्रॉविंस (ISKP) ने बयान जारी कर हमले की ज़िम्मेदारी ली. साथ में वजह भी बताई. कहा कि ये हमला बीजेपी के पूर्व प्रवक्ताओं द्वारा पैगंबर मोहम्मद पर की गई विवादित टिप्पणी के विरोध में किया गया. ISKP ने हमलावर की तस्वीर भी जारी की. उसका नाम अबू मोहम्मद अल-ताजिकी बताया गया है.

अब सवाल आता है, ISKP क्या है?

जून 2014 में इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक़ एंड लेवांत (ISIL) ने ‘इस्लामिक स्टेट’ बनाने का ऐलान किया. इराक़ और सीरिया के उन इलाकों में, जहां पर ISIL का क़ब्ज़ा था. उस समय इस गुट की कमान अबू बक़र अल-बग़दादी के पास थी. बग़दादी ने ख़ुद को खलीफा यानी दुनियाभर के मुस्लिमों का नेता घोषित कर दिया.

सितंबर 2014 में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) के छह सीनियर कमांडर्स अलग हो गए. उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान वाले तालिबान के कुछ बागियों के साथ मिलकर ISKP की स्थापना की. इस्लामिक स्टेट ऑफ़ ख़ुरासान प्रॉविंस.

ख़ुरासान क्या है? ये एक प्राचीन इलाके का नाम है. जो सातवीं सदी में इस्लामिक कैलिफ़ेट के क़ब्ज़े में आया था. इसका अर्थ होता है, उगते सूर्य की धरती. आधुनिक समय में ख़ुरासान के कुछ-कुछ हिस्से अफ़ग़ानिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और ईरान में फैले हुए हैं. इसी प्राचीन नाम के आधार पर ISKP का नामकरण हुआ. ISKP ने बग़दादी को अपना खलीफा मान लिया. पीक पर ISKP का संख्याबल लगभग तीन हज़ार के आस-पास था. इसमें अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के अलावा भारत के भी जिहादी शामिल हुए. तालिबान के वे लड़ाके, जिन्हें अपना संगठन कम कट्टर लगता था, उन्होंने भी ISKP से हाथ मिला लिया. ISKP, अफ़ग़ानिस्तान में हुए कुछ सबसे नृशंस आतंकी हमलों के लिए कुख्यात है.मैटरनिटी हॉस्पिटल से लेकर काबुल एयरपोर्ट पर हुए हमले में ISKP ने ज़िम्मेदारी ली है.

गुरुद्वारा करते परवान पर हुए हमले के बाद भारत ने क्या कहा?

हमले के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया. उन्होंने हमले की निंदा की और अफ़ग़ानिस्तान में सिखों की सुरक्षा के लिए प्रार्थना भी की. पीएम मोदी ने अफ़ग़ानिस्तान में रहने वाले सिख समुदाय को एक ओपेन लेटर भी लिखा. इसमें उन्होंने कहा कि भारत अफ़ग़ानिस्तान के सिख और हिंदू समुदाय के साथ मज़बूती से खड़ा है. पीएम के अलावा विदेशमंत्री एस जयशंकर का ट्वीट भी आया. उन्होंने कहा कि भारत ने घटनाक्रम पर नज़र बना रखी है.

भारत सरकार ने 100 से ज़्यादा सिख और हिंदू नागरिकों को ई-वीजा भी दिया है. आतंकी हमले में मारे गए सरदार सविंदर सिंह का नाम भी इस लिस्ट में है. सविंदर सिंह ने अपना दुकान बेचकर भारत आने की तैयारी कर ली थी. लेकिन वीजा मिलते-मिलते काफी देर हो चुकी थी.

इस हमले पर तालिबान क्या कह रहा है?

तालिबान सरकार ने हमले को कायराना कार्रवाई बताया है. काबुल पुलिस के प्रवक्ता ख़ालिद ज़दरान ने कहा है कि हमारे लोगों ने सिख समुदाय के लिए अपनी ज़िंदगी कुर्बान की. उनकी सुरक्षा उनका हक़ है.

अब सवाल उठता है कि सिखों पर हमले से इस्लामिक स्टेट को क्या मिलेगा?

जानकारों की मानें तो इस्लामिक स्टेट अफ़ग़ानिस्तान में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है. इसके लिए वो अपने कट्टर प्रतिद्वंद्वी तालिबान की सत्ता को भी चुनौती देना चाहता है. पिछले साल अफगानिस्तान में सत्ता में आने के बाद वह लगातार तालिबान को कमजोर करने की कोशिश में लगा हुआ है. इसके साथ ही इस्लामिक स्टेट दूसरे कट्टरपंथी संगठनों की फहरिस्त में अपना नाम आगे लाने की होड़ में लगा हुआ है. पैग़म्बर मोहम्मद पर विवादित टिप्पणी वाले विवाद में आतंकी संगठन अल-कायदा ने भी हिंसा करने की धमकी दी  थी. लेकिन पहली हिंसक प्रतिक्रिया इस्लामिक स्टेट की आई. इससे साफ़ है कि IS अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिए हमलों को अंज़ाम दे रहा है.

पिछले कुछ समय से इस्लामिक स्टेट की पकड़ कमजोर हुई है. सिख और हिंदू समुदाय पर हमले के ज़रिए संगठन ख़ुद को इस्लाम का संरक्षक साबित करना चाहता है. इससे कट्टर मुस्लिमों में उनकी पैठ बढ़ने की संभावना है. इस्लामिक स्टेट का उभार ख़तरे का संकेत है. दुनिया के देशों को जल्द से जल्द इसका निजात खोजने की ज़रूरत है.

ये था हमारा बड़ी ख़बर सेग्मेंट. अब सुर्खियों की बारी.

पहली सुर्खी पाकिस्तान से है. पाकिस्तान से कई अपडेट्स हैं. एक-एक कर जान लेते हैं.

पहली अपडेट एक तकरार से जुड़ी है. पाकिस्तान में राष्ट्रपति आरिफ़ अल्वी और प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ के बीच की तकरार एक बार फिर शुरू हो गई है. इससे पहले दोनों पंजाब प्रांत के पूर्व गवर्नर उमर सरफ़राज़ चीमा की बर्ख़ास्तगी को लेकर उलझ गए थे. बाद में राष्ट्रपति ने अपनी ज़िद छोड़ दी थी.

अबकी बार का झगड़ा चुनाव सुधार बिल को लेकर है. दरअसल, इमरान ख़ान सरकार आम चुनाव से जुड़े कानूनों में बदलाव लेकर आई थी. इसके तहत, चुनाव आयोग ईवीएम और बायोमेट्रिक वेरिफ़िकेशन सिस्टम के इस्तेमाल को लेकर पायलट प्रोजेक्ट चलाने वाली थी. उस रिजल्ट का आकलन किया जाना था. ताकि पता लगाया जा सके कि क्या इसे देशभर में लागू किया जा सकता है. फिलहाल के लिए ये प्रोजेक्ट विदेशों में रहने वाले पाकिस्तानी नागरिकों तक सीमित था. इसे पाकिस्तान के इतिहास के सबसे बड़े चुनाव सुधारों में गिना जा रहा था. लेकिन शहबाज़ शरीफ़ की सरकार इसके पक्ष में नहीं थी. मई 2022 में उसने नेशनल असेंबली और सेनेट में नया बिल लाकर ईवीएम वाले प्रस्ताव को पलट दिया. इसके बाद बिल को राष्ट्रपति की मंज़ूरी के लिए भेजा गया. 09 जून को राष्ट्रपति ने बिना दस्तख़त किए बिल को लौटा दिया. उसी रोज़ संसद का साझा सत्र बुलाया गया. इसमें बिल फिर से पास हुआ. फिर इसे दोबारा राष्ट्रपति के पास भेजा गया. राष्ट्रपति के पास 10 दिनों का वक़्त था. लेकिन उससे पहले ही उन्होंने बिल को लौटा दिया है. उन्होंने कहा कि ईवीएम वोटिंग से पारदर्शिता आ सकती थी, फ़्री एंड फ़ेयर इलेक्शन का सपना पूरा हो सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हो सका. संसद में पास किए गए बिल पर साइन ना करना दुखद है. मगर मुझे यही सही लगा.

राष्ट्रपति के दस्तख़त ना करने के बावजूद बिल कानून की शक़्ल ले लेगा. पाकिस्तान के संविधान के मुताबिक, अगर संसद के साझा सत्र में कोई बिल पास होता है तो उसे एक बार राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है. अगर राष्ट्रपति 10 दिनों के अंदर उसके ऊपर साइन ना करें तो मान लिया जाता है कि मंज़ूरी मिल गई है. इस स्थिति में भी ऐसा ही होगा. यानी, पाकिस्तान के चुनाव में कुछ समय के लिए ईवीएम का इस्तेमाल टल गया है.

दूसरी अपडेट का संबंध एक लिस्टिंग से है. पाकिस्तान फ़ाइनेंशियल ऐक्शन टास्क फ़ोर्स (FATF) की ‘ग्रे लिस्ट’ में बना रहेगा. 17 जून को बर्लिन में FATF की बैठक समाप्त हुई. बैठक के बाद FATF के प्रेसिडेंट मार्कस प्लेयर ने कहा कि पाकिस्तान को फिलहाल ग्रे लिस्ट से नहीं हटाया जाएगा. अक्टूबर से पहले उनकी एक टीम पाकिस्तान के दौरे पर जाएगी. वहां वो जांचेगी कि पाकिस्तान ने तय शर्तों का पालन किया या नहीं. अगर टीम संतुष्ट हुई, तब जाकर ग्रे लिस्ट से हटाने का ऐलान हो सकता है.

पाकिस्तान का कहना है कि उसने सभी शर्तों का पालन किया है. ऐसे में उसे ग्रे लिस्ट में बरकरार रखना निराशाजनक है.

FATF का फ़ैसला पाकिस्तान के लिए चिंता बढ़ाने वाला है. पाकिस्तान इस समय भारी आर्थिक संकट से जूझ रहा है. उसके पास दो महीने के आयात लायक विदेशी मुद्रा भंडार बचा है. उसका आसरा विदेशों से मिलने वाली मदद पर टिका है. FATF की ग्रे लिस्ट में ऐसे देशों को रखा जाता है, जिनके ऊपर टेरर फ़ंडिंग और मनी लॉन्ड्रिंग के इल्ज़ाम लगते हैं. ऐसे देशों को विदेश से क़र्ज़ उठाने या मदद पाने में बड़ी मुश्किल होती है. क्योंकि क़र्ज़ देने वाले देशों और संस्थाओं को पैसा डूबने का ख़तरा रहता है. एक रिपोर्ट के अनुसार, इस लिस्टिंग की वजह से पिछले चार सालों में पाकिस्तान को लगभग तीन लाख करोड़ रुपये का नुकसान हो चुका है. आने वाले समय में ये नुकसान और बढ़ सकता है.

दूसरी सुर्खी कोलोंबिया से है. इस बार का कोलोंबिया का आम चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक बन गया है. गुस्ताव पेत्रो देश के अगले राष्ट्रपति होंगे. जबकि उप-राष्ट्रपति की कुर्सी फ़्रांसिया मार्ख़ेज को मिली है.

दोनों की जीत ऐतिहासिक क्यों है?

पहले गुस्तावो पेत्रो की चर्चा.

पेत्रो M-19 नामक विद्रोही गुट के सदस्य रह चुके हैं. 1990 के दशक में M-19 भंग हो गया. पेत्रो मुख्यधारा की राजनीति में आ गए. 1991 में वो पहली बार सांसद बने. 2010 में पेत्रो ने राष्ट्रपति चुनाव लड़ने के लिए सांसदी छोड़ दी. नतीजे आए तो वो चौथे स्थान पर रहे. फिर 2011 में उन्होंने बोगोटा के मेयर का चुनाव लड़ा. इसमें उन्हें जीत मिली. 2018 में पेत्रो दूसरी बार राष्ट्रपति चुनाव लड़ने आए. इस दफ़ा वो दूसरे स्थान पर रहे. उन्हें इवान दूक़े ने हराया. 2015 में कोलोंबिया के संविधान में एक बदलाव लाया गया था. इसके मुताबिक, कोलोंबिया में एक शख़्स एक कार्यकाल तक ही राष्ट्रपति पद पर रग सकता है. इसलिए, इस बार के चुनाव में दूके़ खड़े नहीं हो पाए. इस बार पेत्रो का मुक़ाबला बिजनेस टाइकून रोडोल्फ़ो हर्नाण्डीज़ से था. हर्नाण्डीज़ को कोलोंबिया का ट्रंप भी कहा जाता है. पहले राउंड में पेत्रो और हर्नाण्डीज़ टॉप-2 में रहे. लेकिन किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. इसी वजह से दूसरे राउंड का चुनाव कराया गया. इसमें पेत्रो ने लगभग सात लाख वोटों के अंतर से जीत हासिल की. पेत्रो कोलोंबिया के इतिहास के पहले वामपंथी राष्ट्रपति होंगे. वो 07 अगस्त 2022 को अपना कार्यकाल शुरू करेंगे.

अब फ़्रांसिया मार्ख़ेज के बारे में जान लेते हैं.

मार्ख़ेज कोलोंबिया के इतिहास की पहली अश्वेत उपराष्ट्रपति बनने जा रहीं है. उनका सफ़र काफ़ी दिलचस्प रहा है. मार्ख़ेज 13 साल की उम्र से आंदोलनों में हिस्सा ले रहीं है. 16 की उम्र में वो सिंगल मदर बनीं. उन्होंने मज़दूरी से लेकर हाउसकीपिंग तक का काम किया. कोलोंबिया की 40 फीसदी आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे रहती है. अश्वेतों के साथ भेदभाव की घटनाएं भी आम हैं. इन्हीं वजहों से मार्ख़ेज का उपराष्ट्रपति बनना ऐतिहासिक माना जा रहा है. उम्मीद जताई जा रही है कि जिन संघर्षों को झेलकर वो इस मुकाम तक पहुंचीं है, वो उसे सुधारने का काम करेंगी.

आज की तीसरी और अंतिम सुर्खी डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कॉन्गो से है. इन दिनों बेल्जियम कॉन्गो में किए गए अपने गुनाहों को धोने की कोशिश कर रहा है. इसी कड़ी में 20 जून को बेल्जियम ने कॉन्गो को सोने का एक दांत लौटाया. ये दांत किसका था? ये था, कॉन्गो के पहले प्रधानमंत्री रहे पैट्रिक एमरी लुमुम्बा का.
ये पूरी कहानी क्या है?

इस कहानी का पहला सिरा वहां से शुरू होता है, जब यूरोप के देश अफ़्रीका में लूट मचा रहे थे. कॉन्गो में बेल्जियम आया. 1885 में बेल्जियम के राजा लियोपॉल्ड द्वितीय ने फ़्री कॉन्गो स्टेट की स्थापना की. सेकेंड वर्ल्ड वॉर के बाद औपनिवेशिक शासन पस्त होने लगा था. 1950 के दशक में कॉन्गो में कॉन्गो में आज़ादी को लेकर आंदोलन शुरू हुआ. इसी दौर में एक नौजवान नेता उभरा. पैट्रिक लुमुम्बा. उनकी पार्टी किसी पर आश्रित नहीं थी. इसलिए, वे उग्र होकर बेल्जियम का मुक़ाबला कर रहे थे. नाराज़ बेल्जियम ने लुमुम्बा पर दंगे का आरोप लगा दिया. 1959 में उन्हें जेल भेज दिया गया. लेकिन बेल्जियम की परेशानी दूर नहीं हुई. आंदोलन और तेज़ हो गया. आख़िरकार, जून 1960 में बेल्जियम को कॉन्गो को आज़ादी देनी पड़ी. उन्हें लुमुम्बा को भी रिहा करना पड़ा.

बेल्जियम चाहता था कि सत्ता छोड़ने के बाद भी उसकी पकड़ बनी रहे. उन्होंने राजा बेदुयिन और राष्ट्रपति कासा-वुबु को इसके लिए तैयार भी कर लिया. मगर उनकी चाल एक जगह धोखा खा गई. प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्ति हुई, पैट्रिक लुमुम्बा की. बेल्जियम को लगा, हमने अहसान किया है. लुमुम्बा ने पहले ही दिन ये ग़लतफहमी दूर कर दी. राजधानी किन्हासा के ‘पैलेस ऑफ़ नेशन’ में अपने भाषण में उन्होंने कहा,

‘ये उपहास, अपमान और दमन को याद करने का दिन है, जो हमने ‘नीग्रो’ होने की वजह से हर पल झेला है. हम उन सभी को याद करते हैं, जिन्हें अपने राजनैतिक विचारों और धार्मिक मान्यताओं की क़ीमत जान देकर चुकानी पड़ी. वे अपने ही घर में निर्वासित थे, उनकी ज़िंदगी मौत से भी बदतर थी’.

लुमुम्बा ने ये भी कहा कि ये आज़ादी कॉन्गो के लोगों के संघर्षों से हासिल हुई है. किसी ने उनसे इस तरह की नाराज़गी की उम्मीद नहीं की थी. कहा जाता है कि इस भाषण के ज़रिए लुमुम्बा ने अपने डेथ वॉरंट पर साइन कर दिया था.

इस भाषण ने बेल्जियम को सदमे में डाल दिया. लुमुम्बा किसी के दबाव में नहीं रहना चाहते थे. यही बात बेल्जियम और अमेरिका को खटक गई. कटांगा प्रांत में विद्रोही गुटों का कब्ज़ा था. वहां सरकार के ख़िलाफ़ मूवमेंट चल रहा था. लुमुम्बा ने इसे शांत करने के लिए अमेरिका से मदद मांगी. लेकिन अमेरिका ने टाल दिया. दरअसल, बेल्जियम और अमेरिका कटांगा के विद्रोहियों को पाल रहे थे.

परेशान पैट्रिक लुमुम्बा सोवियत संघ के पास गए. मदद की अपील की. सोवियत संघ राज़ी हो गया. इसने अमेरिका को नाराज़ कर दिया. वजह साफ थी, कोल्ड वॉर. बेल्जियम और अमेरिका ने मिलकर राष्ट्रपति पर दबाव डाला.

05 सितंबर 1960 को पैट्रिक लुमुम्बा को पद से बर्खास्त कर दिया गया. अक्टूबर में उन्हें हाउस अरेस्ट में रख दिया गया. एक रात वो वहां से भाग निकले. आर्मी कमांडर मोबुतु सीसी सीको ने पकड़ने के लिए अपने गुंडे भेजे. इससे पहले कि लुमुम्बा अपने इलाके में पहुंच पाते, उन्हें पकड़ लिया गया.

उन्हें प्लेन में बिठाकर कटांगा लाया गया. उनके साथ मारपीट भी की गई. फिर उन्हें फ़ायरिंग दस्ते के सामने खड़ा करके गोली मार दी गई. उनकी लाश को तेजाब से जला दिया गया. पैट्रिक लुमुम्बा की सभी निशानियां मिटाने की कोशिश की गई. इसके बावजूद उनका एक निशान बचा रह गया. उनका एक दांत. बेल्जियम के जिस पुलिस कमिश्नर ने लुमुम्बा की लाश को तेज़ाब से जलवाया था, उसने उनके दो दांत और दो ऊंगलियां काटकर रख लिए थे. लेकिन बाद में सिर्फ़ एक दांत का पता चल सका. पुराने समय में यूरोपियन अधिकारी मोमेंटो के तौर पर लाश का कुछ हिस्सा ले जाते थे. ये अपने किस्म की हैवानियत थी.

बेल्जियम औपनिवेशिक शासन के दौरान किए गए गुनाहों के लिए शर्मिंदा ज़रूर है, लेकिन उसने अभी तक आधिकारिक तौर पर माफ़ी नहीं मांगी है.