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इंटरव्यू: राम रेड्‌डी जिनकी 'तिथि' ने आमिर-अनुराग सबको लोट-पोट कर दिया

उनकी कन्नड़ फिल्म नेशनल अवॉर्ड जीत चुकी है. दुनिया भर के दर्शकों की तारीफ पा चुकी है. ऐसी कॉमेडी पहले नहीं देखी गई.

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पहले ब्लॉग filamcinema पर प्रकाशित.
दिसंबर, 2015 के अंत में एक बेहद अनजान कन्नड़ फिल्म का 45 सेकेंड का टीज़र सार्वजनिक हुआ. बकरी के मिमियाने और एक बांध देने वाली धुन से शुरू होता है. इसमें 101 साल का सेंचुरी गवडा के अल्हड़, सटका हुआ पात्र अपने सूखे हास्य से हमारे दिमाग पर जादू कर देता है. हम सोचने लगते हैं कि ये इतनी ताज़ा अप्रोच वाली हंसी किसने बना दी? ये कहां से आ गई? यहीं से इस फिल्म तिथि और इसके युवा निर्देशक राम रेड्‌डी को लेकर दिलचस्पी पैदा हो गई. https://www.youtube.com/watch?v=wLIb-iNMEiA फिर दूसरा टीज़र आया जो उतना ही सटका हुआ था. फिर पूरा ट्रेलर आया. तीनों अच्छे हैं, लेकिन पहले की हस्ती वैसी ही बनी हुई है. राम भारत के युवा फिल्मकारों की उस नई प्रजाति का हिस्सा हैं जो पुराने पथों पर नहीं चलते, वे अपने ही रास्ते बना रहे हैं, फिल्म बनाने की अपनी ही विधियां तलाश रहे हैं और उसमें जबरदस्त साबित हो रहे हैं. निश्चित तौर पर तिथि ऐसी फिल्म है जिसे मिस नहीं किया जाना चाहिए. कर्नाटक में ये चार हफ्ते सफलतापूर्वक चली है. 3 जून से दिल्ली, मुंबई, पुणे के सिनेमाघरों में लग रही है. साढ़े तीन साल की अवधि में ये कृति तैयार हुई है. पिछले साल बेहद प्रतिष्ठित लोकार्नो फेस्ट में इसने दो शीर्ष पुरस्कार जीते. गोल्डन लियोपर्ड और सर्वोत्कृष्ट पहली फिल्म. इससे पहले पट्‌टाभिरामा रेड्‌डी द्वारा निर्देशित संस्कारा ही ऐसी कन्नड़ फिल्म थी जिसने (1972 में) लोकार्नो में सम्मान पाया था. 3 मई को इसे बेस्ट कन्नड़ फिल्म का नेशनल अवॉर्ड राष्ट्रपति के हाथों मिला. माराकेच, पाम स्प्रिंग्स, सेन फ्रैंसिस्को, मामी और अन्य फिल्म समारोहों में भी तिथि जीती. आमिर खान, अनुराग कश्यप, इरफान खान, गिरीष कर्नाड और बहुत से दूसरे आर्टिस्ट इस फिल्म को देख चुके हैं और विस्मय में हैं. बढ़ती जाती उत्सुकता के बीच राम से बात हुई. वे और उनका परिवार बेंगलुरु में रहता है। कर्नाटक के पहले मुख्यमंत्री के.सी. रेड्‌डी उनके दादा लगते हैं. राम ने दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज से अर्थशास्त्र की पढ़ाई की. फिर 2012 में चैक गणराज्य की राजधानी में बने प्राग फिल्म स्कूल से निर्देशन का कोर्स किया. 8-9 शॉर्ट फिल्में बनाईं जिनमें से दो फिल्म फेस्टिवल्स में भी गई. तिथि की यात्रा ने 2014 में ठोस मोड़ लिया जब एनएफडीसी के फिल्म बाजार में वर्क-इन-प्रोग्रेस सेक्शन में निर्माता इस कहानी से प्रभावित हुए और साथ दिया. 11411876_10152520364067325_916924161901011783_o ये कहानी और स्क्रिप्ट राम के साथ उनके करीबी दोस्त ऐरे गवडा ने लिखी है जिनके गांव में ही फिल्म स्थित है. राम तबला वादक हैं, फोटोग्राफी और अन्य कलात्मक गतिविधियों का शौक भी रखते हैं. उन्होंने 19 की उम्र में It's Raining in Maya नाम का नॉवेल भी लिखा. - आप हों, ‘कोर्ट’ बनाने वाले चैतन्य तम्हाणे हों या ‘शिप ऑफ थिसीयस’ के निर्देशक-रचयिता आनंद गांधी.. आप लोग न जाने इतने वर्षों से कहां, क्या कर रहे थे. फिर एकाएक ऐसी फिल्में ले आए जो रचनात्मक रूप से बहुत-बहुत अलग थीं. आपकी प्रकियाएं भी अलग थीं. आप जैसे फिल्मकारों का ये दृष्टिकोण क्या है? इसके पीछे तीन वजहें हैं. 1. डिजिटल माध्यम लोगों को किफायती उस लागत पर फिल्म बनाने की अनुमति दे रहा है. इससे निर्माता ऐसी कहानियों पर जोखिम ले पा रहे हैं जो अन्यथा कर पाना संभव न था. बजट बड़ा न हो तो मेरे हिसाब से तिथि हम फिल्म फुटेज पर बना ही नहीं सकते. क्योंकि फिल्म फुटेज की बर्बादी और 100 ग्रामीण अभिनेताओं के साथ आप जोखिम नहीं ले सकते. ये संभव नहीं. कोर्ट जैसी फिल्म के साथ भी ये सही बैठता है. इसमें भी बहुत सारे टेक-रीटेक हुए थे. इस स्थिति में किसी इंडिपेंडेंट फिल्म को फिल्म रील पर शूट कर पाना संभव ही नहीं है. गैर-पेशेवर अभिनेताओं के साथ काम करने और उन्हें सिनेमाई परदे पर लाने में अब तकनीक बहुत मदद कर रही है. 2. निर्माताओं का बिना शर्त पूरे मनोयोग से निर्देशकों को समर्थन. जैसे चैतन्य के साथ विवेक (गॉम्बर) थे. ये फिल्में ऐसी हैं जो बनानी आसान नहीं हैं और उनके लिए आपको किसी निर्लिप्त भाव वाले निर्माता की जरूरत पड़ती है. ऐसे बहुत-बहुत फिल्मकार हैं जिनके पास कुशलता है लेकिन जब ऐसी (तिथि) कहानी हो और आप शूट कर रहे हों और जब तक आप बनाने के जटिल और मौलिक रास्ते को सोच पाते हो आपका समय पूरा हो चुका होता है. मैं शिप ऑफ थिसीयस के बारे में बहुत ज्यादा तो कुछ नहीं जानता लेकिन इसे बनाने में बरसों लगे. मुझे लगता है फिल्म 2 से 3 साल तक धन जुटाने में लगी रही. तो चाबी यही है कि लंबे समय तक ऐसी परियोजनाओं में जुटे रह सकें और निर्माता का बेशर्त समर्थन मिले. 3. एक खास किस्म की फिल्ममेकिंग के पीछे के इरादे से हमारी प्रक्रियाएं तय होती हैं. अगर मैं पहले स्क्रिप्ट लिख लेता और फिर किसी गांव में जाकर स्क्रिप्ट की परिस्थितियों का मेल बैठाने की कोशिश करता तो ऐसा नहीं कर पाता. क्योंकि आप उन ग्रामीणों को उस झुकाव तक नहीं ले जा सकते जहां वे कोई और ही इंसान बन जाएं और ऐसा करना हमारा इरादा भी नहीं है. अगर मुझे पेशेवर एक्टर्स मिलते तो मैं एक बुरी फिल्म बनाकर उठता. ऐसा होना ही चाहिए कि गैर-पेशेवर अभिनेता आपके स्क्रीनप्ले को सूचित करें. किसी भी गैर-पेशेवर एक्टर वाली फिल्म में ये मूलभूत ही है कि उन एक्टर्स के व्यक्तित्व और उनका मनोविज्ञान आपको बताए कि उनका किरदार कैसे लिखा जाना है. या तो ऐसा हो, नहीं तो फिर आप महीनों, महीनों तक कास्टिंग करते रहें.. जैसे कोर्ट ने महीनों, महीनों कास्टिंग की. हजारों ऑडिशन लिए गए। ये कुछ ऐसे तत्व हैं जो फिल्म की मौलिक और अपरंपरागत प्रक्रियाओं में योगदान देते हैं और मौजूदा से जरा अलग होते हैं। - और दर्शकों का क्या? जिस गति और स्तर तक फिल्ममेकर विकसित हो रहे हैं क्या दर्शक भी उतना बदले हैं या पहले जैसे ही बने हुए हैं? ये विशुद्ध रूप से इस कारण से कि हमारे यहां 100 करोड़ से ज्यादा लोग हैं और ये दुनिया के सबसे युवा देशों में शुमार होता है. मुझे लगता है हमारे यहां पॉपुलर कल्चर काफी ज्यादा उदार और असंकीर्ण है, जो ऐसा होने दे रहा है. और इस प्रकार के कंटेंट के लिए बाजार भी तैयार हो चुका है. आमतौर पर हम विशुद्ध कमर्शियल फिल्मों के कल्चर से ही आते हैं जहां पर कहानी कहने के खास तरीके को स्टैंडर्ड बना दिया गया है लेकिन फिर भी बदलाव हो रहा है. खासतौर पर इसलिए क्योंकि जैसे मैंने कहा हम एक बहुत युवा देश हैं और नई पीढ़ी की तादाद काफी है. हमारे यहां सबसे ज्यादा जनसंख्या 20 से 30 के आयुवर्ग की है. उनका जायका अभी निर्मित हो रहा है, बदल रहा है. चूंकि ये इतना युवा देश है तो चीजें बदल रही हैं. स्वाद के हिसाब से भी इंटरनेट के जरिए हमारी अंतरराष्ट्रीय विषय-वस्तु तक पहुंच है. एक समय ऐसा था जब हम सिर्फ बॉलीवुड या क्षेत्रीय भाषा वाला सिनेमा देखते थे लेकिन इंटरनेट के कारण अब स्थिति वैसी नहीं है. हमारे यहां ऐसे अंग्रेजी चैनल हैं जो ऐसी फिल्में दिखा रहे हैं जो सिर्फ हॉलीवुड की नहीं हैं. अलग-अलग दिशाओं से नए जायकों की पैदावार हो रही है. तो दर्शक भी बदल रहे हैं. हालांकि बड़े जमीनी जन-समूह नहीं बदल रहे. अगर तिथि जैसी फिल्मों को एक कमर्शियल वितरक ले रहा है और उसकी कमर्शियल रिलीज हो रही है तो इसका मतलब है कि इस उद्योग ने ऐसे दर्शक तो पैदा किए हैं. अब इंटरनेट भी बराबरी की जमीन तैयार कर रहा है, वो आर्ट का लोकतंत्रीकरण कर रहा है. जनसमूह अब दक्ष और विशेषज्ञ हो चुके हैं. सिनेमा में और मांग कर रहे हैं. वो बहुत ज्यादा उपभोक्तावादी होते जा रहे हैं, इस लिहाज से कि वे चुनने के लिए विकल्प चाहते हैं. मैं कभी भी कमर्शियल सिनेमा के खिलाफ नहीं रहा हूं. मैं बस वैरायटी चाहता हूं. सिनेमाघरों में कमर्शियल स्तर पर वैरायटी. जैसे कि फूड कोर्ट होते हैं जहां हर तरह के व्यंजन का विकल्प होता है. जब आप एक मल्टीप्लेक्स जाते हैं तो आपके पास एक विशुद्ध कमर्शियल फिल्म देखने का विकल्प भी होना चाहिए, एक एनिमेटेड फिल्म का भी और एक इंडिपेंडेंट फिल्म का भी. चॉयस हमेशा वहां होनी चाहिए. इन सबका सह-अस्तित्व होना चाहिए. - मान लें कला के लोकतंत्रीकरण के बाद, आज से 20-30 साल बाद जब वो आदर्श स्थिति फिल्म निर्माण विधा में आए तो वो क्या हो? ऐसी स्थिति जहां निर्माता कम शर्तों के साथ मौजूद हो. अगर आप एक निर्माता हैं और निर्देशक का साथ मुक्त भाव से दें तो वही कुंजी है. क्योंकि मुझे लगता है हम एक इंटस्ट्री के तौर पर वहां जूझ रहे हैं कि निर्माता कला के दृष्टिकोण से नहीं बल्कि धन के दृष्टिकोण से निर्देशक को सहारा देते हैं. मैं ये कह रहा हूं कि आप निर्माता हैं तो किसी भी डायरेक्टर को ही चुन लीजिए, कोई ऐसा ले लीजिए आपके हिसाब से जिसके नजरिए में कमर्शियल तत्व हैं. लेकिन फिर आपको उसे पूरा सपोर्ट देना होगा और आपको ये समझना होगा कि ये क्षेत्र गुणवत्ता का है, यही पहला कदम होना चाहिए और यहीं पहुंचने में हम संघर्ष कर रहे हैं. आप सीधे आकर ये नहीं कह सकते कि फिल्म को 10 मिनट छोटा कर दो. आप ऐसा कर सकते हैं लेकिन आर्ट की देखरेख की भावना के साथ और ये अभी भी हमारे देश में होता नहीं है. दूसरी चीज है वितरण अधिकार. अच्छे कंटेंट से संचालित होने वाली फिल्मों या कथ्य उन्मुख फिल्मों के वितरण की समस्या आती है. ये चिकन और एग वाली स्थित है. वितरक आपका साथ तभी देगा जब फिल्म को दर्शक स्वीकार करें, दर्शक उसे तभी स्वीकार करते हैं जब आप थीम मुताबिक चुनो.. और उनकी यही जड़ता बनी हुई है. तो मेरे लिए आदर्श स्थिति वो होगी जब निर्माता अपने निर्देशक को निष्काम भाव से सपोर्ट करे और उसमें पूरा भरोसा जताए. कलात्मक फिल्म को भी ऐसे ही बेचो जैसे किसी कमर्शियल फिल्म को बेचोगे. और धीरे-धीरे लोगों का स्वाद बदलेगा. एक कम से कम नियंत्रण वाली फिल्म इंडस्ट्री बहुत फायदे की होगी. जो एक तरह से सेक्युलर हो, जहां जियो और जीने दो वाली बात हो. - आने वाले कुछ बरसों में इंटरनेट का सिनेमा पर क्या असर होगा? मैं ये पूरी यकीन से सोचता हूं कि इंटरनेट आने वाले पांच से दस बरसों में फिल्म वितरण को पूरी तरह से बदल देगा. अभी वैश्विक वितरण व्यवस्था की योजना में सिनेमाघर जहां खड़े हैं, वो हाल पूरी तरह बदल जाएगा. जैसे, सभी ए-लेवल के फिल्म फेस्टिवल, स्टूडियोज, नेटफ्लिक्स और अन्य सभी मंच पारंपरिक वितरकों को पूरी तरह बेदखल कर दे रहे हैं. अब सारी अर्थव्यवस्था इंटरनेट पर आ गई है. और जब अर्थव्यवस्था इंटरनेट पर है तो बहुत सारी चीजें बदल जाती हैं. इंटरनेट का इस्तेमाल करते हुए आप हजारों फिल्मों से महज एक क्लिक की दूरी पर होते हो. इस अनुभव को पाने के लिए आप जो प्रयास अभी करते हैं वो काफी अलग है जैसे आप पैसे देते हैं, कार में बैठते हैं, थियेटर जाते हैं. तो जड़ता का जाना जरूरी है. और कंटेंट का लोकतंत्रीकरण इस लिहाज से इंटरनेट से होगा. वितरण के मंच भी बदलेंगे. एक फिल्ममेकर होने के लिए ये बहुत अच्छा वक्त है. मैं सोच रहा था कि अगर 20 साल पहले पैदा हुआ होता तो कुछ भी समान न होता. - मार्क जकरबर्ग ने भी वर्चुअल रिएलिटी के आविष्कार ऑक्युलस रिफ्ट में धन (2 बिलियन डॉलर में खरीदा) लगाया है जो वीडियो देखने के अनुभव को बिलकुल बदल देगा.. हां, बिलकुल. आनंद गांधी भी इसमें पूरी तरह लगे हैं. मैंने हाल ही में बॉम्बे में उनके साथ वक्त बिताया और वो ये महाकाय रिग्स बना रहे हैं और पूरी तरह वर्चुअल रिएलिटी पर काम कर रहे हैं. मुझे लगता है कि ये निश्चित तौर पर भविष्य होगा कि हम आर्ट का अनुभव कैसे लेते हैं. ये छोटे से शुरुआत करेगा लेकिन बाद में एक नया अनुभव और अपने आप में नया माध्यम बन जाएगा. - तिथि में आपने सबकुछ अपने मुताबिक ही रचा है जिसमें कोई स्टार नहीं है, कोई गाना उस लिहाज से नहीं है, इसमें काम कर रहे लोगों को कोई मैथड एक्टिंग भी नहीं आती, वो नवाजुद्दीन सिद्दीकी या इरफान खान जैसे मंझे अभिनेता भी नहीं हैं, आप खुद भी पहली बार के निर्देशक हैं, उम्र में भी कम हैं लेकिन फिल्म ऐसे रची कि एक भी नोट हिला हुआ नहीं है. मौजूदा परिदृश्य में युवा लोगों के जेहन में चीजों की खोज करने और रचने की प्रवृति को कैसे देखा जा सकता है? कला और तकनीक में वे गुजरे वर्षों की प्रक्रियाओं को अपना नहीं रहे बल्कि अपने ही आविष्कार कर रहे हैं. एक तो ये, कि पुराने ढांचों के कारण हमारे भीतर के कलाकारों को अपनी आवाज नहीं मिल पाई थी, इंडस्ट्री और इसके स्ट्रक्चर्स की बात हमने की थी. फिल्म को आवश्यक रूप से कभी विशुद्ध आर्ट नहीं माना गया. शायद 70 के दशक में माना गया है तो समानांतर सिनेमा का आंदोलन शुरू हुआ था लेकिन बाद में वो भी बिजनेस बनकर रह गया. इस गतिरोध को तोड़ने में हम आर्टिस्ट लोगों की बड़ी रुचि है. जैसे कि किताबें लिखी जाती हैं. ये बहुत रोचक है कि कैसे जादुई यथार्थवाद (Magic realism) को सिनेमा का जॉनर नहीं माना जाता. सिर्फ इसलिए क्योंकि निर्माता इस श्रेणी की फिल्मों में धन नहीं लगाते. जबकि लेखक अपने कमरों में बैठे इन पर किताबें लिख रहे हैं. फिल्मों में जादुई यथार्थवाद क्या करता है कि ये आपको ज्यादा रचनात्मक बनने का अवसर देता है, अगर आप नायकत्व (Heroism) पर फिल्में बना रहे हैं तो ऐसा नहीं कर पाते हैं. तो आर्टिस्ट लोगों में रचनात्मकता के प्रति एक अंतर्निहित झुकव होता है. मुझे लगता है अब ऐसे निर्माता हैं जो समग्र भाव से साथ दे रहे हैं. और आपके पास कुछ नया आजमाने की जगह है और आप अपने अंदर के कलाकार को ऐसा करने देते हैं. तो ये निश्चित रूप से एक प्रमुख वजह है. एक अन्य बात और है कि दुनिया में हर साल बहुत सी फिल्में बनती हैं. जैसे एक आंकड़े के मुताबिक हर साल विश्व में 15,000 फिल्में बनती हैं. उनमें से 50 के करीब फिल्में ही हैं जो सिनेमाघरों में रिलीज और लोगों के बीच लोकप्रियता के लिहाज से वर्ल्ड सिनेमा सक्सेस बन पाती हैं. जैसे इस साल सन ऑफ सॉल (Son of saul), मस्टैंग (Mustang) और एम्ब्रेस ऑफ द सरपेंट (Embrace of the serpent). दुनिया की उन 15,000 फिल्मों में से आप करीब ऐसी 50 फिल्मों को हटके गिन सकते हो. अब अगर आप मौलिक नहीं होंगे तो फिर उन 15,000 फिल्मों से आपको क्या बात अलग करती है? तो ये कुछ आर्ट की बात है और कुछ विश्व परिस्थिति को समझने की बात है. तो आपको खुद को अपनी हदों के पार धकेलना होगा, मौलिक होना होगा, समझदार होना होगा और जो भी रचने जा रहे हैं उसे लेकर ईमानदार होना होगा. -आपने कहा कि आप में एक खास स्पष्टता चीजों को लेकर है और एक बार जो शुरू करते हैं उसे खत्म करते ही हैं. आपके जीवन में ये मूल्य और व्यवस्था कैसे आई? परिवार से. मेरा पूरा परिवार ही परफेक्शनिस्ट लोगों का है. हम लोगों पर कभी दबाव नहीं रहा कि अपने इस परफेक्शन को किसी खास क्षेत्र में ही भेजना है। मैं कलाकारों के परिवार से नहीं आता हूं लेकिन वहां विचार ये रहा है कि एक बार जो भी चीज हम उठाएं तो उसे पूरे समर्पण के साथ करें. मेरी मां (अनीता रेड्‌डी, पद्मश्री) सोशल वर्कर हैं. मैं ऐसे किसी को नहीं जानता जो उनसे ज्यादा काम करता हो. काम को लेकर उनके मूल्य पागलपन की हद तक हैं. उनके अंदर बहुत सारी ऊर्जा है. हमारी परवरिश ऐसे हुई और हममें ये विकसित किया गया कि हम हटके हो सकते हैं लेकिन जो भी करेंगे वो अपने सर्वश्रेष्ठ, कड़ी मेहनत और अनुशासन के साथ. मैं कुछ भी बन सकता था. विज्ञान का क्षेत्र ले सकता था. अर्थशास्त्री बन सकता था. उस दौरान भी मेरा अंदाज इसी तरह का होता. - जब विश्व सिनेमा की फिल्में देखनी शुरू कीं तो किनने बहुत प्रभावित किया? जैसे बहुत से फिल्मकार कहते हैं कि उन्होंने रेजिंग बुल (Raging Bull, 1980) या कोई एक फिल्म 10 बार देखी और उनकी जिदंगी बदल गई. ईमानदारी से कहूं तो मेरे लिए कोई ऐसी एक फिल्म नहीं थी जिसने मेरी जिंदगी बदल दी. जब मैं सेंट स्टीफंस में पढ़ने लगा तो मैंने अलग-अलग तरह की बौद्धिक फिल्में देखीं और लेखन देखा. तब मैं वर्ल्ड सिनेमा से थोड़ा-बहुत परिचित हुआ ही था. पहली फिल्म जो मैंने देखी वो ईरानी थी. बहुत से लोग वर्ल्ड सिनेमा में अपनी शुरुआत ईरानी फिल्मों से ही करते हैं. मैंने तुर्की की भी कुछ फिल्में देखीं. ऐसी फिल्मों में आप लोगों को इस आर्ट फॉर्म पर बिलकुल अलग तरीके से काम करते देखते हैं और आप पाते हैं कि उनके लिए एक फिल्म कितनी अहमियत रखती है. गस वन सांत (Gus Van Sant) की शुरुआती फिल्में मैंने देखी. मेरे मन में उन्हें लेकर बड़ी इज्जत जन्मी. मुझे याद है उन्हें देखते हुए मैं सोचता था कि इस आदमी में माद्दा है. उनकी फिल्मों का ढांचा ऐसा होता है कि .. जैसे उनकी एक फिल्म है एलीफेंट (Elephant, 2003) जो मुझे इतनी ज्यादा प्रिय नहीं है लेकिन ऐसी फिल्म बनाने में बहुत जिगरा लगता है. आपके पास जिगरा होना चाहिए कि किसी को 70 मिनट तक बोर करो और आखिरी 3 मिनट में शॉक कर दो. फिर मैंने वॉन्ग कार-वाय (Wong Kar-wai) की फिल्में देखनी शुरू कीं जो इतनी काव्यात्मक थीं, कथ्य-हीन से स्वरूप वाली जहां चीन में स्थित फिल्म में वे स्पेन का म्यूजिक देते हैं. ऐसी चीजें सिनेमा क्या होता है इसे लेकर आपके विश्व दर्शन को फैलाव देती हैं. वहीं आप जब हॉलीवुड या ऐसी आम फिल्में देखते हुए बड़े होते हैं तो ऐसा नहीं हो पाता. मैंने धीरे-धीरे फिर खुद को निर्मित करना शुरू किया. धीरे-धीरे मैंने सोचना शुरू किया कि मेरी स्टाइल वाले फिल्मकार कौन हैं और मैं किनकी ओर आकृष्ट होता हूं? ये फिल्मकार ऐसे हैं जो एक-दूसरे को कॉपी नहीं करते. जैसे वॉन्ग कार-वाय जैसा कोई नहीं है, हेनेके (Michael Haneke) जैसा कोई नहीं है. -तिथि को लेकर सबसे अच्छी तारीफ आपने कौन सी पाई है? फ्रांसिस फोर्ड कोपोला (Francis Ford Coppola) को ये बहुत पसंद आई. उन्होंने मुझसे कहा कि वे सेंचुरी गवडा बनना चाहते हैं. ये मेरे लिए सबसे कूल पल था. कोपोला की अपोकलिप्स नाओ (Apocalypse Now, 1979) और द गॉडफादर (The Godfather 1972-1990) ने एक लिहाज से मॉडर्न क्लासिकल सिनेमा रचा था. वे इसके अग्रदूतों में रहे हैं. उन्होंने अपनी फिल्में भयावह परिस्थितियों में बनाई हैं. जैसे द गॉडफादर को देखें तो लगता है कि ये बहुत ही व्यवस्थित और लयबद्ध प्रोडक्शन है लेकिन ये सबसे अधिक बिखरे हुए, कोलाहल भरे और बगैर-समर्थन वाले प्रोडक्शंस में से था. लेकिन फिल्म देखते हुए ऐसा नहीं लगता. अपनी नई फिल्म (Distant Vision) के साथ भी वे सबको चौंकाने वाले हैं. ये पांच साल में बनेगी और 500 पन्नों लंबी इसकी स्क्रिप्ट है. ये भी एक इटैलियन फैमिली की चार पीढ़ियों की कहानी है. हां, वो इस बारे में बात कर रहे थे. उन्होंने कहा था कि वे लाइव परफॉर्मेंस जैसा कुछ शूट कर रहे हैं. फिल्म कई लाइवब कैमरा के बीच घटित होगी. पूरी फिल्म लाइव दिखाई जाएगी. वे अब भी खुद को अपनी क्षमताओं से परे धकेल रहे हैं और ये ही मजा है, वरना जीवन पूरी तरह बोरिंग हो जाए. - जैसे आपने कहा कॉमेडी को गंभीरता से नहीं लिया जाता है. जब 2012 में एक ऑडिटोरियम में गुरविंदर सिंह की अन्ने घोड़े दा दान देख रहा था तो लोग सबसे गंभीर और पीड़ादायक मौकों पर हंस रहे थे. उसमें डार्क ह्यूमर है जिस पर हंसा नहीं जाता. तिथि एक अलग फिल्म है. लेकिन पूछना चाहता हूं कि एक डायरेक्टर के तौर पर आप किसानों और ग्रामीणों की दशा को कितना महसूस करते हैं? ग्रामीणों की कठिनाइयां बनाम कॉमेडी जो हम दिखा रहे हैं तिथि में, इससे हम हासिल क्या कर रहे हैं सिवा कलाकत्मक रूप से एक मजेदार फिल्म देने के? मैं समझ रहा हूं आप क्या कह रहे हैं. मैं आर्ट में नैतिकता से दूर ही रहता हूं. कहानी में तीन मुख्य किरदार हैं और उन्हें एक खास तरीके से इरादतन एक-दूसरे का विरोधाभासी रखा गया है. भौतिकवाद (materialism) और अभौतिकवाद (non-materialism) पर भी इसमें टिप्प्णी है. कई बातों में एक बात यह भी है कि फिल्म सिर्फ गांव-केंद्रित नहीं मानव-केंद्रित भी है. आप भौतिकतावादी ढंग से किसी चीज के पीछे हो तो ये कई मायनों में आत्म-विनाशकारी है. यही फिल्म के सूत्रधार के साथ होता है. अगर आप फिल्म के किरदारों से खुद को थोड़ा अलग करके देख सकें तो उस स्थिति में होने के अलावा आप बहुत आत्म-शक्ति भी पा सकते हैं. हम कभी भी राजनीतिक वकतव्य देने के इच्छुक नहीं थे, हम मानवीय टिप्पणी कर रहे थे. ये सिर्फ स्थिति ही थी कि हम किसानों के साथ काम कर रहे थे. कोई राजनीतिक इरादा न था. सिर्फ एक इरादा था और मानवीय परिस्थितियों पर टिप्पणी के लिहाज से इस फिल्म में सार्वभौमिकता है. मैंने कभी भी उन संघर्षों को महसूस नहीं किया जब मैं वहां गया.. ये जीवन जीने का एक तरीका था. जिस क्षेत्र में हमने शूट किया वो उपजाऊ जमीन वाला था और उनके यहां खेती की संस्कृति है और वे अच्छा कर रहे हैं. हम उस संस्कृति के प्रति ईमानदार बने रहे. ये हमारे शहरों से अलग दुनिया थी. वहां कोई कठिनाई नहीं थी. ये बहुत ही अपने में सिमटा समुदाय था और वे बहुत मजबूत थे. वे लाउड थे, खुश थे, उनके जीवन में सकारात्मकता थी और इसे फिल्म में होना ही था. सामाजिक मुद्दों पर बनी फिल्में अच्छी और उपयोगी हैं लेकिन कई बार ये नेगेटिव भी हो सकता है. हमारे देश और उसकी संस्कृति में इतनी सकारात्मकता है और ये बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर है और उसे भी सामने लाया जाना जरूरी है. है न? हमें अच्छे की ओर भी देखने की जरूरत है. इस कहानी में कुछ कभी न भूले जा सकने वाले पात्र हैं और फिल्म की स्क्रिप्ट लिखने की प्रक्रिया में हमने बहुत कुछ सीखा. मुझे लगता है उन्हें देखने के बाद उनसे कुछ ग्रहण किया जा सकता है. खासकर के फिल्म के दो पात्रों से. तिथि एक सादगी है और मानव स्थिति पर टिप्पणी है. ये राजनीतिक चीज नहीं है. 12932956_1530437540591436_7730895741128575158_n आपके जीवन दर्शन के केंद्र में क्या है? कि जो ये पल है इसी में जिओ. जब आप मौजूदा पल में ही जीने लगते हैं तो आप बुझते नहीं हैं. आप तभी बुझ जाते हैं जब मौजूदा पल से बाहर सोच रहे होते हैं. आप या तो अतीत में मनन कर रहे होते हैं या फिर भविष्य को लेकर बेचैन होते हैं. मैं हमेशा इसी पल पर ध्यान केंद्रित करता हूं. इसमें बहुत ताकत है. इसके अलावा मेरा ये भरोसा भी है कि हर चीज नहीं होने वाली है, हर बार सफलता नहीं मिलने वाली है लेकिन अगर आप अपने दिल के प्रति ईमानदार रहें और फिर फेल हों तो उसे स्वीकार करना आसान होता है बजाय उसके कि आपको दिल मना कर रहा हो और आप वो काम करते जाएं. इसका कोई परिमाप नहीं है लेकिन जो भी आ रहा है सामने, उसे आप लेते जाएं. वाकई? भारत वो देश है जिसने शून्य की संकल्पना की. हम सबसे प्राचीन और बुद्धिमत्तापूर्ण सभ्यताओं में से हैं. भीतर की ओर यात्रा के लिहाज से हमारे इतिहास में किसी भी अन्य स्थान के मुकाबले ज्यादा गहराई है. और मुझे लगता है कि अभी हम ऐसा देश हैं जो बहुत ज्यादा बाहर की ओर देखने लगे हैं. अगर हम अपनी जड़ों की ओर लौटें तो वहां बहुत समझदारी मिलेगी. जैसे 10 या 15 हजार साल पू्र्व या 5000 साल पूर्व जब योग की रचना की गई.