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भारत में निजी संपत्ति पर लगता था 'विरासत टैक्स', राजीव गांधी सरकार ने खत्म क्यों कर दिया?

ANI को दिए बयान में कांग्रेस ओवरसीज़ के अध्यक्ष सैम पित्रौदा ने साफ़ किया था कि भारत में ऐसा कोई क़ानून नहीं है, लेकिन ये पूरा सत्य नहीं.

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भारत में लगने वाला विरासत टैक्स, एस्टेट ड्यूटी ऐक्ट के तहत आता था. (फ़ोटो - आर्काइव)

संपत्ति और संपत्ति पर लगने वाला टैक्स – लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस और भाजपा के बीच का हॉट टॉपिक. जब से कांग्रेस ओवरसीज़ के अध्यक्ष सैम पित्रौदा ने वेल्थ डिस्ट्रीब्यूशन का जिक्र किया है, तब से निजी संपत्ति पर सियासत तेज़ है. पित्रौदा ने अमेरिका के विरासत टैक्स का उदाहरण मात्र दिया, कि बवाल खड़ा हो गया. भाजपा के निशाने पर आ गए, कांग्रेस ने दूरी बना ली और ख़ुद भी सफ़ाई देनी पड़ी. हालांकि, ANI को दिए बयान में पित्रौदा ने साफ़ किया था कि भारत में ऐसा कोई क़ानून नहीं है. तथ्य ये है कि अभी नहीं है, मगर कभी था.

भारत में 'था' क़ानून

संपदा शुल्क अधिनियम, 1953. अंग्रेज़ी में, Estate Duty Act. इसके मुताबिक़, किसी व्यक्ति की मृत्यु के समय संपदा शुल्क लगता था. ये एक क़िस्म का टैक्स था, जो तभी लगता था जब विरासत में मिली संपत्ति का कुल मूल्य बहिष्करण सीमा से ज़्यादा हो. भारत में इस सीमा को भी 85% पर तय किया गया था. चल और अचल संपत्ति, इसके दायरे में आती थी. मसलन, ज़मीन, घर, निवेश, नकदी, गहने और अन्य संपत्तियां.

एस्टेट ड्यूटी ऐक्ट के प्रबंधन का ज़िम्मा था, केंद्रीय डायरेक्ट टैक्स बोर्ड (CDBT) के पास. उद्देश्य था, कि आय की बराबरी सुनिश्चित हो और सरकार के लिए राजस्व जुटे.

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कैसे जोड़ा जाता था कि कितना टैक्स लगेगा? संपत्ति के मूल्य और मृतक के साथ उत्तराधिकारी के संबंध के आधार पर बकाया तय किया जाता था. कुछ छूट भी दी जाती थी. एक निश्चित सीमा से नीचे की संपत्तियों पर टैक्स बोझ कम करने के लिए.

1953 में ऐक्ट बना था और आने वालों सालों में इसमें कई संशोधन किए गए. जवाबदेह व्यक्ति की परिभाषा बदली गई, सीमा को कम किया गया और टैक्स स्लैब में भी बदलाव किए गए.

साल 1985 में राजीव गांधी सरकार ने इस क़ानून को ख़त्म कर दिया था. प्रशासनिक मुश्किलों, अनुपालन के मुद्दों और इस धारणा का हवाला देते हुए कि इसकी वजह से संपत्ति का फ़्री ट्रांसफ़र बाधित हो रहा है. राजीव गांधी कैबिनेट में वित्त मंत्री और आने वाले सालों में देश के प्रधानमंत्री बने वीपी सिंह ने अपने बजट भाषण में कहा था,

संपत्ति कर और संपत्ति शुल्क क़ानून, दोनों ही मृत व्यक्तियों और उनकी संपत्ति से संबंधित हैं. दो अलग-अलग क़ानूनों के होने से प्रक्रिया भारी हो जाती है. टैक्सपेयर्स और उत्तराधिकारियों को दो अलग-अलग क़ानूनों के प्रावधानों का पालन करना पड़ता है.

मेरा विचार है कि संपत्ति शुल्क उन दो उद्देश्यों को पूरा नहीं कर पाया, जो तय किए गए थे – धन की ग़ैर-बराबरी को कम करना और राज्यों को उनकी विकास योजनाओं में वित्तीय सहायता देना. इसलिए मैं 16 मार्च, 1985 या उसके बाद होने वाली मौतों पर संपत्ति के ट्रांसफ़र पर लगाए जाने वाले संपत्ति शुल्क को समाप्त करने का प्रस्ताव देता हूं.

इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट में भी छपा है कि भारत में इनहेरिटेंस टैक्स अपना काम नहीं कर पा रहा था. मिसाल के लिए, 1984-85 में कुल 20 करोड़ का संपदा शुल्क जुटाया गया था, मगर इसे इकट्ठा करने की लागत बहुत ज़्यादा थी क्योंकि इसकी गणित बहुत जटिल होती थी. बहुत मुक़दमेबाज़ी होती थी.

तब से देश में कोई राष्ट्रव्यापी संपत्ति शुल्क या विरासत टैक्स नहीं लगाया गया है. हालांकि, इसके ख़त्म होने के बाद भी विरासत टैक्स का विचार जीवित रहा. आधिकारिक और अनौपचारिक चर्चाओं का हिस्सा रहा.

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दिसंबर 2018 में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कह दिया था कि विकसित देशों में विरासत टैक्स की वजह से अस्पतालों, विश्वविद्यालयों और अन्य संस्थानों को मदद मिलती है. 

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