जापानी एयरफोर्स ने 20 दिसंबर को ही कलकत्ता पर बम गिराया था. ये फिल्म इसी बैकड्रॉप में बनी थी.
कांग्रेस और गांधीजी पहले तो लड़ाई में ब्रिटेन का सपोर्ट नहीं कर रहे थे. फिर करने लगे. सुभाष चंद्र बोस जापान और जर्मनी के साथ वार्ता कर रहे थे. लग रहा था कि इन लोगों के साथ मिलकर ब्रिटिश राज से छुटकारा हो जाएगा. पर जैसे-जैसे लड़ाई आगे बढ़ी, लोगों को ये अंदाजा हो गया था कि जापानी ज्यादा खराब हैं. उनका अलग ही गुरूर था. बर्मा पर बम गिराये. कब्जा किये. खबर आई कि हिंदुस्तानी सैनिकों को मार के खा रहे हैं. ब्रिज बना रहे हैं. लोग बीमार पड़ जा रहे हैं, तो उसी में दबा दे रहे हैं. वहीं से हिंदुस्तान में कहानी चल पड़ी कि पुल बनता है तो जान मांगता है. बचपन में लोग डराते रहते थे कि पुल बनना शुरू होता है तो लोग बच्चों को किडनैप कर के ले जाते हैं. वहीं बलि देते हैं तो पुल सही बनता है. नहीं तो गिर जाता है.
जापानियों को भारत की स्वतंत्रता से कोई मतलब नहीं था. उनको बस अपना राज फैलाना था. 20 दिसंबर 1942 को जापानी एयरफोर्स के 8 बॉम्बर प्लेनों ने कलकत्ता पर बम गिराना शुरू कर दिया. पर ये लोग रात को हमला करते थे. क्योंकि कलकत्ता में दिन के समय एयर-डिफेंस बढ़िया था. रात में कोई सुविधा नहीं थी.

एक अंग्रेज अफसर का लैटर
बम गिराने में एक होटल द ओल्ट ईस्टर्न होटल बर्बाद हो गया था. वो होटल आज भी है. उसी में डिटेक्टिव व्योमकेश बख्शी के कुछ हिस्से शूट हुए थे.
तो बॉम्बिंग से बहुत ज्यादा नुकसान नहीं हो पाया था. क्योंकि लगातार नहीं हो पाता था. पर भगदड़ बहुत ज्यादा मच गई. लोग शहर छोड़-छोड़ के भागने लगे. इसमें ज्यादा लोग मर गए. हालांकि सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक कम लोग मरे थे. ये संख्या 500 थी. शायद उसी वक्त से इसको 'कम' ही माना जाता है. मतलब ये गजब है. 500 सौ लोगों की मौत कम होती है.
हेनरी सैकेडा की किताब के मुताबिक एक जापानी पायलट अकामात्सु बड़े ड्रामे करता था. कहता था कि जब होश में था तब 250 रेड मारी. नशे में 350.

तब तक जापान की एयरफोर्स को ब्रिटिश अफसर बेकार मानते थे. उनको लगता था कि जापानी इनकी ही नकल कर के काम करते हैं. यहां पता चला कि जापानी तकनीक नई है. इसके बाद लड़ाई का तरीका बदला गया.
ये स्टोरी 'दी लल्लनटॉप' के लिए ऋषभ ने की थी.