पेंट के इश्तेहार ने हमें बताया - हर घर कुछ कहता है. लेकिन क्या सारे घरों, मुहल्लों, देशों, उपमहाद्वीपों और हमारी पृथ्वी का घर - ये ब्रह्मांड भी कुछ कहता है? 'व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी' पर मैसेज आते हैं कि ब्रहमांड ओम की आवाज कर रहा है.
ब्रह्मांड गूंज रहा है, आपने सुना?
मर चुके तारों से निकली आवाज़ों ने वैज्ञानिकों को बताया कि ब्रह्मांड की भाषा कैसी सुनाई देती है.

ओम की आवाज का तो पता नहीं, लेकिन इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, हैदराबाद (IITH) के रिसर्चर्स ने ये खोज निकाला है कि हमारा यूनिवर्स, लगातार गूंजने की आवाज कर रहा है. ये शोधकर्ता उस इंटरनेशनल टीम का हिस्सा थे, जिसने ये खोज की है.
नोट- IIT हैदराबाद की कोई व्हाट्सऐप ब्रांच नहीं है.
5 जुलाई, 2023 को IIT, हैदराबाद द्वारा जारी की गई मीडिया रिलीज के मुताबिक, यहां के कुछ रिसर्चर्स, इंडिया, जापान और यूरोप के एस्ट्रोनॉमर्स की एक टीम में शामिल थे. संस्थागत रूप से कहें तो भारत के इंडियन पल्सर टाइमिंग एरे (InPTA) और यूरोप पल्सर टाइमिंग एरे (EPTA) के लोग इसमें शामिल थे. ये संस्थाएं ग्रैविटेशनल वेव्स की रिसर्च में लगी हुई हैं.
इस इंटरनेशनल टीम ने भारत, जापान और यूरोप के सबसे शक्तिशाली 6 रेडियो टेलीस्कोप्स का इस्तेमाल करके पल्सर्स को मॉनिटर किया. इनमें भारत का सबसे बड़ा टेलीस्कोप uGMRT भी शामिल था. पहले तो पल्सर्स क्या हैं ये समझ लीजिए.
पल्सर - बजाज वाला नहीं, ब्रह्मांड वालापूरी फिज़िक्स तो यहां नहीं बता सकते. लेकिन इतना समझिए कि पल्सर्स भी कभी तारे थे. वक्त पूरा हुआ, और अपने भीतर सिकुड़ गए. तारे की मौत हुई. और तब जन्म हुआ पल्सर का. ये पूरी तरह न्यूट्रॉन के बने होते हैं. ब्लैक होल अब तक इंसान को पता चली सबसे डेंस चीज़ है. दूसरा नंबर पल्सर का ही है. ये मृत तारे लगातार अपनी जगह पर तेजी से घूमते रहते हैं. और घूमते-घूमते ये इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स हर दिशा में फेंकते रहते हैं. हर रोटेशन पर आप एक बार इन वेव्स को पकड़ सकते हैं. इसीलिए देखने वाले (माने धरती पर बैठे वैज्ञानिक) के लिए ये एक पल्स की तरह सिग्नल भेजते हैं. वैसे ही, जैसे जहाज़ के लिए एक लाइट हाउस होता है. कि जब आपकी दिशा में सिग्नल आया, तो आपने उसे रिकॉर्ड कर लिया.
पल्सर से आने वाली वेव्स की मदद से ग्रैविटेशनल वेव्स को मापा जाता है. पल्सर्स को प्रकृति की सबसे अच्छी घड़ी कहा जाता है. क्योंकि बड़े टाइमस्केल यानी जहां बहुत लंबा समय मापना हो (जैसे अरबों-खरबों वर्ष) वहां पल्सर टाइमिंग नाम की एक तकनीक से वक़्त का मेजरमेंट एटॉमिक क्लॉक से भी सटीक होता है. इस तकनीक में पल्सर्स से आने वाली पल्स (यानी रेडिएशन) को मापा जाता है. पल्सर्स के कई और फायदे भी हैं. मसलन- पल्सर्स की मदद से स्पेसक्राफ्ट्स को नेवीगेशन की सुविधा भी दी जा सकती है.
पल्सर्स की मॉनिटरिंग से इस बात के सुबूत मिले हैं कि ब्रह्मांड में लगातार एक तरीके का वाइब्रेशन यानी कंपन हो रहा है. टेलीस्कोप पर इस वाइब्रेशन को सुना गया. आप पूछेंगे कि भैया टेलिस्कोप तो देखने का औज़ार है, इससे भला कोई सुन कैसे सकता है?
हां, टेलिस्कोप सिर्फ देखते नहीं, सुनते भी हैंतो सीन ये है, कि टेलिस्कोप की मदद से हम ब्रह्मांड में दूर तक देखना चाहते हैं. लेकिन देखने का सिर्फ एक ही तरीका हो, ये तो ज़रूरी नहीं है. विज़िबल लाइट वास्तव में एक ऐसी रेडिएशन या तरंग है, जिसे हमारी आंखें पकड़ सकती हैं. इसी को हम सामान्य तरीके से देखना कहते हैं. लेकिन इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक स्पेक्ट्रम सिर्फ हमें नज़र आने वाली तरंगें नहीं हैं. बहुत बड़ी वेवलेंथ वाली तरंगें भी हैं. यही हैं रेडियो वेव्स. वैसी वेव्स, जिनपर सवार होकर आपके रेडियो तक गाना चला आता है.
ब्रह्मांड में जितने तारे हैं, वो दिखने वाले प्रकाश के साथ-साथ रेडियो वेव भी पैदा करते हैं. और धरती पर एंटीना लगाकर इन रेडियो वेव्स को पकड़ा जा सकता है. यही बड़े-बड़े एंटीना कहलाते हैं रेडियो टेलिस्कोप. ये ब्रह्मांड को सुनते हैं. और जो सुनाई आता है, उसके आधार पर एक समझ पैदा होती है, या कह सकते हैं एक तस्वीर हमारे सामने आती है. इनकी मदद से ब्रह्मांड की पढ़ाई को कहते हैं रेडियो एस्ट्रोनॉमी.
ये काम भारत में भी होता है. हमारा सबसे बड़ा रेडियो टेलिस्कोप (सिस्टम) uGMRT पुणे में है. इसका पूरा नाम है - अपग्रेडेड जायंट मीटरवेव रेडियो टेलिस्कोप. यहां सिर्फ एक एंटीना/टेलिस्कोप नहीं है. एक एरे है. माने ढेर सारे एंटीने. 45 मीटर डायामीटर वाले 30 बड़े-बड़े एंटीने, जो 25 किलोमीटर के इलाके में फैले हैं. ये सब मिलकर एक ऐसा टेलिस्कोप बनाते हैं, जो बहुत कम फ्रीक्वेंसी की (माने बड़ी वेवलेंथ वाली) रेडियो वेव को भी पकड़ सकते हैं. सादी भाषा में कहें तो हमारा टेलिस्कोप, उस आवाज़ को भी सुन सकता है, जो ब्रह्मांड में बहुत दूर से आती है, इसीलिए उसकी आवाज़ बहुत धीमी है.
ग्रैविटेश्नल वेव्स, रेडियो वेव्स से काफी अलग होती हैं. लेकिन रेडियो एस्ट्रॉनमी से इन्हें भी समझा जा सकता है.
कंपन कहां से आ रहा है?ये वाइब्रेशन कहां से आ रहा है? इसकी वजह है- बहुत कम फ्रीक्वेंसी वाली ग्रैविटेशनल वेव्स यानी गुरुत्वीय तरंगें. ग्रैविटेशनल वेव्स का सिद्धांत महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन ने अपनी जनरल रिलेटिविटी की थ्योरी में बताया था. उस थ्योरी की चर्चा फिर कभी, फ़िलहाल यूं समझ लीजिए कि ग्रैविटेशनल वेव्स के सिद्धांत से हमारी अंतरिक्ष की समझ कुछ और बढ़ गई है. ग्रैविटेशनल वेव्स की वेवलेंथ कई लाख किलोमीटर की होती है. और जिस तरंग की जितनी ज्यादा वेवलेंथ, उसकी उतनी ही कम फ्रीक्वेंसी. जिसे हर्ट्ज़ में मापते हैं. इसीलिए ग्रैविटेशनल वेव्स को नैनो-हर्ट्ज़ ग्रैविटेशनल वेव्स भी कहते हैं.
अब सवाल ये है कि ये वेव्स उठ कहां से रही हैं? माने अगर आप एक बड़ी सी रस्सी लें और उसका एक सिरा पकड़ कर ऊपर-नीचे हिलाना शुरू करें तो ही कंपन/लहर रस्सी के दूसरे छोर तक जाएगी. उसी तरह इन ग्रैविटेशनल वेव्स का भी कोई तो सोर्स होगा?
IIT, हैदराबाद की रिलीज के मुताबिक, माना जाता है कि ऐसी वेव्स, सूरज से करोड़ों गुना बड़े, कई सारे मॉन्स्टर ब्लैकहोल (बहुत बड़े ब्लैकहोल) के 'नाचने से' उठती है. नाचने का मतलब यहां यूं समझिए कि ब्लैकहोल, इस ब्रह्मांड में एक ऐसा भयंकर/बहुत ज्यादा ग्रैविटी वाला बहुत बड़ा सा इलाका होता है, जिसके आस-पास धोखे से भी अगर लाखों पृथ्वी, करोड़ों सूरज या कई आकाशगंगाएं पहुंच जाएं तो ब्लैकहोल की ग्रैविटी इन सबको एक फुटबॉल भर जगह में पिचका देगी. इस ब्लैकहोल में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जिसकी वजह से रेडिएशन निकलती हैं. ब्लैकहोल अपना आकार बदलता है. और भी बहुत कुछ, जो साइंटिस्ट खोज रहे हैं. रिलीज के मुताबिक, मॉन्स्टर ब्लैकहोल के पेयर्स (जोड़े) के बीच में कई आपस में टकराती हुई आकाशगंगाएं हैं. और इसीलिए इन ब्लैकहोल्स से तरंगें निकल रही हैं. इन ग्रैविटेशनल वेव्स की लगातार आती हुई आवाज ही अंतरिक्ष की एक परसिस्टेंट यानी स्थायी तरह की Humming Sound या गुंजन है. माने अंतरिक्ष इन्हीं वेव्स के चलते ‘गूंज’ सा रहा है.
रिसर्चर्स की टीम ने रिसर्च के रिजल्ट को एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स जर्नल में छापा है. इस रिजल्ट में 25 सालों के पल्सर डेटा पर की गई एनालिसिस भी शामिल की गई है.
रिसर्चर्स ने क्या कहा?IIT हैदराबाद से इस रिसर्च टीम में फिजिक्स और आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट में पढ़ा रहे डॉ. शांतनु देसाई थे. इनके अलावा फिजिक्स से ही PhD कर रहे अमन श्रीवास्तव, इंजीनियरिंग फिजिक्स से ग्रेजुएट दिव्यांश खरबंदा और इंजीनियरिंग के स्टूडेंट श्वेता अरुमुगम और प्रग्ना शामिल थे.
टीम की सफलता के बारे में प्रोफ़ेसर शांतनु कहते हैं,
"मैं इस बात को लेकर बहुत उत्साहित हूं कि IIT हैदराबाद के फिजिक्स और इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के स्टूडेंट्स इस ऐतिहासिक खोज का हिस्सा बने. ये कई वैज्ञानिकों की सालों की कड़ी मेहनत का नतीजा है. मैं कृतज्ञ हूं कि IIT हैदराबाद का सहयोग लिया गया. IIT हैदराबाद की नेशनल सुपरकंप्यूटिंग मिशन फैसिलिटी 'परम सेवा' के सहयोग के बिना ये परिणाम आना संभव नहीं था."
IIT हैदराबाद की तरफ से ये भी कहा गया कि रिसर्च से जो परिणाम और डाटा सामने आए हैं, उम्मीद है कि ये बहुत काम के हैं. और वैज्ञानिक ग्रैविटेशनल वेव के बैकग्राउंड की चीजें समझने को उत्साहित हैं. वो घटनाएं जो ब्रह्मांड की शुरुआत में घटी होंगी उन्हें समझने की कोशिश की जाएगी.
वीडियो: एस्ट्रोनॉमर्स सोच रहे हैं कि इतना भारी ब्लैक होल गया कहां!