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थोक महंगाई में लगी आग की आंच आपकी जेब से लेकर बैंक बैलेंस तक कैसे पहुंचती है?

थोक और खुदरा महंगाई दर का गणित आज समझ लो.

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उपभोक्ता वस्तुओं की सांकेतिक तस्वीर (साभार: आज तक)
होलसेल महंगाई रिकॉर्ड लेवल पर पहुंच गई है. सरकारी भाषा में कहें तो पिछले आठ महीनों से लगातार दोहरे अंकों में बढ़ता चला आ रहा थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale Price Index- WPI) नवंबर में 14.23 फीसदी हो गया. यह अक्टूबर में 12.54 फीसदी था. लेकिन एक साल पहले यानी नवंबर 2020 में ये इंडेक्स 2.29 फीसदी ही था. इसकी बढ़ती आंच को इस तरह महसूस करें कि खुद सरकार ने इसे पिछले 12 साल का सबसे ऊंचा स्तर करार दिया है. जबकि ब्लूमबर्ग के एक सर्वे की मानें तो यह बीते तीन दशक में यानी दिसंबर 1991 के बाद की सबसे बड़ी महंगाई दर है.
अब आपके जेहन में यह सवाल उठ रहा होगा कि एक दिन पहले ही सरकार ने उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (Consumer Price Index) पर आधारित खुदरा महंगाई दर का आंकड़ा जारी किया था. वह 6.9 फीसदी बताई गई, जबकि थोक महंगाई दर 14.23 फीसदी है. इन दोनों के बीच इतना अंतर क्यों है? और वैसे भी जब हमारा सरोकार खुदरा मूल्यों से ही है तो हम थोक महंगाई का मातम क्यों मनाएं?
आपकी सोच इस लिहाज से तो सही है कि आप जो अंतिम कीमत चुकाते हैं, उसी की महंगाई आपके लिए मायने रखती है. कई मायनों में सरकारी नीतियां, खासकर आरबीआई की ब्याज दरें भी इस खुदरा मूल्य से ही तय होती हैं. लेकिन यह समझना जरूरी है कि थोक महंगाई दर कोई बिल्कुल अलहदा चीज नहीं है और न ही 6.9 प्रतिशत की खुदरा महंगाई दर कम है.
मोटे तौर पर समझिए कि थोक महंगाई दर आने वाले समय में खुदरा महंगाई दर का मैप दिखाती है. अगर थोक महंगाई दर लगातार बढ़ रही है तो खुदरा महंगाई भी बढ़ेगी ही, बशर्ते कि अचानक बीच में कोई उतार-चढ़ाव न हो जाए. यहां हम आपको बताएंगे कि कैसे दोनों महंगाई दर अलग-अलग होकर भी एक दूसरे से जुड़ी हैं. साथ ही यह भी कि इनका असर केवल आपकी रसोई और जेब पर नहीं होता. महंगाई दर की जद में आपका बैंक बैलेंस, निवेश और वित्तीय योजनाएं भी होती हैं. दोनों महंगाई दरों में अंतर क्यों? पहला, इतना तो आप अंदाजा लगा ही चुके होंगे कि थोक महंगाई दर सिर्फ थोक कीमतों से ताल्लुक रखती है. इकनॉमी की भाषा में इसे 'फैक्ट्री गेट प्राइस' कहते हैं. यानी उस सामान की कीमत में सिर्फ उसे बनाने में आने वाली लागत शामिल होती है. उस पर लगने वाला टैक्स, ट्रांसपोर्टेशन, वितरक या खुदरा व्यापारी का मार्जिन और अन्य खर्चे शामिल नहीं होते. जैसे-जैसे ये खर्चे जुड़ते जाते हैं, उस सामान की कीमत भी बढ़ती जाती है. मसलन लॉकडाउन के दौरान जब यातायात बंदिशें बढ़ गईं और सामान की ढुलाई सहित अतिरिक्त खर्चे बढ़ गए तब थोक मूल्य सूचकांक के मुकाबले खुदरा मूल्य सूचकांक ज्यादा तेजी से बढ़ रहा था.
दूसरा, थोक महंगाई दर सिर्फ सामान (Goods) की कीमत पर नजर रखती है, जबकि खुदरा महंगाई दर में सामान के साथ-साथ सेवाओं (Services) की कीमत भी शामिल होती है. मतलब यह कि खुदरा महंगाई दर आपके मोबाइल, एंटरटेनमेंट से लेकर यात्रा, स्कूल फीस, घर का किराया और मेडिकल खर्चों को भी ट्रैक करती है.
तीसरा, दोनों ही इंडेक्स के अपने-अपने बास्केट (Basket) और वेटेज (Weightage) होते हैं. यानी वे कितने तरह के सामान को किस हद तक ट्रैक करते हैं. मसलन, होलसेल महंगाई दर यानी WPI के बास्केट में 65 प्रतिशत मैन्युफैक्चरिंग गुड्स होते हैं. इनमें कार, टीवी, मोबाइल, कपड़े से लेकर भारी मशीनरी और पूंजीगत सामान शामिल होते हैं. लेकिन अनाज, फल-सब्जियों जैसे खाद्य सामान और गैस जैसी चीजों को यह अपने बास्केट में सिर्फ 20 प्रतिशत स्पेस या कह लें कि तरजीह देता है. ईंधन और बिजली को 13 प्रतिशत जगह मिली है. दूसरी ओर, खुदरा या उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) के बास्केट में खाद्य सामग्री को आधे से ज्यादा वेटेज मिला होता है.
चौथा, होलसेल इंडेक्स के बास्केट में पेट्रोलियम सहित कई ऐसी चीजें हैं, जिन पर अंतरराष्ट्रीय बाजार और कीमतों का सीधा असर होता है. कई बार ऐसा भी होता है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम लगातार बढ़ते या घटते रहते हैं, लेकिन देश में केंद्र या राज्य सरकारों की ओर से एक्साइज और वैट बढ़ाने, घटाने या कोई बदलाव नहीं करने से होलसेल और खुदरा महंगाई दर में काफी अंतर आ जाता है.
पांचवा, जहां थोक महंगाई दर के आंकड़े वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय की ओर से जारी होते हैं, वहीं खुदरा महंगाई दर के आंकड़े सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय (MoSPI) की ओर से जारी होते हैं. दोनों ही मूल्य सूचकांकों की बनावट और प्रक्रिया में काफी अंतर है.
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सांकेतिक तस्वीर
थोक महंगाई दर क्यों मायने रखती है? वैसे तो महंगाई मापने में CPI आधारित खुदरा दर को ही अहमियत दी जाती है. मसलन, आरबीआई अपनी मौद्रिक नीति (ब्याज दरें घटाई जाएं या बढ़ाई जाएं) तय करने में इसी को आधार बनाता है. लेकिन थोक महंगाई दर वस्तुओं की कीमत में होने वाले बुनियादी उतार-चढ़ाव को दर्शाती है. अगर इंटरमीडियरीज स्तर पर बहुत बदलाव न हों, यानी वस्तु की लागत में अतिरिक्त इजाफा न हो तो आप कह सकते हैं कि थोक महंगाई दर पहले ही सूचना दे देगी कि आम उपभोक्ता के लिए फलां सामान महंगा या सस्ता होने जा रहा है.
कई बार खुदरा मूल्य सूचकांक में ज्यादा वेटेज पाने वाली चीजों, जैसे खाद्य सामग्री की कीमतों में आने वाली बड़ी तेजी भी थोक सूचकांक को प्रभावित करती है. जैसा कि नवंबर में आई थोक महंगाई दर के आंकड़े (14.2 फीसदी) के साथ हुआ है. यह भी संकेत है कि खुदरा मूल्यों में आगे तेजी रहेगी. नवंबर की तेजी के पीछे मुख्य रूप से सब्जियों, खनिज और पेट्रोलियम उत्पादों की महंगाई को वजह बताया जा रहा है. इसके बास्केट में खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति नवंबर में बढ़कर 4.88 फीसदी हो गई, जो एक महीने पहले माइनस (-1.69 फीसदी) में थी.
नवंबर में कच्चे पेट्रोलियम की महंगाई दर 91.74 फीसदी रही, जो अक्टूबर में 80.57 फीसदी थी. थोक महंगाई दर में इजाफा इस बात का भी संकेत है कि मैन्युफैक्चरर इनपुट लागत को दाम बढ़ाकर ग्राहक की ओर ट्रांसफर करने लगे हैं. यह संकेत यह जानने के लिए काफी है कि खुदरा महंगाई भी थोड़ी देर से ही सही, बढ़ेगी.
थोक मूल्य सूचकांक की अहमियत इस रूप में भी देखिए कि मौजूदा आंकड़ों के आधार पर ही अर्थशास्त्री कहने लगे हैं कि फिलहाल कम महंगाई दर का दौर खत्म हो चला है. दिसंबर में आंकड़े और ऊपर का रुख करेंगे. इसके पीछे वे क्रूड ऑयल से लेकर दूसरे देशों के महंगाई आंकड़ों का हवाला दे रहे हैं. मसलन, ब्रेंट क्रूड 84 डॉलर प्रति बैरल के उच्चतम स्तर से नीचे तो गिरा लेकिन काफी समय से 72 डॉलर के ऊपर बना हुआ है. इसके अलावा यूरोप और अमेरिका में ओमिक्रॉन संकट के चलते भी कई रॉ मटीरियल का आयात प्रभावित होने वाला है. जेब ही नहीं जमा पर भी असर महंगाई दर का एक विशुद्ध नाम है- मुद्रास्फीति. इसी में इसकी सबसे साफ तस्वीर छिपी होती है. इसका मतलब है करंसी की कीमत का घट जाना. मसलन, 30 रुपये किलो मिलने वाला टमाटर अगर 60 रुपये किलो हो गया तो इसे इस रूप में देखिए कि पहले जिस 60 रुपये में दो किलो टमाटर मिलते थे, अब एक किलो मिल रहे हैं. यही अवमूल्यन आपके बैंक जमा और निवेश पर भी असर डालता है.
मान लीजिए आपने बैंक में एक साल के लिए 1 लाख रुपये फिक्स्ड डिपॉजिट किए, जिस पर 6 प्रतिशत ब्याज मिलना है. अब आप मानकर चल रहे हैं एक साल बाद 6 हजार रुपये रिटर्न जोड़कर आपको 1 लाख 6 हजार रुपये मिलेंगे. उस साल अगर महंगाई दर 6 प्रतिशत रही तो सीन बदल जाएगा. आपकी नजर में आपको 1 लाख 6 हजार मिले. लेकिन चूंकि चीजों के दाम भी उसी दर से बढ़े हैं, इसलिए बाजार में आपके 1 लाख 6 हजार की कीमत असल में 1 लाख ही है. यानी एक साल पहले 1 लाख रुपये में जो सामान आप खरीद सकते थे, अब वह 1 लाख 6 हजार में मिलेगा. इस तरह से अगर महंगाई दर 8 पर्सेंट हो जाती तो आपको असल में फायदे की जगह नुकसान होता और आपके जमा की कीमत बाजार की नजरों में 1 लाख से भी कम रह जाती. महंगाई से तय होती हैं ब्याज दरें महंगाई काबू करने के लिए सरकारें अक्सर ब्याज दरें बढ़ा देती हैं. इससे बाजार में लिक्विडिटी घट जाती है, यानी खर्च करने वालों के हाथ में रकम कम आती है. इससे भी महंगाई घटाने में मदद मिलती है. लेकिन यहां मामला इतना एकतरफा नहीं होता. महंगाई बढ़ने के अपने कारण होते हैं और कई बार महंगाई ही आरबीआई की दरें तय करती है. आज जब भारत में पिछले आठ महीनों से लगातार महंगाई बढ़ रही है, आरबीआई पर दबाव बढ़ गया है कि वह नीतिगत दरों (Repo rate) में इजाफा करे.
लेकिन सरकारों की भी अपनी मजबूरी होती है. ब्याज दर बढ़ाने से महंगाई तो काबू हो जाएगी, पर इसका उल्टा असर भी हो सकता है. इकनॉमी में पूंजी की कमी होगी तो उत्पादन और सप्लाई पर भी असर होगा. सप्लाई घटेगी तो फिर कीमतें बढ़ने लगेंगी. ऐसे में सरकार और केंद्रीय बैंकों को फूंक-फूंककर चलना होता है. सप्लाई और डिमांड को अच्छी तरह परखने के बाद ही दरें बढ़ाई या घटाई जाती हैं.

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