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गिलानी बंधुओं की गद्दारी और विजयनगर साम्राज्य का खात्मा!

सुन्नी सुल्तानों ने चिट्ठी भेजी कि हमला नहीं करेंगे और सारा हम्पी शहर जला डाला

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तालीकोटा का युद्ध (फोटो सोर्स - twitter)

आसमाँ इतनी बुलंदी पे जो इतराता है भूल जाता है ज़मीं से ही नज़र आता है

वसीम बरेलवी का ये शेर विजयनगर साम्राज्य पर एकदम सटीक बैठता है. इतिहास के जानकारों की मानें तो सदाशिव राय सिर्फ़ नाम के राजा थे, असली ताकत तो उनके मंत्री और महाराजा कृष्णदेव राय के दामाद राम राय के हाथों में थी. जिन्हें उस समयआलियाकहकर बुलाया जाता था. दरअसल ‘आलिया’ कन्नड़ भाषा का शब्द है जिसका मतलब हिंदी में होता है बेटी का पति यानी कि दामाद.

यूं तो राजा सदाशिव भी गजब के तिकड़मबाज़ थे. दक्कन की ऊपरी मुस्लिम सल्तनतों को आपस में भिड़वाकर पूरे दक्षिण भारत पर कब्ज़ा चाहते थे. लेकिन जब खुद की किस्मत खराब हो तो दूसरों का क्या दोष? दक्कन की सल्तनतों को सदाशिव के इन मंसूबों का पता लग गया और उन सब ने आपस में दोस्ती कर ली. अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुंडा और बीदर (जो आज के कर्नाटक राज्य में आता है) ये वो सल्तनतें थीं जो इस अलायन्स का हिस्सा बनीं.  सबने मिलकर सदाशिव के साम्राज्य विजयनगर पर हमला बोल दिया. और सदाशिव राय की कमजोर नीति के चलते दक्षिण भारत के अंतिम हिन्दू साम्राज्य विजयनगर का अंत हो गया. आज कहानी उसी विजयनगर साम्राज्य की जिसकी नींव दो भाइयों हरिहर प्रथम और बुक्का ने मिलकर रखी थी. उसी विजयनगर साम्राज्य के अंत की जिसने कृष्णदेव राय जैसा कीर्तिवान राजा भी देखा और सदाशिव राय जैसा कमज़ोर कठपुतली शासक भी.


बहमनी सल्तनत

दक्कन की पहली इंडिपेंडेंट सुन्नी मुस्लिम सल्तनत ‘बहमनी’ मूलरूप से पर्शियन थी. 1347 में अलाउद्दीन ख़िलजी के एक दरबारी के भतीजे ज़फर खान ने इसकी नींव गुलबर्गा (जो आज कलबुर्गी कहलाता है) में रखी थी. ज़फर का असली नाम अलाउद्दीन बहमन शाह था जिसे हसन गंगू के नाम से भी जाना जाता है. ये सल्तनत ज़्यादातर अपने उन युद्धों को लेकर फेमस रही जो विजयनगर एम्पायर के हिन्दू राजाओं के साथ लड़े गए. साल 1347 से 1517 तक बहमनी सल्तनत ने दक्कन में खूब मनमानी की. लूट-खसोट, मार-काट. लेकिन साल 1509 में स्थितियां तब बदलीं जब कृष्णदेव राय विजयनगर साम्राज्य के राजा बने.


राजा कृष्णदेव राय (photo Source Wikimedia Commons)
राजा कृष्णदेव राय (फोटो सोर्स- Wikimedia Commons)

1518 में हुए युद्ध में कृष्णदेव राय ने बहमनी सल्तनत को बुरी तरह हराया. बहमनी सल्तनत बिखर गई. और बिखर कर पांच छोटी सल्तनतें बनीं- अहमदनगर, गोलकुंडा, हैदराबाद, बीदर और बीजापुर. विजयनगर साम्राज्य पर कृष्णदेव राय का शासन बहुत छोटा रहा, केवल 20 वर्ष का. लेकिन विजयनगर साम्राज्य के लिए ये काफ़ी महत्वपूर्ण रहा.


कृष्णदेव राय की मौत

कृष्णदेव राय बेलग़ाम पर हमला करने की बिसात बिछा रहे थे. बेलग़ाम उस समय आदिल शाह के कब्ज़े में हुआ करता था. लेकिन 17 अक्टूबर 1529 को अचानक कृष्णदेव राय को तेज़ बुखार आया और उनकी मौत हो गई. कृष्णदेव राय के बाद कई राजा आए. अच्युत राय, वेंकट राय और फिर 1542 में विजयनगर के राजा बने सदाशिव राय, जो कि इतिहासकारों के मुताबिक़ एक कठपुतली राजा थे. उधर बहमनी सल्तनत से टूटकर बनीं सल्तनतें विजयनगर साम्राज्य से बदले की आग में झुलस रही थीं. और इस आग को हवा देने का काम किया 1563 के एक वाकये  ने.


युद्ध की नींव अली आदिल शाह (photo Source Wikimedia Commons)
अली आदिल शाह (फोटो सोर्स- Wikimedia Commons)

1563 में बीजापुर सल्तनत के सुल्तान अली आदिलशाह ने विजयनगर साम्राज्य के सामने रायचूर, मुग्दल और अदोनी के किलों को वापस करने की मांग रखी. जो कृष्णदेव राय ने बहमनी सल्तनत को हराकर जीते थे. सदाशिव राय अपने मंत्री राम राय के पास पहुंचे. राम राय ने सोच-विचार करने के बाद आदिलशाह की मांग को ठुकरा दिया. सुल्तान अली आदिलशाह भड़क गए. आदिलशाह ने आनन-फ़ानन में अपने अलायन्स वाली सल्तनतों के सुल्तानों की मीटिंग बुलाई. अहमदनगर के सुल्तान हुसैन निज़ाम शाह प्रथम, गोलकुंडा के सुल्तान और बीदर के सुल्तान की मींटिंग में शामिल हुए. सबने एकमत होकर फैसला लिया कि मौका देखकर विजयनगर साम्राज्य पर हमला बोल दिया जाएगा. 29 दिसंबर 1564 को सल्तनतों की गठबंधन सेना ने अपनी एक टुकड़ी विजयनगर पर हमला बोलने के लिए भेजी. लेकिन विजयनगर की विशाल सेना ने उस टुकड़ी को चंद घंटो में उलटे पैर भागने को मजबूर कर दिया. सुल्तानों को एहसास हुआ  कि उनकी सेना विजयनगर साम्राज्य को घुटनों पर लाने के लिए अपर्याप्त है. कोई और जुगत भिड़ानी पड़ेगी.


छल का सहारा

गठबंधन सल्तनतों के सुल्तानों ने जब रीअलाइज़ किया कि विजयनगर की सेना को सीधे तरीके से युद्ध में हरा पाना लगभग असंभव है तो उन्होंने सहारा लिया छल से युद्ध जीतने का. जनवरी 1565 की शरुआत में गठबंधन सेना के कमांडर ने विजयनगर के कमांडर को एक चिट्ठी भेजी. चिट्ठी में लिखा,


हमारी सेना अभी इतनी तैयार नहीं है कि विजयनगर की विशाल सेना का सामना कर सके. हम अपनी सेना वापस ले जा रहें हैं और हमारा हमला करने का फ़िलहाल कोई मंसूबा नहीं है.'

चिट्ठी को राजा सदाशिव के सामने पेश किया गया. सदाशिव का दिल बाग़-बाग़ हो गया. नगर भर में उत्सव का ऐलान करवा दिया. लेकिन सदाशिव की यह ख़ुशी चंद दिन भी टिक सकी. और जनवरी 1565 के दूसरे हफ्ते से गठबंधन की सेना ने चिठ्टी वाले मैसेज के ठीक उलट विजयनगर पर हमले करने शुरू कर दिए. विजयनगर सेना जब तक संभलती 23 जनवरी आते-आते ये हमले और भी बड़े होते गए


तालीकोटा (Talikota) का युद्ध

23 जनवरी सन 1565 को दोनों सेनाओं के बीच प्रॉपर युद्ध छिड़ गया. इस युद्ध को तालीकोटा के युद्ध के अलावा राक्षिसी तांगड़ी का युद्ध और बन्नीहट्टी के युद्ध के नाम से भी जाना जाता है. ऐसा इसलिए क्योंकि यह युद्ध कर्नाटक में स्थित इन तीनों ही जगहों पर हुआ था. तालीकोटा गांव उत्तरी कर्नाटक में बीजापुर से करीब 80 किलोमीटर दूर दक्षिण पूर्व दिशा में कृष्णा नदी के तट पर स्थित है. राक्षिसी तांगड़ी और  बन्नीहट्टी गांव भी तालीकोटा के क़रीब ही हैं. आमने-सामने के युद्ध में शुरू-शुरू में लगा कि सुल्तानों की सेना विजयनगर सेना से हार रही है. विजयनगर पैदल आर्मी के कमांडर वेंकटदरि की अगुवाई में एक टुकड़ी ने सल्तनतों के गठबंधन सेना की एक टुकड़ी पर बहुत जोरदार हमला किया. सामने था कमांडर वरीद शाह.लगा कि युद्ध अब समाप्त हो गया और विजयनगर साम्राज्य की जीत हुई. लेकिन अभी एक धोखा देना और था. दरअसल यही सल्तनतों की गठबंधन सेना का मास्टरप्लान था.


गिलानी बंधु- 

विजयनगर सेना के ही 2 कमांडर थे दोनों भाई थे. कर्नल अजय सिंह और उनकी पत्नी मोनिका नायक सिंह की किताब ‘India’s Battles from Kurukshetra to Balakot’  के अनुसार एक का नाम नूर खान और दूसरे का बिजली खान था. और विजयनगर साम्राज्य की सेना की मुस्लिम टुकड़ी का प्रतिनिधित्व करते थे.  इन दोनों को गिलानी बंधुके नाम से जाना जाता था.

गिलानी बंधुओं से सुल्तानों की बात तय हो गई थी. विजयनगर साम्राज्य को धोखा देने की बात. सदाशिव राय को इसकी भनक तक नहीं लगी. प्लान था कि युद्ध में जब सल्तनतों की गठबंधन सेना को लगेगा कि वो युद्ध हार रही है तब वो गिलानी बंधुओं को एक सिग्नल देगी और गिलानी बंधु अपनी सेना की टुकड़ी लेकर पाला बदल लेंगे. और ऐसा ही हुआ. 25 जनवरी 1565 को सल्तनतों की सेना ने गिलानी बंधुओं को इशारा किया और दोनों ने अपने पैदल सैनिकों और आर्टिलरी के साथ साइड बदल ली. विजयनगर के सैनिकों को ही मारना शुरू कर दिया. और सल्तनतों की गठबंधन सेना के एक लाख चालीस हज़ार सैनिकों ने गिलानी बंधुओं की टुकड़ी के साथ मिलकर एक ही झटके में युद्ध में अपना हल्का पड़ रहा पलड़ा भारी कर लिया था. (हालाँकि गिरीश कर्नाड कुछ समय पहले ही लिखे अपने प्ले ‘राक्षिसी तांगड़ीमें गिलानी बंधुओं के विश्वासघात करने वाली बात को नकारते हैं) शाम होते-होते सल्तनतों की गठबंधन सेना रास्ते के सभी सैनिकों को मारकर मंत्री राम राय तक पहुंच चुकी थीअहमदनगर के सुल्तान हुसैन निज़ाम शाह ने राम राय का सर धड़ से अलग करके आसमान की तरफ देखा और ज़ोर से चिल्लाते हुए कहा कि,


'ऐ ख़ुदा मैंने अपना बदला पूरा कर लिया अब आगे जो भी सजा देना चाहो सो दो. 

(यहां आदिलशाह कृष्णदेव राय द्वारा गिराई बहमनी सल्तनत के बदले की बात कह रहा था.)

रामराय को मौत के घाट उतार दिया गया. जिसके बाद से विजयनगर साम्राज्य घुटनों पर आ गया. विजयनगर साम्राज्य का एक बड़ा हिस्सा इस युद्ध में ही छीन लिया गया. 


मालिक-ऐ -मैदान बीजापुर किले में 'मालिक-ऐ -मैदान' (photo Sourse Wikimedia Commons)
बीजापुर किले में 'मालिक-ऐ -मैदान' (फोटो सोर्स- Wikimedia Commons)

डेक्कन हेराल्ड की एक खबर के मुताबिक उस समय बीजापुर के सुल्तान अली आदिलशाह के पास एक तोप हुआ करती थी. यह तोप एक तुर्किश इंजीनियर मुहम्मद बिन हुसैन रूमी ने 1549 में बनाई थी. तालीकोटा के युद्ध में यह खूब इस्तेमाल की गई. इससे एक किस्सा जुड़ा है कि बीजापुर के सुल्तान की सेना इस तोप से दुश्मन सेना पर ताँबे के सिक्कों से बौछार किया करती थी. जब सिक्के तोप से विजयनगर की सेना पर दागे जाते तब सैनिक इन सिक्कों को बटोरने में लग जाते. युद्ध खत्म होने बाद सुल्तानों ने इस तोप को ‘मालिक-ऐ-मैदान’ का नाम दिया. (यह तोप आज भी बीजापुर के किले में रखी है).


युद्ध के बाद तांडव

तालीकोटा युद्ध के बारे में रॉबर्ट सेवेल (जो कि ब्रिटिश इंडिया में एक सिविल सर्वेंट थे) सन 1900 में अपनी क़िताब फॉरगॉटन एम्पायर में लिखते हैं.


युद्ध की खबर जब राजधानी हम्पी तक पहुंची तो लोगों को विश्वास करना इतना मुश्किल हो रहा था कि विजयनगर जैसा इतना विशाल सेना वाला साम्राज्य युद्ध में किसी दुश्मन सेना से हार कैसे सकता है? लेकिन जब उन्हें उनके राजा समान राम राय का कटा सिर दिखाया गया तब वे सब बुरी तरह से टूट गए.'

सेवेल आगे लिखते हैं,


युद्ध के तीसरे और अंतिम दिन जब विजय के बाद मुस्लिम सुल्तान और उनकी सल्तनतों की गठबंधन सेना रणक्षेत्र में आराम और जलपान के लिए ठहरे थे तभी से उनके इरादे कुछ नेक नहीं लग रहे थे. 27 जनवरी यानी आज ही के दिन जब वे विजयनगर साम्राज्य की राजधानी हम्पी पहुंचे तो मंत्री राम राय के सर को भाले में फंसाकर शहर भर में उसकी नुमाइश की गई. और उस समय के बाद से विजयनगर में अगले पांच महीने तक लूटपाट सहित खूब आतंक फैलाया गया. और फिर जब इतने से भी ज़ी नहीं भरा तो अंत में पूरे शहर को आग के हवाले कर दिया गया.’ 

रोबर्ट सेवेल और ब्रिटानिका के मुताबिक राम राय की हत्या के बाद मुस्लिम सुल्तानों ने कुछ दिन युद्धभूमि में ही गुजारे जिससे राम राय के भाई तिरुमाला और सदाशिव को राजधनी हम्पी से भागने का समय मिल गया और वह अपनी कुछ बची-खुची सेना और जितना हो सका उतना सोना लेकर वहां से लगभग 250 किलोमीटर दूर दक्षिण में पेनुकोंडा के किले में जा पहुंचा. इस किले को इन दोनों ने अपना नया हेडक्वार्टर बनाया और बचे हुए राज्य पर यहीं से राज किया. इस युद्ध से विजयनगर साम्राज्य को इतनी क्षति पहुंची वह फिर से खड़ा नहीं हो पाया और साल 1646 आते-आते पूरी तरह समाप्त हो गया.