हर बच्चे का पहला हीरो उसका पिता यूं ही नही बन जाता. पिता को हीरो बनाने की शुरुआत मां तब से करती है, जब बच्चा घुटनों के बल चलकर सरकना सीखता है. बाप घर से निकलता है, बच्चा पीछे-पीछे दहलीज तक जाता है. मां कहती है पापा हप्पा लेने गए हैं बेटे के लिए. शाम को पिता के घर आने से पहले मां फोन करके उन्हें याद दिलाती है, ध्यान से फलां चीज लेते आना. अगली सुबह बच्चा उठता है, तो मां उसे समझाती है कि पापा लाए हैं. जबकि पापा को याद भी नहीं था.
बच्चा चलना सीखता है, हर चीज छूने की कोशिश करता है. गर्म-ठंडे का फर्क महसूस करता है. मां समझाती है ऊऊऊ है, हाय हो जाएगी. बच्चा कुत्ते, बिल्लियों, हाउ (अंधेरा) से डरता है. मां कहती है पापा मार देंगे. पापा से कहेंगे, तो ऐसा हो जाएगा, वैसा हो जाएगा. बिल्ली घर में आती है, बच्चा डर से मां के पास भागता है. मां फिर कहती है पापा मार देंगे उसे. डरते नहीं हैं. बच्चे के नन्हे से ज़ेहन में बैठने लगता है कि जितनी भी ताकतवर चीजें हैं, वो पापा करेंगे. फिर कुछ ही दिनों में बच्चा उन्हीं कुत्ते, बिल्लियों को देखते ही हिम्मत करके कहता है 'पापा...'. मां खुशी से भर कर, बच्चे को चूमकर कहती है - 'हम्ममम मेरे बेटा के पापा मारेंगे इसे'.
मांओं, तुम खुद क्यों नहीं मारोगी? तुम खुद मार दो उस हाउ को, फिर बच्चा उन्हीं कुत्ते और बिल्लियों को देखकर हिम्मत करके 'मम्मा...' करकर उन्हें डराएगा.मां, पहले पिता को बच्चे की नजरों मे हीरो बनाती है, फिर उनसे डरना सिखाती है. बच्चा शैतानी करता है, मां कहती है, पापा से कहूंगी. बच्चा पापा के नाम पर धीरे-धीरे सहमना शुरू कर देता है. क्योंकि उसे याद होता है कि पापा सभी को मार सकते हैं. दिन भर मां के सामने खेल-खेल में बच्चा खूब शैतानियां करता है, पिता के आते ही धीरे-धीरे शैतानियों के साथ-साथ उसका खेलना भी कम होता जाता है. बच्चा कब पिता से दूरी बना लेता है और मां को मामूली मानने लगता है, पता नहीं चलता. इसके लिए कहीं ना कहीं मां खुद भी जिम्मेदार होती है, जिसका उसे कभी अहसास तक नहीं होता.
घर के बाहर सामान बेचते लोगों को देखकर बच्चा मां से खिलौने मांगता है. मां फिर उसे याद दिलाती है, पापा लाएंगे अच्छे-बड़े वाले.... बच्चे को याद होता है पापा हप्पा भी लाते थे. मां अगले दिन पिता से कहती, खिलौने लाना, शाम को फिर उन्हें याद दिलाती है. बच्चे की नजरों में पिता खिलौना ले आता है, लेकिन कभी उसके साथ खेलता नहीं है. वो दिन भर दौड़-दौड़कर उन खिलौनों से मां के साथ खेलता है और हर बार मां को खिलौना दिखाकर कहता है 'पापा...'. बच्चा धीरे-धीरे समझने लगता है खिलौने, खाने की चीजें फिर स्कूल, ट्यूशन की फीस, 'सिर्फ पापा ही सब करते हैं.' बच्चे को कहीं जाना हो तो मां कहती है पापा से पूछना. बच्चे को समझ आता है, मां कुछ नहीं है, पापा ही हैं सब, वही सरदार हैं.
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पिता कभी उसे नहीं समझाता, वो खिलौने तब लाता है, जब मां उसे बार-बार कहती है, याद दिलाती है. वो हर दिन काम पर तब जा पाते हैं, जब मां दिन भर थकान से चूर होने के बाद भी, उनके पांव दबाती है, खाना देती है, जूतों से लेकर पापा की जेब में रखे रुमाल और दवा की पुड़िया तक मां बना कर देती है. मां का प्यार ही पिता की हर सुबह को जोश से भर देता है. उनके बिना पिता कुछ नहीं है. वो कभी मां को बच्चे की नजरों में सुपर वुमन नहीं बनाता, क्योंकि वह खुद कभी उसके काम को काम नहीं समझता. वह बच्चे के सामने गलत एग्जाम्पल सेट किए जाता है और बच्चा उसे फॉलो करके वही बन जाता है.
मां कभी बीमार हो या घर पर ना हो, तो बेटी स्कूल-कॉलेज से छुट्टी लेकर मां के हिस्से का काम करती है. बेटा नहीं करता, क्योंकि ना तो मां ने कभी उसे सिखाया होता और वो सीखा हुआ भी वही होता है जो पिता को करते हुए देखकर बड़ा होता है. वो पिता की तरह सुबह-सुबह अखबार पढ़कर इंटेलेक्चुअल बनने का ढोंग करते हुए मां की जगह बहन से नाश्ते की फरमाइश करता है. क्यों लड़कियों, कभी तुम्हारा मन नहीं करता, तुम भी सुबह-सुबह बनी बनाई चाय की चुस्कियां लेते हुए अखबार की खबर पढ़कर ऐसे बताओ जैसे तुम ही सब जानती हो? करता हो तो सुबह जब कोई तुमसे चाय मांगे, तो कह देना जाकर बनाओ, अख़बार पढ़ रही हूं मेरे लिए भी जनरल नॉलेज बहुत जरूरी है.
कॉलेज, ऑफिस जाने वाली लड़कियां पहले पिता, भाई और फिर पति, बेटे को खुद दफ्तर जाने से पहले टिफिन पैक करके और नाश्ता बना कर दिए जाती हैं. दफ्तर से आकर जल्दी से खाना बनाने से लेकर घर समेटना उन्हीं की जिम्मेदारी है. बाइचांस अगर मेड हो तो भी क्या... सब देख-रेख तुम्हीं को करनी है. अब क्या तुम पापा-भाई से खाना सर्व करवाओगी? याद रखो सब तुमको ही करना है, बेटी को भी ऐसा ही सिखाना और अपनी बहू से भी यही एक्सपेक्ट करना. अगर ऐेसा नहीं किया तो मॉरल खांचे के मुताबिक तुम बदतमीज या फिर फेमिनिस्ट कहलाओगी.