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कैसे तय होता है कि लावारिस लाश मिलने पर पुलिस लाश जलाएगी या दफ़नाएगी?

और अंतिम संस्कार के पैसे कौन देता है?

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8 दिसम्बर 2019 की तारीख़. उन्नाव रेप पीड़िता को अंतिम संस्कार के लिए ले जाते यूपी पुलिस ने अधिकारी. तस्वीर यहां सांकेतिक रूप से. (फ़ोटो : पीटीआई)
14 नवंबर 2020. मध्य प्रदेश के रतलाम के पास से एक शव मिला. शव वड़ोदरा के रहने वाले कोबरा कमांडो का था. नाम अजीत सिंह परमार. लेकिन पुलिस और मीडिया में प्रकाशित ख़बरों के मुताबिक़ अजीत सिंह परमार के पास से कोई सामान, फ़ोन या काग़ज़ नहीं मिला, जिससे उनकी पहचान का पता लगाया जा सके. लिहाज़ा पुलिस ने अजीत सिंह परमार की लाश को लावारिस समझ दफ़ना दिया. और परिवार ने हंगामा किया कि अजीत की लाश को पहचान के लिए नहीं रखा गया था.
यहीं पर बहस शुरू हो गयी है कि क्या कोई लाश बिना शिनाख्त के जलाई या दफ़नाई जा सकती है? लावारिस लाशों के नियम क्या होते हैं? पुलिस कब तक इंतज़ार करती है? किस विधि से अंतिम संस्कार होगा, ये कैसे तय होता है? ख़र्च कौन उठाता है? 
लावारिस लाश की सूचना का सायरन
फ़र्ज़ कीजिये पुलिस अधिकारियों को सूचना मिली कि इस जगह लाश मिली है. और आसपास वाले जान नहीं रहे कि मरा हुआ इंसान कौन है. लिहाज़ा पुलिस आती है. प्राथमिक पूछताछ करती है. फिर लाश को अपने क़ब्ज़े में ले लेती है. वाराणसी में तैनात एक पुलिस अधिकारी बताते हैं,
“सबसे पहले हम एक FIR दर्ज करते हैं. और लाश की फ़ोटो खींचते हैं. पहला काम होता है लाश की शिनाख्त करवाना. तो फ़ोटो खींचकर हम अख़बारों में विज्ञापन दे देते हैं. साथ ही कई बार हम अपने चैट ग्रुप में भी तस्वीर और कपड़े-जूते-चश्मे, चेन या लॉकेट संबंधी डीटेल भी शेयर कर देते हैं, ताकि आसपास के थाना क्षेत्रों या जिलों की पुलिस नज़र मार सके.”
पोस्ट्मॉर्टम की बारी
शुरुआती कामधाम के बाद पता लगाना होता है कि व्यक्ति की मौत कैसे हुई. इसके लिए लाश का पोस्ट्मॉर्टम किया जाता है. पोस्ट्मॉर्टम के दौरान मृत्यु की वजह के साथ-साथ मृतक के शरीर पर जन्म से मौजूद कोई निशान, शरीर पर कोई चोट, कोई टैटू की शिनाख्त की जाती है. अगर मृतक के शरीर से ऐसी जानकारियां मिल जाती हैं, तो उससे मृतक की पहचान स्थापित करने की कोशिश की जाती है. 
Cremation अपने परिजन का अंतिम संस्कार करता युवक. पुलिस का कहना है कि अधिकतर मामलों में लाशों को जलाया ही जाता है. (तस्वीर : PTI)

इस दौरान थानों में दर्ज गुमशुदगी की रिपोर्ट या गुमशुदगी के विज्ञापनों से मिलान करके देखा जाता है कि क्या कोई पहचान साबित हो रही है. और इसके बाद लाश को 36-72 घंटों के मुर्दाघर में रखा जाता है. पुलिस अधिकारियों से मिली सूचना के अनुसार, इस दौरान मृतक के परिचितों का इंतज़ार किया जाता है.
अब होता है अंतिम संस्कार
पुलिस अधिकारी बताते हैं कि अधिकतर केसों में शुरुआती जांच और पोस्ट्मॉर्टम के समय ये बात साफ़ हो जाती है कि मृतक किस समुदाय से ताल्लुक़ रखता है. ऐसे में मृतक का अंतिम संस्कार उसी विधि से किया जाता है. अंतिम संस्कार के लिए राज्य के सभी पुलिस थानों को एक निश्चित धनराशि दी जाती है. ये 300 रुपए प्रति लाश से 1200 प्रति लाश तक हो सकती है. हर राज्य का अपना-अपना हिसाब.
थ्योरी तो ये है कि इस राशि को हर बार क्लेम करना पड़ता है. माने अंतिम संस्कार किया गया तो उसका पत्र बनाकर पुलिस लाइन में क्लेम किया जाता है. फिर क्लेम का पैसा मिलता है. तो तुरंत लाश को जलाने या दफ़नाने के लिए थानाध्यक्ष और दूसरे पुलिसकर्मी पैसा पूल करते हैं, यानी चंदा जुटाते हैं. लेकिन लाश के इन्वेस्टिगेटिंग ऑफ़िसर यानी जांच अधिकारी की सहमति के बाद लाश की मुर्दाघर से क़ब्रिस्तान या श्मशान तक ढुलाई होती है. ढुलाई का ख़र्च और जलाने या दफ़नाने का ख़र्च, सब पुलिस वहन करती है. श्मशान में रखवालों या डोम समाज के भरोसे और क़ब्रिस्तान की बारी आए तो वक़्फ़ बोर्ड की मदद से या कामधाम देखने वालों की मदद से काम को अंजाम दिया जाता है.
लाश के समुदाय की शिनाख्त नहीं हो सकी, तो पुलिस क्या करेगी?
इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए दिल्ली पुलिस के एक अधिकारी ने कहा था कि शिनाख्त न हो सके, ऐसी स्थिति अधिकतर महिलाओं की लाशों में ही आती है. लेकिन महिलाओं के केस में ऐसा कम ही होता है कि कोई पहचान करने के लिए या लाश पर दावा करने के लिए न आए. ऐसे में अधिकतर लावारिस लाशें पुरुषों की ही बचती हैं. पुलिस अधिकारी बताते हैं कि ऐसे मामलों में अधिकांश लाशों को जलाया ही जाता है.
Burial अपने परिजन को दफ़नाते लोग. लावारिश लाश को अगर दफ़नाने की ज़रूरत होती है, तो अमूमन NGO या वक़्फ़ से सम्पर्क किया जाता है. (तस्वीर : PTI)

एक पुलिसवाला गवाह के तौर पर मौजूद रहता है. लावारिस लाश को जलाए जाने के बाद भी मरने वाले की फ़ोटो और बातचीत को सुरक्षित रखा जाता है. ताकि केस में कोई बढ़त हो या मृतक के दावेदार आ जायें तो जानकारी दी जा सके. 
कहानी में कोई झोल है?
कई झोल हैं. इतने झोल हैं कि पॉइंट में समझाते हैं :
1 - अगर विद्युत शवदाहगृह में लाश को जलाया जाता है तो बहुत कम पैसों में काम चल जाता है. लेकिन अगर लकड़ियों के सहारे जलाने की नौबत है तो पुलिस को लकड़ी का दाम भी चुकाना होगा. और जैसा बनारस के डोम समाज के लोग बताते हैं, पुलिस ऐसी स्थिति में थोड़ी चालाकी करती है. पुलिस पहले से जलती हुई किसी चिता पर लाश को रख आती है. क्योंकि थाने को मिलने वाले हज़ार पांच सौ से 4-5 हज़ार की लकड़ियां किसी हाल में नहीं ख़रीदी जा सकती हैं.
2 - पुलिस एक और जुगत लगाती है. कई बार अख़बारों और सोशल मीडिया पर दिखाई देता है कि पुलिस पुल या किनारे से नदी में लाश फेंक देती है. जानकार बताते हैं कि ऐसा करने से पुलिस अंतिम संस्कार के ख़र्च और उसे वापिस हासिल करने के पूरे झंझट से मुक्त हो जाती है.
3 - पुलिसकर्मी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि कई मौक़ों पर पुलिस अस्पताल में काम करने वाले सफ़ाईकर्मियों की मदद से भी लावारिस लाशों का निस्तारण करवाती है. 
4 - कई शहरों में कुछ NGO या सामाजिक संगठन होते हैं. लावारिस लाश के अंतिम संस्कार के लिए पुलिस उनसे संपर्क करती है और फिर लाश को जलाने या दफ़नाने का पूरा काम और हिसाब उस संस्था के ज़िम्मे.