
कलाप्रेमियों के शहर कोलकाता में मंगलवार को गुलाम अली ने अपना गायन किया. वे अब गा नहीं पाते, कंठ से आवाज फूटती नहीं लेकिन गाने से ज्यादा ये धर्मनिरपेक्षता की राजनीति का राग था, जिसे दीदी ने अपनी तान से पूरा किया. दरअसल गुलाम अली इस देश में अब गायक कलाकार नहीं बल्कि सेकुलरी राजनीति का पाक चेहरा बन कर रह गए हैं. ये विवाद तब शुरू हुआ जब उन्हें मुंबई में अपना कार्यक्रम पेश करना था लेकिन शिवसेना ने बीच में अड़ंगा लगा दिया. पाकिस्तान विरोध के अपने पुराने एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए, जिसमें कि नया कुछ भी नही हैं, शिवसैनिकों ने गुलाम अली के कार्यक्रम को रद्द करवाया. मुद्दा ये कि सीमा पर हमारे जवान गोली खाएं, आतंकी घुसपैठ करें, युद्धविराम का उल्लंघन हो और हम देश में पाकिस्तानी गजल गायक का संगीत सुनें, ठीक नहीं लगता. https://twitter.com/MamataOfficial/status/686965144723668992 शिवसेना के तर्क अपने हैं, जिनसे असहमत हुआ जा सकता था लेकिन खारिज नहीं किया जा सकता. शिवसेना के हठ के साथ ही देश के अलग-अलग हिस्सों में गुलाम अली को मस्तक पर बिठाने की जंग भी शुरू हो गई. दिलचस्प बात तो ये कि जहां गजल सुनने-समझने की कोई स्वस्थ सांगीतिक परंपरा नहीं है वहां से भी लोगों ने गुलाम अली को गाने का न्योता भेजना शुरू कर दिया. मसलन केरल और बंगाल. इन दोनों ही सूबों का संगीत अलग है. बंगाल में या तो हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत सुना सीखा और गाया जाता है या रवींद्र संगीत या फिर वहां का लोकगीत. गुलाम अली सरीखी गजल को सुनने का चलन वहां ज्यादा नहीं है. उधर केरल तो इस मामले में दूसरे ही ध्रुव पर खड़ा है, जहां कर्नाटक संगीत का आधार है. पूरी तरह से अलग भाषायी संस्कार के साथ वहां गजल की कोई जगह नहीं बनती. लेकिन इन दोनों राज्यों में मुसलमान आबादी का वोटबैंक में सीधा खाता खुलता है लिहाजा दोनों ही सूबों से उन्हें न्योता भेजा गया और राष्ट्रीय राजनीति में मोदी के समकक्ष उभरने के ताप में जले जा रहे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी पांसा फेक दिया कि गुलाम अली का कार्यक्रम दिल्ली में होगा. हालांकि तब गुलाम अली ने कहीं भी गजल गाने से मना कर दिया था. उन्होंने कहा था कि भारत में अभी माहौल ठीक नहीं है, ऐसे माहौल में गाना बजाना अच्छा नहीं होगा. मंगलवार को जब कोलकाता में गुलाम अली का कार्यक्रम हुआ तो इसकी तैयारी देखकर थोड़ी हैरत हुई. नेताजी इंडोर स्टेडियम के बाहर गुलाम अली के इतने विशाल पोस्टर लगे थे कि उतने बड़े पोस्टर कभी बंगाल के चिरयुवा गायक हेमंत दा के भी न लगे हों, और ऐसा तब किया गया जब गुलाम अली बिलकुल भी नहीं गा पाते. उम्र और ऑपरेशन के बाद उनके सुर जा चुके हैं. उऩ्हें अच्छा गाते हुए अच्छा-खासा समय बीत चुका है लेकिन राजनीति के सेकुलरी सुर के आगे कुछ और कहां सुनाई देता है और इस समय इस सुर की सबसे बड़ी साधक हैं ममता दीदी. जो दूसरी राजनीतिक यात्रा पर चल पड़ी हैं. मालदा कांड के बाद जिस तरह की प्रतिक्रिया उन्होंने दी है, गुलाम अली का कार्यक्रम उसी मनोभाव और राजनीतिक य़ोजना का विस्तार है. https://www.youtube.com/watch?v=Y7wFggV14YE त्रिपुरा के गवर्नर तथागत राय ने भी इस बारे में ट्वीट किए हैं. उन्होंने लिखा, बंगाली हिंदुओं से ज्यादा पाकिस्तान के हाथों में कोई और नहीं खेला है. (जाहिर है, ये लेखक के निजी विचार हैं. 'दी लल्लनटॉप' इससे सहमत हो ये जरूरी नहीं. )