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गद्दाफ़ी के बेटे को किसने किडनैप किया, भूख हड़ताल क्यों शुरू की?

2015 से लेबनान की जेल में बंद है हनीबेल

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2015 से लेबनान की जेल में बंद है हनीबेल

काला साफ़ा, बढ़ी हुई दाढ़ी, सूजी हुई आंखें और चेहरे पर चोट के निशान. दिसंबर 2015 में लेबनान के अल-जिदाद टीवी पर प्रकट हुए शख़्स को देखकर लोग दंग थे. उन्हें लगा, वो बोलेगा, कुछ भी ठीक नहीं है. मुझे टॉर्चर किया गया है. लेकिन वो बोला, हमको कुछ नहीं हुआ है. हम एकदम ठीक हैं.

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कट टू जून 2023.

वही शख़्स अब जेल में भूख हड़ताल कर रहा है. उसने ऐलान किया है, जब तक मेरे साथ न्याय नहीं होगा, मैं खाना नहीं खाऊंगा.

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ये लीबिया के पूर्व तानाशाह मुअम्मार गद्दाफ़ी का बेटा हनीबेल गद्दाफ़ी की कहानी है. 2011 के अरब स्प्रिंग में गद्दाफ़ी मारा गया. फिर उसके बेटों की खोज शुरू हुई. कुछ मारे गए. कुछ बाहर भाग गए. हनीबेल पहले अल्जीरिया गया. फिर सीरिया में शरण ली. 2015 में वो किडनैप हो गया. पता चला, लेबनान वालों ने उसको उठा लिया है. क्यों उठाया? इसकी कड़ी 1978 में लीबिया से हुई एक गुमशुदगी से जुड़ी थी. तब लीबिया में मुअम्मार गद्दाफ़ी का राज था. गुमशुदगी में उसका भी हाथ माना जाता है.

तो आइए समझते हैं,

- लेबनान वालों ने गद्दाफ़ी के बेटे को क्यों किडनैप किया?
- 1978 में कौन शख़्स लेबनान से गायब हो गया था?
- और, हनीबेल अब भूख हड़ताल पर क्यों बैठा है?

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1941 से 1979 तक ईरान के शाह रहे मोहम्मद रेज़ा पहलवी ने एक खुफिया एजेंसी बनाई थी. सवाक के नाम से. ये शाह के विरोधियों का दमन करने के लिए कुख्यात थी. उसका काला-चिट्ठा 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद खुला. फिर उसकी खुफिया रिपोर्ट्स पब्लिक में रिलीज़ हुईं. एक रिपोर्ट में लेबनान के एक शिया धर्मगुरू मूसा अल-सद्र का ज़िक्र था. क्या लिखा था?

“शिया धर्मगुरू सैयद मूसा सद्र के जैसा लेबनान में कोई नहीं है. वो बेरुत की आत्मा माने जाते हैं. लेबनान का कोई नेता उनकी बात नहीं टालता. जब कभी वो बाहर जाते या बाहर से आते हैं, बेरुत के जाने-माने लोग एयरपोर्ट पर लाइन लगाकर खड़े रहते हैं. वो मुल्क के राष्ट्रपति से भी अधिक ताक़तवर हैं. अफ़वाह तो ये भी है कि राष्ट्रपति उनसे खौफ़ खाते हैं. अल सद्र की तस्वीरें चौक-चौराहों और अख़बारों में आसानी से मिल जाती हैं. सेना के सारे जनरल उनके फिदायीन हैं. बेरुत में अल सद्र से बड़ा कोई नहीं है. कोई उनकी मुख़ालफ़त के बारे में सोच भी नहीं सकता. ठीक-ठीक कहा जाए तो अल सद्र, लेबनान की पहचान का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं.”

मूसा अल सद्र

मूसा अल सद्र जून 1928 में ईरान के क़ौम शहर में पैदा हुए थे. उनकी पढ़ाई-लिखाई ईरान की राजधानी तेहरान में हुई. पिता के ज़ोर देने पर वो मदरसे में पढ़ाने लगे. कुछ समय के लिए इराक़ में भी रहे. 1959 में उन्हें लेबनान आने का न्यौता मिला. उस समय लेबनान में धार्मिक भेदभाव चरम पर था. सुन्नी मुस्लिमों का वर्चस्व था. शिया मुस्लिम दोयम दर्जे के माने जाते थे. उन्हें सुन्नियों के मातहत रहना पड़ता था. अल सद्र के आने के बाद स्थिति बदलने लगी. उन्होंने सबको बराबर अधिकार देने की मांग की. अल सद्र का रुतबा लगातार बढ़ता गया. हर धर्म के लोग उनसे प्रभावित थे. उनके समर्थक दावा करते हैं, अल सद्र को ईसाई चर्च में बुलाया करते थे. वे उनके सम्मान में इस्लामी नारे भी लगाते थे.

1970 के दशक में मूवमेंट फ़ॉर दी ऑपरेस्ड नाम से एक संगठन शुरू किया. बाद में इसे अमाल मूवमेंट के नाम से जाना गया. फिलहाल, ये पोलिटिकल पार्टी के तौर पर काम करती है. इसका अपना सैन्य गुट भी है. हेज़बुल्लाह के साथ इनकी अदावत चलती है.

खैर, अल सद्र ने जब अपना संगठन बनाया, उस समय फ़िलिस्तीनी गुटों ने साउथ लेबनान में पैर जमाने शुरू कर दिए थे. इसमें सबसे प्रमुख नाम था, यासिर अराफ़ात की फ़िलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन (PLO) का. इज़रायल ने फ़िलिस्तीन में उन्हें काफ़ी नुकसान पहुंचाया था. इसलिए, उन्हें अपना बेस बदलना पड़ा था. उन्हें लगा था कि साउथ लेबनान में रहकर वे आसानी से इज़रायल पर हमला कर सकेंगे. लेकिन ये उनकी भूल साबित हुई. इज़रायल ने वहां पर भी उनका पीछा नहीं छोड़ा. PLO और इज़रायल की जंग में लेबनान के आम लोग पिस रहे थे. सबसे ज़्यादा नुकसान शियाओं का हो रहा था. वे पहले से ही हाशिए पर थे. उसके ऊपर एक अनचाही जंग की तलवार लटक रही थी. अल सद्र ने इसका विरोध किया. PLO को सबसे ज़्यादा सपोर्ट लीबिया के मुअम्मार गद्दाफ़ी से मिल रहा था. अलग सद्र ने उनसे मदद मांगी. कहा कि वे फ़िलिस्तीनी गुटों पर दबाव बनाएं. ताकि लेबनान की आम जनता युद्ध की आग से बची रहे. मगर गद्दाफ़ी ने उनकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया.

फवाद अजामी की किताब ‘द वैनिश्ड इमाम’ में इस मुलाक़ात का ज़िक्र है. इसके मुताबिक, अल सद्र और गद्दाफ़ी की पहली मुलाक़ात 1975 में हुई थी. मीटिंग के दौरान गद्दाफ़ी अपनी कुर्सी पर सो गया था. उसने अल सद्र की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं ली थी. जिसके बाद उन्हें मीटिंग छोड़कर निकलना पड़ा.

हनीबेल गद्दाफ़ी 

फिर 1975 में लेबनान में सिविल वॉर शुरू हो गया. शिया, सुन्नी और ईसाई आपस में लड़ने लगे. अल सद्र ने इसको रोकने की पूरी कोशिश की. लेकिन वो कामयाब नहीं हुए. तब उन्होंने फिर से गद्दाफ़ी का दरवाज़ा खटखटाया. 25 अगस्त 1978 को वो अपने एक साथी और एक पत्रकार के साथ लीबिया पहुंचे. 31 अगस्त को उन्हें वापस लौटना था. लेकिन वे नहीं लौटे. उसके बाद उनका कभी पता नहीं चला. लीबिया सरकार ने कहा, अल सद्र और उनके साथी त्रिपोली से रोम चले गए. किसी ने आपसी रंजिश में उनकी हत्या कर दी होगी.
उनके घरवाले और समर्थकों ने ये बात नहीं मानी. उनका कहना था कि गद्दाफ़ी ने उनकी हत्या करवा दी या उन्हें जेल में बंद करवा दिया.

गद्दाफ़ी के पूरे शासन के दौरान ये राज़ नहीं खुला. 2011 में अरब क्रांति हुई. भीड़ ने गद्दाफ़ी की बेरहमी से हत्या कर दी. उसके बाद कुछ खुलासे हुए. गद्दाफ़ी की सेना में कर्नल रहे अब्देल मोनेम अल-हूनी ने दावा किया कि अल सद्र को गद्दाफ़ी के आदेश पर गोली मार दी गई. बाकी दो लोगों का भी वही हश्र हुआ. लेकिन इस दावे की पुष्टि के लिए पर्याप्त सबूत नहीं थे.
उसी समय एक और दावा चला कि अल सद्र ज़िंदा हैं और लीबिया में ही कहीं पर रह रहे हैं. हालांकि, उन्हें कभी किसी ने नहीं देखा.

2015 में अल सद्र का नाम फिर से चर्चा में आया. लेबनान के एक चरमपंथी गुट ने सीरिया से गद्दाफ़ी के बेटे हनीबेल को किडनैप कर लिया था. वे उससे अल सद्र के बारे में जानना चाहते थे. हालांकि, हनीबेल अल सद्र के गुमशुदा होने के दो बरस बाद पैदा हुआ था. उसने सफाई देने की कोशिश की. लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. बाद में उसे लेबनान की जेल में बंद कर दिया गया. अभी तक उसका ट्रायल शुरू नहीं हुआ है. 05 जून को उसने भूख हड़ताल की घोषणा की है. कहा है, जब तक ट्रायल शुरू नहीं होगा, वो कुछ भी नहीं खाएगा. 

अमेरिका के एक जासूस की भी ख़बर आज सुर्खियों में बनी रही. 

अमेरिका की जेल में बंद फ़ेडरल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टिगेशन (FBI) के एजेंट रॉबर्ट हेन्सन की मौत हो गई है. इस पंक्ति में एक विरोधाभास है. क्या? FBI अमेरिका की जांच एजेंसी है. फिर उसने अपने ही एजेंट को जेल में बंद क्यों किया? क्योंकि रॉबर्ट हेन्सन डबल गेम खेल रहा था. वो कागज़ पर तो FBI का एजेंट था. लेकिन काम सोवियत संघ के लिए करता था. सोवियत संघ टूटने के बाद वो सीक्रेट जानकारियां रूस को बेचने लगा. इसके बदले में उसे लगभग लगभग 11 करोड़ रुपये मिले.

हेन्सन ने 1976 में FBI जॉइन किया था. वो अपने काम में माहिर था. जिसके चलते लगातार प्रोमोशन मिला. 1987 में वो सोवियत डेस्क में स्पेशल एजेंट बन चुका था. यहां भी वो अपने मुल्क के साथ खिलवाड़ करता रहा. उसके डबल गेम के कारण रूस में अमेरिका के तीन सोर्स पकड़े गए, जबकि दो को मौत की सज़ा हुई.

1990 के दशक में FBI को डिपार्टमेंट के अंदर जासूसी का शक़ हुआ. उन्होंने जांच शुरू की. लेकिन हेन्सन तक पहुंचने में उन्हें कई बरस लग गए. दरअसल, हेन्सन काफ़ी चालाक था. केजीबी के लिए वो रामोन गार्सिया था. वो कभी रूसी हैंडलर्स से नहीं मिलता था. हर बार नया ठिकाना ढूंढता था. अक्सर सुनसान इलाके में डॉक्यूमेंट्स छोड़कर निकल जाता था. इसे जासूसी की दुनिया में डेड ड्रॉप के नाम से जाना जाता था. पैकेट छोड़कर निकलने के बाद ही वो हैंडलर्स को पता बताता था.

फिर एक दिन रूस में तैनात एक अमेरिकी एजेंट ने पैकेट के बारे में FBI को बता दिया. उस पर हेन्सन की ऊंगलियों के निशान थे. FBI को उसके फ़ोन कॉल की रिकॉर्डिंग भी मिली. नवंबर 2000 तक उन्हें पता चल चुका था कि हेन्सन ही डबल एजेंट है. लेकिन उनके पास पर्याप्त सबूत नहीं थे.

सबूत जुटाने के लिए FBI ने एक प्लॉट तैयार किया. हेन्सन को विदेश मंत्रालय में ट्रांसफ़र कर दिया गया. एक फ़र्ज़ी जॉब प्रोफ़ाइल बनाई गई. हेन्सन को लगा कि उसका प्रमोशन हुआ है. लेकिन ये एक किस्म का जाल था. उसके नए दफ़्तर के कोने-कोने में कैमरे और माइक्रोफ़ोन्स लगे थे. फ़रवरी 2001 में वो इस जाल में फंस गया. उसको अरेस्ट कर लिया गया. यूं तो जासूसी के लिए अमेरिका में मौत की सज़ा का प्रावधान है. लेकिन उसने एजेंसी के साथ समझौता करके मौत की सज़ा को टाल दिया. 2002 में उसको आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई.  05 जून 2023 को कोलोराडो की एक जेल में उसकी मौत हो गई. मौत के वक़्त उसकी उम्र 79 बरस थी.

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