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रेडियो की दुकान पर बैठने वाले विकास दुबे के हिस्ट्रीशीटर बनने की पूरी कहानी

कैसे पुलिस-प्रशासन और राजनीति की लापरवाही और शह से एक गुंडे ने 30 साल आतंक मचाया.

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उत्तर प्रदेश के कानपुर का हिस्ट्रीशीटर विकास दुबे. 1990 के पहले से शुरू हुई गांव की दबंगई हत्या, ज़मीनें हड़पना, हत्या की साज़िश रचने के आरोपों तक पहुंची. आख़िरकार 8 पुलिसवालों की हत्या के आरोप के बाद फरार हुआ विकास कथित एनकाउंटर में मारा गया.
‘अपराध का राजनीतिकरण’ हो, या ‘राजनीति का अपराधीकरण’..ये दोनों ही बातें उत्तर प्रदेश के लिए कोई नई नहीं हैं.
77 का साल. कानपुर शहर. ये वो साल था, जब कानपुर के नक्शे को नए तरीके से परिभाषित किया गया. कानपुर नगर और कानपुर देहात. पहले दोनों एक हुआ करते थे. ये वर्गीकरण होने के बाद 'कंपू' की राजनीति भी नए सिरे से परिभाषित हो रही थी. कानपुर देहात में मंधना, शिवराजपुर, बिठूर..ये सब बड़े गढ़ बने. ये इलाके शहर से ज़्यादा दूर नहीं थे. ज़्यादातर नेताओं के लिए भी शहर में रहते हुए इन इलाकों को कंट्रोल करते रहना आसान था.
मंधना और शिवराजपुर के बीच ही एक विधानसभा सीट पड़ती थी- चौबेपुर. ब्राह्मण बहुल सीट. लेकिन 77 में चुनाव पड़े, तो यहां से जीते जनता पार्टी के हरिकिशन श्रीवास्तव. कतई ज़मीनी नेता. ठेठ मोहल्लादारी वाले. उस वक्त कानपुर में मज़दूर आंदोलन भी चल रहा था. उसमें भी हरिकिशन सक्रिय थे. यही छवि थी कि उन्होंने 80 में फिर चौबेपुर जीता. लेकिन 84 में कांग्रेस के नेकचंद्र पांडेय ने चौबेपुर के जातीय समीकरण अपने पक्ष में कर लिए और जीत हासिल की. हरिकिशन श्रीवास्तव को समझ आ चुका था कि अब जातीय समीकरण भी साथ लेकर चलना ज़रूरी है. उन्होंने 89 के चुनावों की तैयारी शुरू कर दी.
अब लौटते हैं चौबेपुर में. यहां का बिकरू गांव. यहां पास में रेडियो की दुकान पर एक लड़का बैठता था. 22-24 साल का. हट्टा-कट्ठा शरीर. गांव का दूध-घी खाया. कानपुर से डिग्री कॉलेज पढ़कर आया था, तो गांव में अलग रौला था. और लड़का बड़ा ‘हथछूट’ था. माने बात-बात पर हाथ छोड़ देता था. ब्राह्मण था. नाम- विकास दुबे.
Untitled Design (16) विकास के कुछ पुराने इंटरव्यू भी सोशल मीडिया पर चलते हैं, जिसमें उसने हरिकिशन श्रीवास्तव को अपना राजनीतिक गुरु बताया है.

हरिकिशन बाबू और विकास का साथ

कानपुर के वरिष्ठ पत्रकार अंजनी निगम बताते हैं -
“विकास के पास थी ‘टीम’, जो हरिकिशन श्रीवास्तव के काम आ सकती थी. हरिकिशन के पास था भौकाल, जो विकास को चाहिए था. दोनों साथ आए. नतीजा- 1989 में हरिकिशन की एक और जीत और विकास की गंवई दंबगई अब गुंडई में बदलने लगी. लेकिन विकास का राजनीतिक इस्तेमाल नेकचंद्र पांडेय के समय से ही शुरू हो गया था. गांव के एक दबंग ब्राह्मण लड़के का पहली बार राजनीतिक लाभ उन्होंने ही लिया. चुनाव भी जीता. हालांकि इसके बाद विकास, हरिकिशन बाबू का शागिर्द हो गया. विकास भी उन्हें बाबूजी ही कहता था. और जब ये विकास पंडित जी के नाम से जाना जाने लगा, तब भी वो हरिकिशन को अपना राजनीतिक गुरु बताता था.”

मटर का दाना बना पहले मर्डर की वजह

कानपुर में 'दैनिक जागरण' अख़बार के पत्रकार सरस बाजपेयी शहर में 1990 के अल्ले-पल्ले से क्राइम रिपोर्टिंग कर रहे हैं. वो विकास के पहले बड़े केस का ज़िक्र करते हुए बताते हैं-
“गांवों में लोगों के खेत-बगीचे अक्सर एक-दूसरे से सटे हुए रहते हैं. 1990-91 के वक्त की बात कर रहे हैं, तो उस वक्त तो ज़्यादा कोई बाड़बंदी भी नहीं रहती थी खेतों के बीच में. एफआईआर में क्या रहा-क्या नहीं, वो तो अलग बात है. लेकिन उस वक्त जो बात पता चली थी, वो ये थी कि विकास के पिता रामकुमार एक रोज अपने खेत की मेड़ पर बैठे थे. जाने-अनजाने में बगल खेत से मटर तोड़-तोड़कर खाने लगे. ये खेत था एक दलित का. वो आया और विकास के पिता को बहुत कुछ बोला. ये बात पता लगी विकास दुबे को. यहीं से इज्ज़त और ज़मीन का झगड़ा शुरू हुआ, जिसमें उस खेत मालिक का मर्डर हो गया. आरोप आया विकास दुबे पर. पहला बड़ा आरोप. मर्डर का.”
यहां से विकास का रसूख़, राजनीतिक पकड़ और गुंडई बढ़ती चली गई.

विकास की पर्ची पर मिलती थी नौकरी

अंजनी निगम बताते हैं –
“विकास के पास हमेशा से अच्छी टीम रही. उसने इलाके के लड़कों को अपने साथ जोड़ा, उनकी मदद की और ये लड़के विकास के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते थे.”
लेकिन विकास की ये टीम बनी कहां से? वो बताते हैं-
“हरिकिशन बाबू के नाम का विकास जमकर इस्तेमाल करता था. चूंकि वो हरिकिशन के काम भी आता था, तो वे आपत्ति भी नहीं करते थे. इसी तरह बढ़ते हुए विकास ने एक बड़ी डिटर्जेंट फैक्ट्री का मालिकों तक अपनी जबरदस्त पैठ बना ली. चौबेपुर में ये फैक्ट्री थी, जहां विकास दुबे की लिखी पर्ची पर नौकरी मिल जाती थी. न सिर्फ नौकरी दिलाता था, बल्कि तनख्वाह भी ख़ुद ही तय करता था. चौबेपुर, शिवली, बिठूर के आस-पास के 20-25 गांवों के 400 से 500 लड़कों की विकास ने नौकरी लगवाई. विकास ने जान-पहचान के दम पर गांव में तमाम काम करवा दिए, जैसे हैंडपंप, लाइट, सड़क. यहां से गांव में विकास का रुतबा बढ़ गया.”

खुल्लर का साथ और विकास की कानपुर शहर में एंट्री

1997-98 के आस-पास कानपुर शहर के काकादेव, शास्त्री नगर इलाकों में दो नाम चलते थे- राजू खुल्लर और भूरे. खुल्लर और भूरे में भयंकर तनातनी थी. अब तक विकास दुबे की पकड़ गांवों तक ही थी. लेकिन इसी बीच उसकी मुलाकात हुई खुल्लर से. विकास और खुल्लर की बनने लगी. विकास के आने से खुल्लर का पलड़ा भी भारी हुआ. नतीजा- भूरे को शास्त्री नगर इलाका छोड़कर जाना पड़ा.
अब देहात में विकास का कोई मैटर हो, तो खुल्लर टीम लेकर पहुंचता. शहर में खुल्लर को ज़रूरत हो, तो विकास लड़के लेकर आता. विकास की कानपुर सिटी में ऑफिशल एंट्री हुई.
इसी बीच खुल्लर की बहन ऋचा से विकास के प्रेम संबंध हुए और आगे चलकर दोनों ने शादी भी की.
Untitled Design (10) पैसे और राजनीतिक संरक्षण के दम पर विकास की पहुंच काफी बढ़ चुकी थी. साथ में उसका करीबी अमर दुबे.

जब दो नेता विकास के लिए धरने पर बैठे

सरस बाजपेयी बताते हैं-
“कल्याणपुर में एक दारोगा हुए थे- हरिओम यादव. हरिओम यादव विकास दुबे को तड़े थे. एक रोज़ विकास शिवली से कानपुर कचहरी आया था. लौटते वक्त हरिओम ने विकास को पकड़ लिया. पुलिस और विकास के गुंडों में बहुत लड़ाई हुई. कहते हैं कि हरिओम यादव ने गोली तक चलाई. आखिर पुलिस ने विकास को धर लिया और लेकर चली कल्याणपुर थाने. जब तक पुलिस विकास को लेकर थाने पहुंचती, तब तक शिवली, चौबेपुर से ट्रैक्टरों में भरकर 500 से ज़्यादा लोग थाने पहुंच चुके थे. गांव के लोगों को डर था कि पुलिस ‘विकास भइया’ को मार देगी. जो भी कार्रवाई हो, वो सबके सामने हो, इस मांग को लेकर शहर के दो नेता धरने पर भी बैठ गए थे. भगवती सागर और राजाराम पाल.”
भगवती सागर इस समय बिल्हौर विधानसभा सीट से विधायक हैं. राजाराम पाल अकबरपुर सीट से सांसद रह चुके.

विकास के कहने पर एक कंपनी को मिलने लगा 20-25 गांवों का दूध

एक किस्सा कानपुर में बहुत चलता है. जिस डिटर्जेंट कंपनी में विकास की पर्ची पर नौकरी मिलती थी, वही कंपनी लॉन्च कर रही थी एक दूध-डेरी ब्रांड. बात है 2005-2007 के भी बाद की. तब तक विकास का रसूख़ काफी बढ़ चुका था. कंपनी को बाज़ार में पैर जमाने थे. विकास से मदद मांगी गई. विकास ने शिवली, चौबेपुर, बिठूर के आस-पास के करीब 20-25 गांवों को कह दिया कि आज से सारा दूध इस एक कंपनी को ही जाएगा. सारे गांवों का दूध उस एक कंपनी को ही जाने लगा. कंपनी धड़ाधड़ चल निकली. कंपनी को फायदा हुआ कि उन्हें इफरात में दूध मिलने लगा. गांव के दूध बेचने वालों को फायदा हुआ कि उनका दूध हाथ के हाथ बिकने लगा. और बड़ा फायदा हुआ विकास को, क्योंकि ऐसा तो हो नहीं सकता कि विकास ने इतना बड़ा काम भलमनसाहत में कर दिया हो. यहां से कमीशन के तौर पर विकास ने जमकर पैसा बनाया.

कानपुर जेल की बैरक नंबर-18

विकास दुबे जेल में भी कानपुर देहात के अपराधियों के साथ अलग गुट बनाकर रहता था. उन पर जेल में भी प्रभुत्व कायम रखने की कोशिश करता था, जिसका फायदा उसे जेल से बाहर आने पर मिलता था. ये सभी लोग उसके पीछे-पीछे घूमते. सरस बाजपेयी बताते हैं-
“विकास दुबे को कानपुर जेल की 18 नंबर बैरक में रखा जाता था. बैरक नंबर-18 कानपुर जेल की सबसे बड़ी, अच्छी और सुविधाजनक बैरक हुआ करती थी. इस बैरक के कैदियों का अलग खाना बनता था. पकाने का सामान बाहर से आता था. 18 नंबर के कैदी खुद भी अपना खाना बनाया करते थे.
ये 2000 के बाद की बात है. उस वक्त अतीक, शफीक और बिल्लू का डी-2 गैंग कानपुर का सबसे बड़ा अपराधी गैंग हुआ करता था. इस गैंग के टॉप मेंबर में से कोई जेल आता, तो बैरक नंबर-18 में रुकता था. आलम ये था कि बैरक में एक संगमरमर का चबूतरा तक बनवाया गया था. अतीक, शफीक, बिल्लू में से कोई जेल आता, तो इसी चबूतरे पर सोता. विकास और उसके कुछ साथी 18 नंबर बैरक में डी-2 गैंग वालों के साथ रुकते थे. इस बात से भी वो बाहर अपना रुतबा जमाता था.”

विकास पर चले तमाम मर्डर केस

साल 2000 में ताराचंद इंटर कॉलेज के सहायक प्रबंधक सिद्धेश्वर पांडेय की हत्या में विकास दुबे का नाम आया. इसके अलावा साल 2000 में रामबाबू यादव हत्या के तार भी विकास दुबे से जुड़े. 2004 में केबल व्यवसायी दिनेश दुबे की हत्या में भी विकास दुबे आरोपी रहा. 2018 में अपने ही चचेरे भाई अनुराग पर भी जानलेवा हमला कराने का आरोप विकास दुबे पर लगा. इस मामले में अनुराग की पत्नी ने विकास समेत चार लोगों को नामजद किया था. लेकिन जिस मामले ने विकास का नाम हिस्ट्रीशीटर्स में दर्ज़ कर दिया, वो था राज्यमंत्री संतोष शुक्ला की हत्या का केस.
Untitled Design (15) विकास दुबे की हिस्ट्रीशीट का एक हिस्सा. (क्रेडिट- SCRIBD)

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सबसे बड़ा कांड- संतोष शुक्ला मर्डर केस

1996 में हरिकिशन श्रीवास्तव बसपा से विधानसभा चुनाव लड़े. सामने थे बीजेपी के संतोष शुक्ला. हरिकिशन जीते. जीते तो विजयी जुलूस निकला. जुलूस के दौरान हरिकिशन और संतोष शुक्ला के समर्थक आपस में भिड़ गए. हरिकिशन के जुलूस की अगुवाई कर रहा था विकास दुबे. चुनाव में विकास और संतोष शुक्ला का मन एक-दूसरे से खट्टा हो ही चुका था. इस घटना के बाद ये मनमुटाव और बढ़ गया.
इसी चुनाव में विकास और लल्लन बाजपेयी के बीच भी तनातनी हो गई. लल्लन, जो कभी विकास का साथी हुआ करता था. लेकिन चुनाव में संतोष शुक्ला का साथ दिया और यहीं से विकास से खटक गई.
अब बात आती है संतोष शुक्ला मर्डर केस की. इसे लेकर दो तरह की बातें चलती हैं-
संतोष शुक्ला के भाई मनोज शुक्ला बताते हैं-
# “12 अक्टूबर, 2001 को विकास ने लल्लन के यहां हमला कर दिया. लल्लन था बीजेपी का आदमी. उसने उस समय के राज्यमंत्री संतोष शुक्ला को फोन किया कि इन लोगों ने हमें घेर लिया है. 12-15 लोग हैं. कट्टे वगैरह के साथ. संतोष शुक्ला ने कहा कि हम आ रहे हैं. वो पहले शिवली थाने गए कि फोर्स लेकर जाएंगे. शिवली थाने पर विकास दुबे और उसके लोग आ गए. थाने के अंदर दोनों के बीच बहस हुई. बात बढ़ी और संतोष शुक्ला पर गोली चला दी गई.”
इसके बाद हमने बात की आलोक चतुर्वेदी से. वे 1985 से शिवली में पत्रकारिता कर रहे हैं और संतोष शुक्ला मर्डर केस के वक्त स्पॉट पर ही थे. वे बताते हैं-
# “विकास दुबे की पत्नी की तबीयत ठीक नहीं थी. उस रोज़ वो पत्नी को लेकर कानपुर गया था. डॉक्टर को दिखाने. कानपुर से लौटते वक्त विकास की गाड़ी पर भयंकर हमला हुआ. बम तक फेंके गए. बचते-बचाते वो पहुंचा शिवली थाने. रिपोर्ट लिखाने. इधर विकास पर हमले की ख़बर सुनकर गांव के सैकड़ों लोगों ने थाना घेर लिया. थाने के बाहर जाम लगा लिया. तभी वहां से संतोष शुक्ला का निकलना हुआ. इसी रास्ते से जाकर उनका स्कूल पड़ता था. अवंतीबाई कॉलेज. उनकी गाड़ी जाम में फंस गई.
पता किया तो पता चला कि विकास दुबे की रिपोर्ट नहीं लिखी जा रही, इसलिए जाम लगाया गया है. वो गाड़ी से उतरे. थाने में घुसे कि रिपोर्ट लिखवाओ, जाम खुलवाओ. उन्हें था कि जल्दी रास्ता खुले, वो जाएं. यही विकास दुबे से किसी बात पर कहासुनी हुई, तो विकास ने एक पत्थर उठाकर उनके सिर पर दे मारा. सफेद कुर्ता-पायजामा खूनम-खून. कराहते संतोष शुक्ला ने विकास को गालियां देनी शुरू कीं. विकास और उसके साथी पहले से ही से तउव्वाए थे और इसके बाद थाने के अंदर से तीन फायर की आवाज आई. जो हुआ, सब जानते हैं.”

कैसे बचता चला गया विकास?

हत्या, हत्या की कोशिश, ज़मीनें कब्जाना जैसे तमाम आरोप विकास दुबे पर थे. फिर भी वो इतने साल तक कानून के शिकंजे से कैसे बचता रहा? ये जानने के लिए हमने बात की कुछ वकीलों से. जानते हैं कि उन्होंने क्या कहा.
# वकील संतोष बाजपेई :
"विकास दुबे के जब कानून से बचते चले जाने की बात होती है, तो सबसे पहले ज़िक्र आता है संतोष शुक्ला मर्डर केस का, जिसमें वो बरी हो गया था. इसकी सबसे बड़ी वजह थी कि केस में विकास दुबे और खुल्लर के अलावा पुलिस को भी आरोपी बना दिया गया था. फिर भीतरखाने ये बात हो गई कि भई हमें सजा हुई, तो तुम्हें भी होगी. एक-एक गवाह मुकर गया. नतीजा- जज एएच अंसारी के रिटायरमेंट के कुछ ही दिन पहले विकास दुबे बरी हो गया.
वहीं सिद्धेश्वर पांडेय केस में जज थे राम विजय हरि त्रिपाठी. बड़े हनुमान भक्त थे. उन पर उस वक्त काफी दबाव था. लेकिन मुझे याद है कि उन्होंने कहा था कि जहां कहा जाएगा, वहां फाइल ट्रांसफर कर दूंगा. लेकिन फैसला मैं नहीं करता, फैसला हनुमान जी करते हैं. तो फैसला तो वही होगा, जो सही होगा. बाद में विकास दुबे को इस मामले में दोषी करार दिया गया."
# वकील नरेश चंद्र त्रिपाठी :
"जब कोई सबूत नहीं, कोई गवाह नहीं, कोई मजबूत दलीलें नहीं, तो कहां से सजा होगी. आप सीधी सी बात समझिए कि जब पुलिस और इन्वेस्टिगेशन ऑफिसर कोई साक्ष्य पेश ही नहीं कर पाएंगे, तो वकील क्या ही कर लेगा. कहीं से भी कड़ी से कड़ी जोड़कर एक कहानी मुकम्मल करने की कोशिश ही नहीं की गई. लचर पैरवी और मुकदमा खत्म."
# वकील पारन नाथ :
"विकास के पास पॉलिटिकल बैकिंग थी. ये तो नहीं कह सकते कि उसका कॉन्टैक्ट लखनऊ तक था. लेकिन कानपुर, ख़ासकर कानपुर देहात में विकास की जबरदस्त पकड़ थी. ये पकड़ पुलिस से लेकर प्रशासन और राजनीति तक कायम थी. इसी वजह से वो लगातार तमाम केस में बचता चला गया. वो खुद प्रधान और जिला पंचायत सदस्य रहा. वर्तमान में विकास की पत्नी ऋचा भी जिला पंचायत सदस्य हैं. आसपास के गांवों में भी वो जिसे चाहता, उसे प्रधान बनवाता. सरकार किसी की भी हो, इन सब क्षेत्रों में वोट विकास की मर्ज़ी से पड़ते थे."
Untitled Design (8) ऋचा दुबे. विकास की पत्नी. जिला पंचायत सदस्य चुनी गई थीं.

इसके अलावा विकास के पास जबरदस्त राजनीतिक संरक्षण था. नाम न बताने की शर्त पर शिवली के ही एक व्यक्ति ने हमें बताया-
“संतोष शुक्ला केस के बाद विकास का पूरा ध्यान पैसे पर आ गया था. ज़मीनें कब्जाना, अनाप-शनाप पैसा बनाना. वो ख़ुद को ‘पंडित’ कहलाना पसंद करता था. पैसा था ही, तो लोगों की छोटी-मोटी मदद कर देता था. किसी की लड़की की शादी हुई, तो 10-20 हज़ार रुपए दे दिए. किसी को खेती-किसानी करनी है, तो मदद कर दी. बाकी खौफ तो था ही. इन सबके दम पर विकास के पास 20-25 गांवों का तगड़ा वोटबैंक था. इन वजहों से सरकारें तो बदलती रहीं, लेकिन विकास को राजनीतिक संरक्षण मिला रहा.”
न भू-माफिया में नाम, न टॉप अपराधियों में
विकास दुबे को लेकर कुछ और सवाल हैं, जिनके जवाब मिलने ज़रूरी थे.
पहला सवाल- विकास दुबे पर तमाम सरकारी ज़मीनों पर कब्ज़ा करने के आरोप थे. इसके बाद भी उसका नाम भू-माफिया की लिस्ट में क्यों नहीं था?
दूसरा सवाल- विकास का नाम शिवली और चौबेपुर थाने के टॉप अपराधियों की लिस्ट में भी नहीं था. क्यों?
तीसरा सवाल- विकास दुबे जैसा क्रिमिनल, जो करीब 30 साल से फल-फूल रहा था. क्या आपको लगता है कि उसके केस को पुलिस की तरफ से शुरू से ही ज़्यादा सख्ती से हैंडल किया जा सकता था?
इन तीनों सवालों के जवाब के लिए हमने कानपुर के तत्कालीन एसपी दिनेश कुमार से तमाम बार संपर्क करना चाहा. उनके पीआरओ से संपर्क किया. लेकिन न तो उनसे बात हो सकी, न मिलने का समय मिला. मेल पर सवाल भेजे, वहां भी जवाब नहीं. अब दिनेश कुमार एसपी के पद से हटा दिए गए हैं. लेकिन जवाब तो चाहिए थे. तो हमने सारा सिस्टम समझने के लिए  बात की उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह से. उन्होंने  बताया -
"विकास दुबे का पूरा प्रकरण एक प्रशासनिक त्रासदी थी. Administrative Tragedy. भू-माफिया की लिस्ट में नाम होने के लिए सीओ और तहसीलदार की तरफ से नाम भेजा जाता है. फिर ये लिस्ट जाती है एसडीएम या कलेक्टर के पास. लेकिन विकास ने आधे से ज़्यादा थानों को तो पे-रोल पर रख रखा था. अब ये जांच की बात है कि किस स्तर पर ग़लती रही. फिर रही बात थाने की टॉप क्रिमिनल की लिस्ट में नाम न होने की तो 2009 में तो विकास दुबे ने अपनी हिस्ट्रीशीट भी फड़वा दी थी. ये बात कहीं सामने नहीं आई. तो जब बुनियादी चीज़ ही नष्ट कर दी गई तो कहां से किसी लिस्ट में नाम आएगा."
ख़ैर, विकास दुबे पर 60 मुकदमे दर्ज हैं. छह बार गुंडा एक्ट, आठ बार गैंगस्टर एक्ट, छह बार क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट एक्ट और एक बार रासुका के तहत केस दर्ज़ किया गया. इसके बावजूद वो खुल्ला घूमता रहा.
एक मकड़ी जब जाल बुनती है, तो उसमें छोटे कीट-पतंगे तो फंस जाते हैं, लेकिन बड़े कीड़े जब जाल में उलझते हैं, तो न सिर्फ छिटककर अलग हो जाते हैं, बल्कि जाल में भी सुराख छोड़ जाते हैं. आप 2700 शब्द पढ़कर यहां इस लाइन तक पहुंचे हैं, तो हम उम्मीद करते हैं कि भावार्थ समझ गए होंगे. सुरक्षित रहिए.


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