बीजेपी के पूर्व नेता यशवंत सिन्हा ममता बनर्जी की पार्टी में शामिल हो गए. (फोटो-ANI)
भारतीय जनता पार्टी के पूर्व नेता यशवंत सिन्हा शनिवार, 13 मार्च को ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए. सिन्हा ने करीब तीन साल पहले भाजपा छोड़ दी थी. सिन्हा ने पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में TMC भवन पहुंचकर तृणमूल झंडा थामकर पार्टी की सदस्यता ली. पार्टी में शामिल होने के बाद उन्होंने कहा,
अटल जी के समय में भाजपा सर्वसम्मति में विश्वास करती थी, लेकिन आज की सरकार कुचलने और जीतने में विश्वास करती है. अकालियों और बीजेडी ने भाजपा छोड़ दी है. आज बीजेपी के साथ कौन खड़ा है? देश आज एक अभूतपूर्व स्थिति का सामना कर रहा है. लोकतंत्र की ताकत लोकतंत्र की संस्थाओं की ताकत में निहित है. न्यायपालिका सहित ये सभी संस्थान अब कमजोर हो गए हैं.
उन्होंने कहा कि नंदीग्राम में ममता बनर्जी पर हमले के दौरान ही उन्होंने टीएमसी में शामिल होने और ममता के समर्थन का फैसला कर लिया था.
IAS छोड़ राजनीति में आए
6 नवंबर, 1937 को पैदा हुए यशवंत सिन्हा ने पटना विश्वविद्यालय से इतिहास में ग्रेजुएशन किया. यहीं से राजनीति विज्ञान में मास्टर्स किया. साल था 1958. पढ़ाई खत्म करने के बाद बैचलर कोर्स के छात्रों को राजनीति विज्ञान पढ़ाते रहे और सिविल सर्विसेज की तैयारी करते रहे. 1960 में उनका सलेक्शन भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में हो गया. उनकी पहली नियुक्ति एसडीओ के तौर पर हुई गिरडीह सब डिविजन में. गिरडीह उस समय हज़ारीबाग जिले का हिस्सा हुआ करता था. अपने 24 साल के प्रशासनिक करियर में वो बिहार सरकार में वित्त और कॉमर्स मंत्रालय के डिप्टी सेक्रेटरी रहे. 1971 में उन्हें बतौर फर्स्ट सेक्रेटरी जर्मनी भेजा गया. 1973 में उनकी नियुक्ति जर्मनी में भारत के काउंसल के तौर पर हुई. यहां से वो लौटे 1974 में. 1980 से 1984 तक वो भूतल परिवहन मंत्रालय में जॉइंट सेक्रेटरी के तौर पर काम करते रहे. 1984 का साल भारत में राजनीतिक उथल-पुथल वाला था. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में चुनाव हो रहे थे. कांग्रेस के पक्ष में सहानुभूति की जबरदस्त लहर थी. ऐसे गाढ़े समय में यशवंत सिन्हा ने नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया. वो चंद्रशेखर के साथ पहले से संपर्क में थे. उन्हीं के प्रभाव में सिन्हा ने जनता पार्टी की सदस्यता ले ली. उन्हें पार्टी का महासचिव बनाया गया. 1984 के लोकसभा चुनाव में उन्हें जनता पार्टी की तरफ से हज़ारीबाग से मैदान में उतारा गया. नतीजों के हिसाब से कहा जाए तो यह अच्छी शुरुआत नहीं थी. वो महज 10727 लेकर तीसरे स्थान पर रहे. 1986 में यशवंत सिन्हा को जनता पार्टी के टिकट पर राज्यसभा भेज दिया गया. 1998 का साल था. बीजेपी के स्टार प्रचारक लाल कृष्ण आडवाणी हज़ारीबाग में चुनावी सभा करने आए हुए थे. सभा के दौरान उन्होंने अपनी पार्टी के उम्मीदवार के पक्ष में वोट मंगाते हुए कहा,
“आप यशवंत सिन्हा को ज्यादा से ज्यादा वोट देकर जिताइए. अगर हमारी सरकार बनती है तो हम उन्हें वित्त मंत्री बनाएंगे.”
आडवाणी के भाषण का असर पड़ा. यशवंत सिन्हा तीन लाख 23 हज़ार 283 वोट लेकर इस सीट पर पहले नंबर पर रहे. उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी थे सीपीआई के भुवनेश्वर प्रसाद मेहता. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में नई सरकार बनी. आडवाणी ने अपना वादा निभाया और यशवंत सिन्हा वित्त मंत्री बनाए गए.
12 साल में खेमा बदला
1984 में जनता पार्टी से सियासी पारी शुरू करने वाले यशवंत सिंह ने महज़ 12 साल में खेमा बदल लिया था. समाजवादी विचारधारा वाली पार्टी से सीधा दक्षिणपंथी पार्टी की शरण में. 13 मई 2004, लोकसभा चुनाव के नतीजे घोषित हुए. इंडिया शाइनिंग धोखा साबित हुआ. अगले दिन के अखबार में चुनाव हारने वाले बड़े चेहरों में सबसे पहला नाम था यशवंत सिन्हा का. 2009 के लोकसभा चुनाव में यशवंत सिन्हा फिर से हज़ारीबाग से सीट चुनावमें उतरे. वो अपनी सीट फिर से जीतने में कामयाब रहे, लेकिन बीजेपी सत्ता से बाहर ही रही. 2013 में आडवाणी एक और मौक़ा चाहते थे. इधर नरेंद्र मोदी को और इंतजारगवारा नहीं था. लिहाजा पार्टी के भीतर सत्ता के लिए संघर्ष हुआ. यशवंत सिन्हा गलत खेमे में खड़े थे. नरेंद्र मोदी के पास कार्यकर्ताओं का समर्थन और संघ का आशीर्वाद दोनों था. वो आडवाणी खेमे के अहम सिपहसालार माने जाते थे. ऐसे में मोदी खेमे की तरफ से उन्हें दरकिनार किया जाना शुरू किया गया.राजनीतिक पुनर्वास के चलते उनके बेटे जयंत सिन्हा को हज़ारीबाग से बीजेपी का टिकट दिया गया. जयंत सिन्हा पिता से विरासत में मिली सीट को बचा ले जाने में कामयाब रहे.