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2015 की एक और बेस्ट किताब: दोज़खनामा, पढ़िए यहां, मंटो और गालिब के किस्से

रविशंकर बल की किताब दोज़खनामा. जिसमें कब्र में लेटे दो खब्ती, नाम गालिब और मंटो, एक दूसरे को गुच्च करने में लगे हैं.

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फोटो - thelallantop
बड़े भाई प्रभात रंजन की फेसबुक पर पोस्ट देखी. इस किताब के बारे में. कॉपी पेस्ट कर यहां चेप दिया. क्यों. क्योंकि एक पवित्र काम कई दिनों से टल रहा था. साल 2015 की तीन सबसे अच्छी किताबों का जिक्र किया था. एक, रवीश कुमार की इश्क में शहर होना, दूसरी प्रभात रंजन की कोठागोई. और तीसरी ये किताब. दोजखनामा. जो रबिशंकर बल ने लिखी थी 2010 में. बांग्ला भाषा में. मगर हम हिंदी वालों को 2015 में मिली. वाया अनुवाद गली. शुक्रिया अमृता बेरा. अनुवाद के लिए. और शाबाश हार्पर हिंदी. इस उम्दा किताब को हम तक पहुंचाने के लिए. तो ये बेस्ट किताब है. ऐसा क्या है इसमें. एक आदमी है. झक्की सा. उसे तवायफों पर लिखना है. लखनऊ वाली. मगर अब कहां रहा वो जमाना. कोई सुनाने वाला ही नहीं मिला. मगर एक बारादरी में बुजुर्ग मिले. लोगों के मुताबिक सनकिया चुके हैं. बोले. मेरे पास एक नॉवेल है. मंटो का लिखा. क्या कहते हैं. मंटो ने तो सिर्फ अफसाने लिखे. नहीं-नहीं एक उपन्यास भी लिखा. छप नहीं पाया. परदादाओं से होते हुए हम तक आ पहुंचा. उसकी पांडुलिपि. ये देखो. बुजुर्ग ने कांपते हाथों से देखाया. देखा, पर यकीन नहीं हुआ. पर क्यों भला. देखा तो हमने अमरीका भी नहीं है. तो क्या अमरीका है ही नहीं. और ये खुदा वगैरह भी तो नहीं मिले अब तक आकर. इसलिए यकीन की बात तो बाद में देखेंगे. कि मंटो का है कि किसी चंटो ने पेल दिया कुछ उनके नाम पर. पर भला उसमें लिखा क्या है, ये तो बताओ लिखा है कि मंटो चचा गालिब से बातें करते हैं. कैसी कोरी गप्प. गालिब मरे और लगभग 100 साल बाद मंटो जन्नत रवाना हुए. गालिब यहां दिल्ली की मिट्टी में और मंटो उधर लाहौर में सुस्ता रहे हैं. पर ये तो किस्सा है न. तो कुतर्क नहीं करते. यूं समझिए कि मंटो मरकर भी नहीं माना. खुराफात जाए तो जाए कैसे. लगा गालिब गुरु को कोंचने. और दोनों के बीच फिर जो बतकही हुई. वही है दोजखनामा. इसमें और भी किरदार आते हैं. और शाही टुकड़े में पहली परत के नीचे जो मलाई सी मिठास आती है, वैसे ही शेर आते हैं. बीच-बीच में. इस किताब को पढ़कर दो बुजुर्ग याद आए. पहले, कई चांद थे सरे आसमां वाले शम्सुर्रहमान फारुकी. और दूसरे, असगर वजाहत. उनकी भी कमाल किताब आई है इस बरस. राजपाल पब्लिकेशन से. बाकरगंज के सैयद. मन ने चाहा तो आपको उसके भी टुकड़े यहीं पढ़वाएंगे जल्द. फिलहाल तो आप दोजखनामा के सफर पर निकलिए. इसमें इतिहास, इश्क, किस्सा, कहकहे, कसक. सब कुछ है. शुक्रिया

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सआदत हसन मंटो अगर मिर्ज़ा असदुल्ला ख़ान ग़ालिब हो जाता तो क्या होता? एक बार मैंने यही शफ़िया बेग़म से पूछा. भाईलोग, जानते हैं बेग़म ने क्या कहा? “मंटोसाहब, सारी ज़िंदगी आप किसी दूसरे का किरदार बनकर जीते रहे हैं. आप कब ख़ुद को ज़ाहिर करेंगे?” शफ़िया बेग़म तो नहीं समझती थीं, मंटो अपने बहुत से किरदारों के अंदर ही ज़िंदा है. उन चरित्रों के बग़ैर मंटो दरअसल कोई नहीं था. शफ़िया बेग़म ने मुझे कहा था, “मंटोसाहब, इन सब क़िस्सों को लिखकर क्या मिला है आपको? कोई कुछ नहीं देगा. इससे अच्छा है कि आप कोई दुकान खोल लें”. -और मैं अपने सिर के अंदर की दुकान का क्या करूँ बेग़म? -सिर के अंदर की दुकान? -तमाम क़िस्सों की दुकान. बेग़म, उस दुकान के बंद हो जाने से तो मंटो मर जाएगा. गुस्ताख़ी माफ़ भाईजान, बातों-बातों में मैं फिर बहुत दूर चला गया. मुझे पता है, आपलोग क़िस्सा सुनने के लिए बेताब हैं. पर आप मंटो को माफ़ करियेगा. इतनी यादें हैं, बात करते-करते वे मुझे पीछे खींचती रहती हैं, मैं उनसे बच नहीं पाता हूँ; अगर बच पाता तो पाकिस्तान में मुझे एक लावारिस कुत्ते की मौत नहीं मरनी पड़ती. लेकिन अब उन पंछियों की बात हो जाए. इस दुनिया की सबसे मासूम रूहों की बात. जानते हैं, हमारे दिल भी पंछी हैं, कभी पिंजरे में बंद रहते हैं तो कभी आसमानों में उड़ जाते हैं. मेरी बड़ी इच्छा थी, सारी रात एक गौरैया को सीने से लगाकर सोने की, लेकिन उनको तो पकड़ा नहीं जा सकता है, वे बड़ी चंचल होती हैं, एक पल बैठती हैं तो दूसरे ही पल उड़ जाती हैं, कभी चहक उठती हैं तो अगले ही पल उदास होकर कहीं देखती रहती हैं. चिड़ियाँ ऐसी ही होती हैं, दुनिया बस घूमने की जगह है, वे सिर्फ़ इतना ही जानती हैं. घूमो-फिरो-उड़ो और फिर अचानक किसी दिन मर जाओ. एक दिन सारे पंछियों ने मिलकर मजलिस जमाई. उनका कोई जहाँपनाह क्यूँ नहीं है, उन्हें अपने जहाँपनाह को ढूँढ़कर निकालना ही होगा. किसी भी खोज में एक मुर्शिद की तो ज़रूरत होती ही है. कौन होगा उनका मुर्शिद? सबने मिलकर तय किया कि हुदहुद ही उनका मुर्शिद हो सकता है. हुदहुद सुलेमान का सबसे चहेता पंछी था. वह शेवा नगर से बेग़म बिल्किस की ख़बर लाया करता था. इसीलिए सिर्फ़ हुदहुद ही मुर्शिद हो सकता था, वही उन्हें उनके बादशाह के पास पहुँचा सकता था. हुदहुद के सिर पर पंखों का कुंजवन था और होंठो पे बिसमिल्लाह. हुदहुद ने चिड़ियों से कहा, “देखो तुमलोग राजा की खोज में जा तो सकते हो, पर वो राह बहुत लम्बी और कठिन है. उस राह पर जाने के लिए, अपनी अबतक की ज़िंदगी को झाड़-पोंछकर साफ़ कर देना होगा; अगर सबकुछ छोड़कर भी तुम्हारे अंदर प्यार हो, तो मैं तुमलोगों को राजा के पास ले जा सकता हूँ”. सुनकर सबों के हौसले पस्त हो गए; हर पंछी कोई न कोई बहाना बनाने लगा, नहीं-नहीं हम इतने लम्बे सफ़र पर नहीं जा सकते. बुलबुल ने पहले ही कह दिया, “मैं कहीं नहीं जा सकती. मेरे मुहब्बत की राज़ की बातें बस एक गुलाब ही समझता है. उसे छोड़कर मैं कहाँ जाऊँगी? मेरी ज़िंदगी गुलाब को चाहते हुए ही गुज़र जाएगी”. हुदहुद ने उससे कहा, “बुलबुल, तुम सिर्फ़ बाहर की ख़ूबसूरती देख रही हो. गुलाब तुम्हारे लिए नहीं हँसता, ऐसा तो तुम्हें लगता है कि वह तुम्हारी ओर देखकर हँसता है और झर जाता है. पता है, वह तुम्हें देखकर क्यूँ हँसता है? वह थोड़ी देर में झर जाएगा, इस बात को तुम नहीं जानती, इसलिए. -लेकिन गुलबहार को छोड़कर मैं कहीं नहीं जाऊँगी मुर्शिद. -तो फिर एक क़िस्सा सुनो. हुदहुद अपने पंखों को दो-चार बार फड़फड़ा स्थिर होकर बैठ गया. उसने बड़बड़ाते हुए कहा, ‘बिसमिल्ला-अर-रहमन-अर-रहीम. ख़ुदा मुझे तौफ़ीक दे कि यह क़िस्सा मैं बुलबुल को ठीक से सुना सकूँ’. फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने तेज़ आवाज़ में कहा, ‘बुलबुल सुनो, इस क़िस्से को सुनो. उसके बाद तुम्हारी जो मर्ज़ी वो करना’. -जब गुलाब खिलता है, उसके आगे किसी क़िस्से की कोई क़ीमत नहीं रहती है, पीरसाहब’. -वो तो है, फिर भी सुन लो, क़िस्सा सुनने से तुम्हारा पेट गरम नहीं हो जाएगा. एक शहर में एक लड़की थी. उसकी ख़ूबसरती का बयान करना मुमकिन न था. उसके बाल बिन तारों की रात के आसमान की तरह काले थे, सारे बदन से कस्तूरी की गंध आती थी. क्या ही उसके देखने का अंदाज़ था, उसकी बातें चाशनी से भी ज़्यादा मीठी थीं. और उसके बदन का रंग? पद्मराग मणि का रंग भी फीका पड़ जाए. सच बात तो यह है कि जो भी उसे देखता, उसके प्यार में पड़ जाता. पर ख़ुदा की मर्ज़ी तो कोई नहीं जानता, एक दिन एक फ़क़ीर उस लड़की को देखकर उसकी मुहब्बत में पड़ गया. फ़क़ीर तब रोटी खा रहा था, उस लड़की की ख़ूबसूरती को देख उसके हाथ से रोटी गिर पड़ी. लड़की यह देख हँस दी. बस वो हँसी ही फ़क़ीर के लिए काल बन गई, वह बिल्कुल दीवाना हो गया. -उसके बाद? -फक़ीर सात सालों तक उस नवाब की हवेली के बाहर पड़ा रहा. वह सड़क के कुत्ते-बिल्लियों के साथ अपना वक़्त बिताता. अपने आशिक़ को पाने के लिए वह सात सालों तक रोता रहा. एक दिन हवेली के पहरेदारों ने उस फ़क़ीर को जान से मार देने का तय किया. उसका ख़ून कर दिया. फ़क़ीर को मार दिया जाएगा जानकर लड़की के मन में बहुत दया आई. एक दिन वह छुपकर आकर उससे बोली, “तुम एक अच्छे आदमी हो! लेकिन मैं एक नवाब की बेटी हूँ, मुझसे निकाह करने की बात तुम सोच भी कैसे सकते हो? देखो, यहाँ से चले जाओ और फिर कभी मत आना. यहाँ रहने से तुम्हें मार दिया जाएगा”. बुलबुल ने बेताब होकर पंख फड़फड़ाकर कहा, “फिर फ़क़ीर ने क्या कहा?” -फ़क़ीर ने कहा, “जिस दिन से मैंने तुम्हें देखा है, मेरे लिए ज़िंदगी और मौत एक हो गई है. अब अगर मुझे कोई मारने भी आए तो मुझे डर नहीं लगेगा. दुनिया की कोई भी ताक़त मुझे तुम्हारी हवेली से दरवाज़े से हटा नहीं सकती. तुम्हारे पहरेदार मुझे मार देना चाहते हैं न? तो ऐसा ही होने दो. पर उससे पहले तुम मुझे एक पहेली का जवाब दोगी?” -कौन सी पहेली? -तुम मेरी तरफ़ देखकर हँसी क्यूँ थी? -तुम सच में एक उजबक हो. तुम्हें देखकर मुझे रहम आया, मुझे देखते ही तुम्हारे हाथ से रोटी तक गिर पड़ी, हँसती नहीं तो और क्या करती? -उसके बाद? बुलबुल की आँखें भर आई थीं. हुदहुद ने कहा, “तुम्हारा गुलाब उस लड़की की तरह है. बस बाहर की ख़ूबसूरती”.

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इसी तरह हुदहुद पंछियों को तरह-तरह के क़िस्से सुनाकर, उनके दिए बहानों को हवा में उड़ाता रहा. तब पंछियों ने पूछा, “हमें अपने जहाँपनाह के लिए कुछ तोहफ़ा ले जाना चाहिए मुर्शिद, आप ही बताईये, हमें जहाँपनाह सिमुर्ग के लिए क्या ले जाना चाहिए?” -ज़िक्र. रूह का ज़िक्र. जहाँपनाह के दरबार में सबकुछ है. पर वह उस रूह को चाहते हैं, जो बहुत सी तक़लीफ़ें झेलकर, आग में जलकर, पाक साफ़ हुआ हो. कितने ही सालों तक वे पंछी हुदहुद के पीछे उड़ते रहे. उन्हें सात पर्वत पार करने पड़े. कितने पंछी राह में ही मर गए, कितनों में उड़ने की ताक़त ही नहीं रही. आख़िर में, काफ़ पहाड़ पर जहाँपनाह सिमुर्ग के महल के आगे सिर्फ़ तीस ही पंछी पहुँच सके. महल के दरबान उन्हें किसी तरह अंदर नहीं जाने दे रहे थे. पर इतना लम्बा सफ़र तय कर वे पंछी इतने शांत हो चुके थे कि दरबान की गालियों का भी उन्होंने बुरा नहीं माना. बस इंतज़ार करते रहे. आख़िरकार जहाँपनाह के ख़ास नौकर आकर उन्हें दरबार में ले गए. वो एक हैरत भरी घटना थी. वे पंछी जिधर भी देखते, बस ख़ुद को ही देख पाते, तीसों पंछी एक-दूसरे को देखकर हैरान रह गए. तो फिर, जहाँपनाह सिमुर्ग कहाँ थे? भाईलोग, फ़ारसी में सिमुर्ग का मतलब है तीस पंछी. वे अब अपनी ही रूह के आमने-सामने खड़े थे. उनके जहाँपनाह थे सिमुर्ग. वे सारे पंछी गा उठे, “तेरे नाम से जी लूँ, तेरे नाम पे मर जाऊँ…”

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कहते हैं आगे था बुतों में रहम हाय ख़ुदा जाने ये कब की बात

मंटोभाई, काले महल की ज़िंदगी में कितना भी ख़ालीपन क्यूँ न हो, तेरह साल की उम्र तक आगरा ने मुझे जो कुछ भी दिया, उसे मैं सारी ज़िंदगी नहीं भूल सका. आगरा का हवा-पानी मेरी रूह का हिस्सा थे. उसकी हर राह पर अब भी मेरी यादों के मोती-मनके बिखरे हुए हैं. जिस इश्क़ ने मेरे दिल को ज़ख़्मी किया, उसका खेलघर आगरा ही तो था. वहाँ के हर बाग़ के फूलों से अनचखा प्रेम झरा करता था, हर पेड़ की पत्तियाँ जैसे मुझे प्यार करना चाहती थी. सच कहूँ तो मंटोभाई, आगरा ने मेरे भीतर एक निखरा, नीला आसमान भर दिया था. अक्सर ही उस आसमान में चमक उठती थी - फ़लक आरा. वो कभी न ख़त्म होने वाली एक हँसी का झरना थी. मैं हैरान होकर उसकी ओर देखता रहता था और वो, वो सितारों की माला, मेरी तरफ़ देखकर हर पल रंग बदलती रहती थी. क्या ही उसके रंगों की छटा थी. वैसे रंग सिर्फ़ बादशाह अकबर के तस्वीरख़ाने की तस्वीरों में ही दिखते थे. कौन थी वह? मंटोभाई, सारी ज़िंदगी गुज़र गई, न मैं उसे पहचान सका और न ही कभी उसे छू सका. एक दिन बड़ा मज़ा आया. मैं चारबाग़ के रास्ते से अकेला चला जा रहा था. अचानक देखा कि बाग़ में मुझसे उम्र में काफ़ी बड़ी एक बेग़म साहिबा बैठी हुई हैं. शायद हफ़ीज़साहब ने उनके लिए ही लिखा होगा,

अगर आँ तुर्क-ए-शिराज़ी बदस्त आरद दिल-ए-मारा बख़ाल-ए हिंदबश बख़्शम समरकंद व बुख़रारा॥

उन्हें देखकर मैं किसी ख़ुमारी में चला गया. बाग़ में जाकर मैंने बहुत दूर खड़े होकर उन्हें पीछे से आवाज़ दी, “फ़लक आरा”. बेग़म साहिबा ने पलट कर भी नहीं देखा. बस अपने सिर से दुपट्टे को हटा, उन्होंने अपने घुँघराले बालों को फैला दिया, लगा जैसे सुराही से शराब बिखर गई हो. अहा, बेग़म साहिबा के बालों की ख़ूबसूरती को देख, मीर साहब का वो शेर याद आ गया,

उसके काकूल की पहेली कहो तुम बूझे मीर, क्या है ज़ंजीर नहीं, दाम नहीं, मार नहीं॥

मैंने फिर आवाज़ दी, “फ़लक आरा”. इस बार बेग़म ने मुड़कर देखा. उनकी हँसी का बयाँ करना मेरे लिए मुमकिन नहीं. उनकी हँसी देखकर मुझे फिर हाफ़िज़ साहब का वो शेर याद आ गया,

बादा-ए-गुलरंग ब तलख़ ब अजब ख़ुश्क बारे सुबूक नुक्ले अज लाले निगार ब नुक्ले अज याकूते जाम॥

-कौन हो तुम? उन्होंने हाथ के इशारे से मुझे बुलाया. मैं उनकी तरफ़ बढ़ा, वह भी मेरी तरफ़ बढ़ीं. मेरे हाथों को कसकर पकड़कर उन्होंने फुसफुसाकर कहा, “फ़लक आरा कौन है?” मैं उनकी ख़ूबसूरती के आगे कुछ नहीं कह पा रहा था. उन्होंने फिर पूछा, “फ़लक आरा कौन है?” इस बार मैंने हिम्मत करके कहा, “जानता नहीं जी”. -यह नाम तुम्हें कहाँ से मिला? -आगरा के आसमानों से जी. बेग़म साहिबा हँस पड़ी. - इंशाअल्लाह, क्या यह नाम आगरा के आसमान पर लिखा हुआ है? -जी. -तुमने देखा है? -जी. -कब देखा? -हर रोज़. -मीरसाहब का वो शेर जानते हो? -बताएँ जी. -फिर कुछ एक दिल को बेक़रारी है, सीन: जुआ-ए ज़ख़्मकारी है.

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सच मंटोभाई, मेरा दिल बेक़रार हो उठा. मैं उसे ही तो ढूँढ़ने निकला था, जिसकी चोट से मेरा कलेजा फिर से फटने को था. और मैं उसे ढूँढ़े बग़ैर जाता भी कहाँ? ज़िंदगी में मेरा अपना कोई घर नहीं था, लेकिन मुझे घर ढूँढ़ना ही था, मैं उस घर की तलाश में दोज़ख़ के बाद दोज़ख़ पार करता गया. वो राह एक लम्बी सर्द रात थी, अर-रहमान अर-रहीम, मैं चुपचाप चीख़ता रहा, अल बशीर, मुझे बचा लो, मुझे बस एक बार के लिए ख़ुशनसीब कर दो. उसके बाद क्या हुआ जानते हैं, मंटोभाई? बेग़म साहिबा मेरा हाथ पकड़ चारबाग़ के अंदर घूमते-घूमते, एक पिंजरे के सामने आकर खड़ी हो गईं. पिंजरे के भीतर बहुत सारी मैना उड़ रही थीं. बेग़म साहिबा ने मेरी तरफ़ देखा. जानते हैं उन्होंने मुझे कैसे देखा, मंटोभाई? जिस नज़र के लिए हफ़ीज़ साहब ने लिखा है,

अला ऐ आहु-ए-बहशी कुजाई मरा बा तुस्त बिस्यार आश्नाई॥

इस शेर को सुनने के बाद अगर कोई किसी नाज़नीन की ओर नज़र उठा कर देख सके, तो मैं कहूँगा, वह नहीं जानता, इश्क़ किसे कहते हैं. इसके बाद तो सिर्फ़ आप उस नाज़नीन की क़दमबोसी कर कह सकते हैं,

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी के हर ख़्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले॥

हाँ, मंटोभाई मेरी भी ऐसी हज़ारों ख़्वाहिशें थीं जिनपर जान निकलने को हो जाए, मेरी बहुत सी ख़्वाहिशें पूरी भी हुईं, लेकिन फिर भी कम ही हुईं. पर जितनी कम पूरी हुईं, उन्हीं के लिए ही तो हम ज़िंदा रहते हैं, हैं न? इंतज़ार करते रहते हैं, फिर भी प्याला नहीं भरता.