हां तो मेहरबान कद्रदान साहित्य की शान, हमारे पाठक महान आपने ख़बर की हेडिंग पढ़ी और अंगूठा लगा दिया लिंक पर. अच्छा किया. इससे पहले कि आप दिमाग़ लगाकर चिढ़ उठें या बैकस्पेस दबा दें हम एक राज़ फ़ाश किए देते हैं. ये जो महारानी विक्टोरिया के जड़ाऊ ताज का क़िस्सा है, इसमें न तो कहीं विक्टोरिया हैं और न कहीं उनका ताज. लेकिन क़िस्सा इतना मज़ेदार है कि इसके अंत में न तो आपको महारानी विक्टोरिया याद आएंगी और न ही उनका ताज.
जब महारानी विक्टोरिया ने अपना ताज उतारकर निराला के सिर पर रख दिया था!
चिट्ठी पर ‘निराला’ लिख दिया तो मोहल्ले के किसी घर में चिट्ठी पहुंचे वो उसी पते पर पहुंचती थी जहां उसे पहुंचना होता था.

इलाहाबाद का इलाक़ा दारागंज. गंगा के किनारे एक क़फ़नी रंग का मकान. चिट्ठी लिखने वाले के लिए इस मकान का पता ज़रूरी नहीं हुआ करता था. चिट्ठी पर ‘निराला’ लिख दिया तो मोहल्ले के किसी घर में चिट्ठी पहुंचे वो उसी पते पर पहुंचती थी जहां उसे पहुंचना होता था. आज उन्हीं सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की बर्थ एनिवर्सरी है.

एक सभा में महादेवी वर्मा के साथ बैठे हुए महाकवि निराला, लंबी चौड़ी कद काठी की वजह से निराला अलग ही पहचान में आते थे इस तस्वीर में निराला गले में गमछा डाले बैठे हैं
आप सोच रहे होंगे महाकवि निराला आख़िर क्वीन विक्टोरिया से मिले कब? न तो तब कोई कल्चरल एक्सचेंज टाइप कुछ था और न ही निराला किसी डेलिगेशन को लीड कर रहे थे. क्वीन विक्टोरिया के ताज वाली कहानी खुद निराला ने अपनी ही मौज में सुनाई थी और वो भी मशहूर शायर फ़िराक गोरखपुरी की भरी महफ़िल में, गंगा नदी के किनारे.
फ़िराक के यहां हमेशा की तरह शब्दों की रात बीतते हुए भी जवान हो रही थी साहित्य की महफ़िल सजी हुई थी. निराला को भी बुलाहट थी. महफ़िल में फ़िराक के अलावा हिंदी के कई जाने माने लोग मौजूद थे.

दूरदर्शन पर दिखाए गए एक शो में काली शेरवानी में बैठे फ़िराक गोरखपुरी, माहौल ऐसा ही हो जाता था जहां फ़िराक बैठ जाते थे
आधी रात के क़रीब निराला पधारे. भांग छन ही रही थी. निराला ने आते ही आदेश के स्वर में कहा कि मुझे सबसे ऊंचे सिंहासन पर बिठाओ. लोग समझ गए कि बाबा आज मूड में हैं .आदेशानुसार सिंहासन टाइप मचिया पर निराला को बैठाया गया. निराला जैसे-जैसे भांग छानते जाते थे, वैसे-वैसे होश में आते जाते थे. रात निराला का मुंह ताकती भौंचक खड़ी थी. निराला के क़िस्से सुनने के लिए गंगा की लहरें भी ठुड्डी पर हाथ टिकाए बैठ सी गई थीं.
कि अचानक निराला सबकी हंसी ठिठोली को बीच में काटते हुए बोले, ‘ तुम लोग अब चुप हो जाओ, मैं और फ़िराक़ जब महारानी विक्टोरिया से मिले थे, अब तुम सभी को वही क़िस्सा सुनना होगा.' लोगों ने फ़िराक की ओर देखा, कि आप कब गए महारानी से मिलने? लेकिन फ़िराक़ ने इशारा किया कि बस अब सुनते जाओ यारों.
महाकवि निराला ने अंग्रेज़ी में बोलना शुरू किया. और जो कहा उसका सार संक्षेप कुछ यूं था–हम दोनों महारानी से मिलने गए. वहां पहले तो हमने मन भर कविता पाठ किया और फ़िराक़ ने जम के शेर सुनाए.जनता झूम के मदमस्त हुई जाती थी. लोगों की फ़रमाइशें पूरी ही न हों. महारानी तो एकटक निहारती थीं मुझे . आख़िर में उन्होंने अपना ताज मेरे सिर पर रख दिया और कहा कि अब से महाकवि निराला ही दुनिया के सर्वसम्राट होंगे. फ़िराक़ तो वापस आ गए लेकिन मैं वहीं रहा कुछ दिन और बाद में वापस आया.
निराला ने क़िस्सा ख़त्म किया तो सबसे पहले फ़िराक़ खड़े हुए और तालियों से सम्राट का अभिनंदन किया. बात आई गई हो गई. तब से निराला जब भी मिलते तो फ़िराक़ उन्हें यूं ही छेड़ने के इरादे से कह उठते ‘आप अपनी प्रजा की कोई ख़बर ही नहीं लेते महाराज.’

यही क़िताब है जिससे ये क़िस्सा लिया गया है
ये जो क़िस्सा हमने आपको सुनाया हमने एक क़िताब से लिया है. क़िताब का नाम है ‘मैंने फ़िराक को देखा है’ और इसे लिखा है रमेश चंद्र द्विवेदी ने. रमेश ने कई बरसों तक फ़िराक गोरखपुरी की संगत की है. उन्हें गुरु मानते हैं. इस क़िताब के आख़िर में फ़िराक की वो चिट्ठियां और नोट्स भी हैं जो उन्होंने रमेश चंद्र द्विवेदी को लिखे थे.
अथ श्री निरालाय गाथा.
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