एक दिन किसी ग़लतफ़हमी के चलते मोनू पर चोरी का इल्ज़ाम लगता है और उसे जेल हो जाती है. अब मुहल्ले के लिए सोनू तो डॉक्टर सोनू ही रहता है. लेकिन मोनू बन जाता है, चोर मोनू. मुहल्ले वाले उसे इसी नाम से बुलाते हैं. लोग कहते हैं, देखो एक ही घर में परवरिश हुई, एक ही मां-बाप का खून. फिर भी दोनों भाई कितने अलग. कुछ सालों बाद असलियत सामने आती है. पता चलता है कि चोरी मोनू ने नहीं किसी और ने की थी. और मोनू जेल से रिहा हो जाता है.
चूंकि उसकी बेगुनाही साबित हो चुकी है, इसलिए वो मुहल्ले वालों से कहता है उसे ‘चोर मोनू’ कहकर ना बुलाया जाए. मुहल्ले वाले कहते हैं, ठीक है, अबसे तुम्हारा नाम, ‘मोनू, जो चोर नहीं है’ हो जाएगा. इसके बाद मोनू का नाम जब भी लिया जाता. साथ में जोड़ा जाता, ‘मोनू, जो चोर नहीं है.' अब सवाल ये है कि तर्क की दृष्टि से कोई भी मोनू को चोर नहीं कह रहा, इसके बावजूद मोनू सदा-सदा के लिए चोर हो गया है.
‘मोनू, जो चोर नहीं है’ और ‘चोर मोनू’, इन दो नामों के बीच ही आज की कहानी का सारा मर्म छुपा है. और ये कहानी सिर्फ़ एक मोनू की नहीं है बल्कि समाज के एक बड़े तबके की है, जिनके लिए कहा गया कि तुम अपराधी नहीं हो, पर जब भी तुम्हारा नाम आएगा, साथ ही जोड़ा जाएगा, ‘वो, जो अपराधी नहीं है’ क्या है ये कहानी, आइए जानते हैं- पेशेवर और जन्मजात अपराधी किसी बुरी चीज़ को काला कहना भी रंगभेद का अवशेष है इसलिए हम इसे काला ना कहकर गोरा क़ानून कहेंगे. गोरों ने ही बनाया भी था, तो उस लिहाज़ से भी सही बैठता है. 1857 की क्रांति में ब्रितानिया सल्तनत के ख़िलाफ़ पहली बार एक व्यापक विद्रोह हुआ. आदिवासी और घुमंतू जनजाति के लोगों ने इसमें बड़े पैमाने पर हिस्सा लिया था. इसके तुरंत बाद पुलिस ने समाज में अलग-अलग तबकों को आपराधिक घोषित करना शुरू कर दिया. हालांकि ऐसा कोई क़ानून नहीं था और तब अदालत ने भी ऐसे किसी पूर्वाग्रह को ग़लत माना था.

1857 के दौरान लोध/लोधा/लोधी, केवट/मल्लाह, खटिक, पासी, गौड़ एवं गूजर समुदायों ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध भीषण सशस्त्र विद्रोह किया था. (तस्वीर wikimedia)
तब सरकार को लगा कि इसके लिए एक क़ानून बनाया जाए. 1870 में ऐसे एक क़ानून पर चर्चा शुरू हुई. 1871 में ब्रिटिश संसद में बिल पेश हुआ. बिल पेश करने वाले अंग्रेज अधिकारी का नाम था TV स्टीफ़न्स. उन्होंने कहा,
"प्राचीन काल से लोग जाति व्यवस्था के हिसाब से ही अपना काम चुन रहे हैं. बुनाई और बढ़ई जैसे काम वंश में चलते आए हैं. इससे ज़ाहिर है कि अपराध भी वंश के हिसाब से आगे बढ़ता होगा. ऐसे वंशानुगत अपराधी रहे होंगे, जिन्होंने अपने पूर्वजों का पेशा अपनाया होगा."बिल पर बात रखते हुए एक अंग्रेज दार्शनिक, जेम्स फ़िट्जेम्स स्टीफ़न ने कहा,
"जब हम पेशेवर अपराधियों की बात करते हैं, तो इससे हमारा मतलब उन जनजातियों से है, जिनके पूर्वज आदिकाल से अपराधी रहे हैं. ऐसी जातियां अपराध करने के लिए अभिशप्त हैं. उनके वंशज भी तब तक अपराध करते रहेंगे, जब तक ठगों की तरह इनकी पूरी जनजाति का सफ़ाया नहीं कर दिया जाता.“क्रिमिनल ट्राइब्स ऐक्ट इस ‘जीनियस लेवल’ तर्क के आधार पर आज ही के दिन यानी 12 अक्टूबर 1871 को ये बिल पास हुआ. नया क़ानून बना. नाम दिया गया, Criminal Tribes Act (CTA). यानी आपराधिक जनजाति क़ानून. सबसे पहले ये क़ानून उत्तर भारत में लागू किया गया. जिन जनजाति के लोगों को CTA में शामिल किया गया, उनके लिए कुछ चीजें अनिवार्य कर दी गईं. जैसे थाने जाकर खुद को रजिस्टर करवाना. लोगों की पहचान करके उन्हें लाइसेंस दिए गए.
क़ानून के तहत एक से दूसरी जगह जाते हुए अगर आप बिना लाइसेंस के पकड़े गए तो 3 साल की जेल का प्रावधान था. क़ानून में ये भी जोड़ा गया कि पुलिस बिना किसी कारण आपराधिक जनजाति के किसी भी व्यक्ति को गिरफ़्तार कर सकती थी. आदिवासी और बंजारे कहे जाने वाले इन लोगों की ज़िंदगी नर्क बना दी गई. टैक्स लेने का काम ज़मीदारों को सौंपा गया था. उन्होंने इन जनजाति समूहों के लोगों को उनकी ज़मीन से बेदख़ल कर दिया. इधर-उधर घूम कर अपना पेट पालने वाले लोगों के लिए आजीविका के साधन ख़त्म हो गए.
इस क़ानून को अपराध रोकने के नाम पर लाया गया था. असर हुआ ठीक उल्टा. रोज़ी रोटी के लाले पड़े तो लोगों ने चोरी डकैती के काम शुरू कर दिए. सरकार ने कहा- देखा, हमने बोला था ना! ये लोग तो हैं ही अपराधी.

जेम्स फ़िट्जेम्स स्टीफ़न (तस्वीर: wikimedia)
इसके बाद कानून को और सख़्त करते हुए 1876 में CTA को बंगाल और मद्रास में भी लागू कर दिया गया. इस गोरे क़ानून का सबसे बड़ा दंश बच्चों ने झेला. 1897 में इस क़ानून में एक संशोधन जोड़ा गया. इसके तहत प्रांतीय सरकारों को ये शक्ति मिली कि वो आपराधिक जनजाति के बच्चों को उनके माता-पिता से अलग कर दे. इन बच्चों के लिए अलग सेटलमेंट बनाए गए. वहां इन बच्चों के रिफ़ॉर्म के लिए शिक्षा दी जाने लगी.
चीन में वीगर मुसलमानों के साथ जो आज हो रहा है, बिलकुल वैसा ही. अंग्रेज़ी में इसके लिए एक शब्द है, जेनॉसायड. यानी एक विशेष धर्म, जाति समूह के लोगों को निशाना बनाया जाना. ट्रांसजेंडर समुदाय भारत में उस दौरान ट्रांसजेंडर समुदाय खुद को किसी विशेष जनजाति से जोड़कर नहीं देखता था. लेकिन उन्हें भी इस क़ानून के तहत आपराधिक घोषित कर दिया गया. उन्हें दो श्रेणियों में विभाजित कर दिया गया. या तो वो इज़्ज़तदार हो सकते थे या फिर संदेहजनक.
संदेहजनक होने का क्राइटेरिया था, महिलाओं की तरह कपड़े पहनना और पब्लिक में परफ़ॉर्म करना, यानी नाच गाना आदि. क़ानून के तहत जो लोग ऐसा करते, उन्हें जेल में डाले जाने का प्रावधान था. 1930 में ग़ुलामी की सुरंग से आज़ादी की किरणें छनकर आने लगीं तो CTA पर भी बवाल मचा. नेहरू ने तब कहा,
“CTA के राक्षसी प्रावधान नागरिक स्वतंत्रता की उपेक्षा करते हैं. किसी भी जनजाति को इस प्रकार अपराधी के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है. यह क़ानून सभ्य समाज के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ है.”ख़ैर 1947 में सुरंग पार हुई और आज़ादी की सुबह आई. नए संविधान और क़ानूनों पर चर्चा शुरू हुई तो अंग्रेजों के बनाए क़ानूनों को रिव्यू किया गया. घड़ी की सुई सबसे पहले CTA पर ही अटकी. एक आज़ाद देश में ऐसा क़ानून किसी को मंज़ूर नहीं था. 1949 में CTA को निरस्त कर दिया गया. इसके बाद 1952 में CTA में शामिल क़रीब 200 जनजातियों को ‘विमुक्त’ घोषित कर दिया गया. विमुक्त यानी एक्स क्रिमिनल्ज़. पिक्चर का हैपी एंड यहीं हो जाना चाहिए था. लेकिन अंग्रेज गए थे, अंग्रेज़ीयत नहीं. हैबिचुएल ऑफ़ेंडर्स ऐक्ट विलेन ने बैक डोर से दुबारा एंट्री मारी. सरकार ने उसी साल एक नया क़ानून पास किया, ‘habitual offenders act’ यानी आदतन अपराधी क़ानून. क्या था इस क़ानून में? क़ानून के तहत आदतन अपराधी वह व्यक्ति है जो सब्जेक्टिव और ऑब्जेक्टिव प्रभावों का शिकार रहा हो. इन प्रभावों के कारण ऐसे व्यक्ति को अपराध की आदत लग गई हो और वह समाज के लिए ख़तरा हो.

सन् 1947 में जब देश आजाद हुआ, तब 128 जनजातियों, जिनकी आबादी भारत की कुल जनसंख्या का एक प्रतिशत थी, पर ‘अपराधी’ का ठप्पा लगा था. (सांकेतिक तस्वीर: wikimedia commons)
यानी नया लबादा पहनाकर सरकार ने एक मरे हुए करैक्टर को दुबारा इंट्रोड्यूस कर दिया था. अंग्रेजों ने जिन्हें जन्मजात अपराधी कहा था, नए क़ानून में उन्हें आदतन अपराधी बता दिया गया. क़ानून के तहत ऐसे हैबिचुएल ऑफ़ेंडर्स को लिस्ट किए जाने और उन पर निगरानी बनाए रखने का प्रावधान था. नाम बदल दिया गया. लिस्ट वही रही.
6 अक्टूबर के आर्टिकल में हमने आपको IPC के बारे में बताया था. न्याय की मूल अवधारणा है कि जब तक दोष साबित ना हो जाए, व्यक्ति निर्दोष माना जाएगा. ये क़ानून इस अवधारणा का सरासर उल्लंघन करता था.
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असर सिर्फ़ क़ानून तक सीमित नहीं रहा. समय के साथ जनजातियों की आपराधिक पहचान को ना केवल पुलिस और प्रशासन बल्कि समाज ने भी आत्मसात कर लिया. नया क़ानून इस समस्या का सिर्फ़ एक पहलू था. विमुक्त शब्द इन जनजातियों के लिए हमेशा का कलंक बन गया. आप कहेंगे कि इस एक शब्द का क्या ही असर होगा. इसके लिए कुछ साल पहले का एक किस्सा सुनिए, ट्रिपल मर्डर में पारधी पकड़े गए 21 दिसंबर 2000 को द टाइम्स ऑफ़ इंडिया में एक खबर छपी.
वाडिया हाउस, ह्यू रोड स्थित एक बंगले में 3 लोगों की बेरहमी से हत्या कर दी गई. 93 साल की डॉली अवारी, उनका बेटा रूसी, उम्र 71 साल और बहु रौशन, उम्र 70 साल. हत्या तब की गई थी, जब रात में तीनों सो रहे थे. घर से पैसा और ज़ेवरात ग़ायब थे. जिसका मतलब था कि लूट के इरादे से हत्या हुई है.
सिलसिलेवार तरीक़े से बूढ़े लोगों की हत्या का ये इकलौता मामला नहीं था. पुलिस पर दबाव था कि केस को जल्द सुलझाया जाए. पुलिस के हिसाब से केस जल्द सुलझा भी लिया गया, 2 साल में.
हत्या के शक में तीन लोगों को पकड़ लिया गया. पकड़े जाने की खबर जब एक अख़बार में छपी तो उसकी हेडलाइन थी,
‘ह्यू रोड पर हुए ट्रिपल मर्डर में पारधी पकड़े गए.’
पारधी किसी एक व्यक्ति का नाम नहीं बल्कि पूरी एक जनजाति का नाम है. और ये सरकार द्वारा चिन्हित विमुक्त जनजातियों का हिस्सा है.
अगर इसी हेडलाइन में लिखा होता, ‘ह्यू रोड पर हुए ट्रिपल मर्डर में ‘बनिया’ पकड़े गए.’ या ‘ह्यू रोड पर हुए ट्रिपल मर्डर में ब्राह्मण पकड़े गए.’ तो हंगामा खड़ा हो जाता. हंगामा होना लाज़मी भी है. एक पूरी जाति के लोगों को चंद लोगों की करामात के लिए दोषी तो नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन इस खबर से किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा. वर्तमान स्थिति पंजाब में सांसी, महाराष्ट्र में पारधी, गुजरात में वाघारी, पश्चिम बंगाल में लोढ़ा जैसी आज भी कई विमुक्त जनजातियां हैं, जिनको समाज में अपराधी की दृष्टि से देखा जाता है. करोड़ों ऐसे लोग आज भी बहिष्कृत के रूप में रहते हैं. इनके रहने का ठिकाना है गांव के बाहर की झोपड़ियां या फिर शहरों में फुटपाथ. इनके बच्चों को स्कूल जाने का मौक़ा मिल भी जाए तो वहां उन्हें अपराधी कहकर ताना मारा जाता है. बहुत कम लोग उन्हें नौकरी देने को तैयार हैं. यह सब आज भी लागू होता है, CTA के निरस्त होने के आधी सदी बाद भी.

‘आपराधिक प्रवृत्ति’ को वैज्ञानिक को आधार बताकर, कई जनजातियों के लोगों को गिरफ्तार किया जाने लगा और उन्हें दूसरे स्थान पर भेज दिया गया. (तस्वीर: wikimedia)
आज़ादी के बाद से विमुक्त जनजातियों के उत्थान के लिए कुल आठ कमेटियों और दो राष्ट्रीय आयोगों की सिफारिशों पेश हो चुकी हैं. लेकिन आरक्षित वर्ग में शामिल ना होने के कारण इन्हें सरकार की अधिकतर योजनाओं का कोई लाभ नहीं मिल पाता. विमुक्त और खानाबदोश जनजातियों के रूप में जाने जानी वाली इस सामाजिक श्रेणी में आज भी भारत के 6 करोड़ लोग शामिल हैं.
आरक्षण की ज़ोरदार बहसों में इन लोगों का कोई रेप्रेज़ेंटेशन नहीं है. असंगठित होने कि कारण राजनीतिक वर्ग में भी इनकी आवाज़ उठती नही दिखती.
जबकि सामाजिक न्याय की बात में इन लोगों का नाम सबसे आगे होना चाहिए. अश्वेत लोगों के साथ हुए अन्याय की कहानी हो या यहूदी नरसंहार, ट्विटर हैश टैग्ज़ में अन्याय की ये कहानियां आए दिन दाखिल होती रहती हैं. लेकिन आधिकारिक और अनाधिकारिक रूप से अपराधी घोषित 6 करोड़ लोगों की ये कहानी यदा-कदा ही सुनाई देती है. उम्मीद है कि हमारा समाज और सरकार इन लोगों के प्रति संवेदनशीलता दिखाते हुए इनके सिर्फ़ नागरिक होने का हक़ देगी, बजाय ऐसे नागरिकों के जो ‘अपराधी नहीं हैं’.