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चरखी दादरी विमान हादसा: भारत का सबसे बड़ा क्रैश, बीच हवा में टकरा गए दो प्लेन

7 किलोमीटर के इलाक़े में जगह-जगह पासपोर्ट, खाने के पैकेट, चप्पलें, खुले सूटकेस बिखरे थे. बहुत से भले लोग थे जो लाशों के लिए चादरें लेकर आ गए थे लेकिन लाशें बचीं ही कहां थी. जब 500 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ रहे दो विमानों में भिड़ंत हो तो यात्रियों-चालकों के बचने की गुंजाइश कम ही बची थी. और 93 लोग ऐसे थे जिनकी शिनाख्त कभी नहीं हो पाई.

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चरखी दादरी में हुई दुर्घटना के बाद दोनों प्लेन का मलबा

ये साल 1996 है. इस्लामाबाद से एक फ़्लाइट दिल्ली की तरफ़ आ रही है. ये US एयरफ़ोर्स का प्लेन है. 20 हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर कैप्टन टिमथी प्लेस को एक आग का गोला दिखाई देता है. आसमान में 40 मील की दूरी पर. कैप्टन टिमथी मन ही मन सोचते हैं, क्या कोई रॉकेट लॉन्च हुआ है? आग का गोला रंग बदलने लगता है. तो कैप्टन टिमथी अपने साथी कैप्टन रॉड्नी मार्क्स से पूछते हैं, “कहीं ये मिसाइल तो नहीं है ना?”

इससे पहले कि दोनों कुछ समझ पाते, आग का गोला दो हिस्सों में टूटता है, और ज़मीन की ओर गिरने लगता है. स्थिति की गंभीरता को देखते हुए, कैप्टन टिमथी दिल्ली के एयर ट्रैफ़िक कंट्रोल (ATC) को कांटैक्ट करते हैं. उस दिन दिल्ली में ATC इंचार्ज वी.के. दत्ता ड्यूटी पर थे. दत्ता कुछ बटन दबाकर किसी से रेडियो कांटैक्ट इस्टैब्लिश करने की कोशिश करते हैं. कोशिश, कोशिश ही रह जाती है और दूसरी तरफ़ से कोई जवाब नहीं आता.
 

कैप्टन टिमथी को दिखाई देने वाला वो आग का गोला कैसे पैदा हुआ था? और ATC इंचार्ज VK दत्ता किससे कांटैक्ट करने की कोशिश कर रहे थे? आइए जानते हैं. दुनिया में सुरक्षा मानकों की जब भी बात होती है, स्विस चीज़ थियोरी का ज़िक्र आता है. पनीर के वो टुकड़े जो टॉम एंड जेरी में आपने देखें होंगे. स्विस चीज़ के एक टुकड़े में कई सारे छेद होते हैं.

थियोरी:  अगर चीज़ के टुकड़ों को एक के ऊपर एक करके रख दिया जाए. तब इसकी संभावना एकदम शून्य है कि सभी टुकड़ों के कुछ छेद एक सीध में आ जाएं. और चीज़ के ढेर के दो सिरों के बीच कोई रास्ता बन जाए. इसी तरह अगर सुरक्षा की कई लेयर्स बनाई जाएं. और उन्हें एक के ऊपर एक लगाया जाए. तो हर लेयर में कुछ छेद हो जाने पर भी सुरक्षा बनी रहेगी. किसी एक लेयर की कमी को उसके ऊपर वाली लेयर ढक देगी. और कोई अनहोनी हुई भी तो सारी लेयर्स के बीच रास्ता नहीं बना पाएगी.

ये तो थी थियोरी की बात. लेकिन ये इंसानी थियोरी है. और असलियत हर इंसानी थियोरी में छेद ढूंढ ही लेती है. जैसे कि साल 1996 में नवंबर की एक शाम को हुआ था. चेन और इवेंट्स की शुरुआत देखिये. 12 नवंबर 1996 को दोपहर 3 बजकर 55 मिनट का वक्त था. कजाकिस्तान एयरलाइंस की एक फ़्लाइट शिमकेंट से उड़ान भरती है. ये इल्यूशिन-76 नाम का एक मॉडिफ़ायड रशियन मिलिट्री प्लेन था, एक चार्टर प्लेन जिसमें 10 क्रू मेम्बर और 27 यात्री बैठे हुए थे. 3 घंटे की इस फ़्लाइट का डेस्टिनेशन दिल्ली था. विमान में बैठे अधिकतर यात्री पड़ोसी देश किर्गिस्तान के थे. जाड़ों का मौसम नज़दीक था. ऐसे में ये लोग दिल्ली में ऊनी कपड़ों की ख़रीदारी करने पहुंचे थे. ताकि उन्हें मध्य एशिया के बाज़ारों में बेच सकें.

फ़्लाइट के पायलट थे 44 वर्षीय कैप्टन एलेग्जेंडर शेरेपनोव. उनके साथ को-पायलट एरमेक झेंगिरो, फ़्लाइट नैविगेटर, फ़्लाइट इंजीनीयर और एक रेडियो ऑपरेटर भी मौजूद था. सोवियत पायलट उड़ान में माहिर थे. लेकिन उनकी अंग्रेज़ी तंग हुआ करती थी. इसीलिए कम्यूनिकेशन के लिए ट्रांसलेटर भी फ़्लाइट में साथ रहता. एक और दिक़्क़त थी. उड़ान के दौरान बाकी दुनिया फ़ीट और नौटिकल माइल्स में कम्युनिकेट करती थी. लेकिन सोवियत एविएशन मेट्रिक सिस्टम को फ़ॉलो करता था. 

नई ओपन स्काई पॉलिसी 

भारत में तब इकॉनमी में उदारीकरण की शुरुआत हो चुकी थी. इसका फ़ायदा एविएशन सेक्टर को भी हुआ था. नई ओपन स्काई पॉलिसी के चलते प्राइवेट ऑपरेटर्स को भी परमिट मिलने लगे थे. एयर ट्रैफ़िक बढ़ रहा था. और उसी के साथ बढ़ने लगी थी अतिरिक्त सुरक्षा उपायों की मांग. सिर्फ़ दो महीने पहले ही सरकार ने इसके मद्देनज़र एक पैनल का गठन किया था. लेकिन उसकी रिपोर्ट आनी अभी बाकी थी.
 

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सउदी अरेबियन एयरलाइन का प्लेन बोईंग 747 (तस्वीर: wikimedia commons)

दिल्ली का इंदिरा गांधी इंटरनेशनल हवाई अड्डा एक और समस्या से जूझ रहा था. IGI के आसपास का एयर स्पेस भारतीय एयर फ़ोर्स कंट्रोल करती थी. पब्लिक फ़्लाइट्स इस हिस्से का उपयोग नहीं कर सकती थीं. एक नैरो कॉरिडोर था. लैंडिंग और टेक ऑफ़, दोनों के लिए उसी का इस्तेमाल करना पड़ता था. शाम 6.30 बजे कज़ाक प्लेन क़रीब 80 मील की दूरी पर पहुंच गया था. वो लैंड करता, उससे पहले एक और फ़्लाइट डिपार्चर के लिए स्केड्यूल्ड थी, सऊदी अरेबियन एयरलाइंस, फ़्लाइट 763. ये एक बोईंग 747 विमान था.

फ़्लाइट में 313 यात्री बैठे थे. इनमें 231 भारतीय थे. जिनमें से अधिकतर ऐसे थे जो काम की तलाश में खाड़ी के देशों की तरफ़ जा रहे थे. फ़्लाइट डिपार्चर का टाइम था 6 बजकर 33 मिनट. ATC इंचार्ज वी.के. दत्ता 16 साल से एयर ट्रैफ़िक कंट्रोल की ज़िम्मेदारी निभा रहे थे. उनका काम था इंटरनेशनल सिविल एविएशन ऑर्गनाइजेशन (ICAO) के स्टैंडर्ड का पालन करना. अधिकतर फ़्लाइट्स में तब ट्रैफ़िक कोलिजन अवॉइडेंस सिस्टम (TCAS) नहीं लगा होता था. इसलिए दत्ता का काम था, ये इंश्योर करना कि दो फ़्लाइट्स के बीच कम के कम 1000 फ़ीट की दूरी हो. दिल्ली ATC में सिर्फ़ एक पुराने जमाने का रडार लगा था. जिसमें प्लेन ब्लिप्स की तरह दिखाई देते थे. इससे उनकी दिशा और दूरी का अंदाज़ा तो लग जाता था. लेकिन ऊंचाई और स्पीड मापने का सिस्टम मौजूद नहीं था. ऊंचाई और स्पीड के लिए ATC इंचार्ज को पायलट के कहे पर निर्भर रहना पड़ता था. 

6 बजे फ़्लाइट 763 का रूटीन इंस्पेक्शन हुआ. टेल नैविगेशन लाइट में कुछ दिक़्क़त आ रही थी. इसलिए उसे बदला गया. और ठीक 6 बजकर 33 मिनट पर फ़्लाइट ने टेक ऑफ़ किया. कुछ ही मिनटों में फ़्लाइट 10 हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर थी. पायलट ने ATC से और ऊंचाई पर पहुंचने के लिए क्लियरेंस मांगा. ATC ने कन्फ़र्म किया और विमान 14 हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर पहुंच गया. पाइलट ने और ऊपर जाने की परमिशन मांगी लेकिन दत्ता ने इसकी परमिशन नहीं दी.

पायलट ने ATC को कन्फ़र्मेशन भेजा,
“Saudi 763 (will) maintain one four zero (14,000).”
यानी
"फ़्लाइट 14 हज़ार फ़ीट पर ही रहेगी"

घड़ी में 6 बजकर 39 मिनट का वक्त हुआ था.दूसरी तरफ़ कज़ाक फ़्लाइट KZ 1907 में पायलट एलेग्जेंडर शेरेपनोव, डिसेंट यानी प्लेन को नीचे उतारने की तैयारी कर रहे थे. उन्होंने भी ATC को कांटैक्ट किया. दत्ता ने उनसे कहा कि वो 15000 फ़ीट तक डिसेंट कर सकते हैं. KZ 1907 तब दिल्ली से 46 मील की दूरी पर था.
15000 फ़ीट की ऊंचाई पर ATC की तरफ़ से एक और मेसेज भेजा गया.
“Identified traffic 12 o'clock, reciprocal, Saudia Boeing 747 at ten miles, likely to cross in another five miles. Report; if in sight.”
यानी
"आपके 12 o’क्लॉक  पर ट्रैफ़िक दिखाई रहा है. साउदी बोईंग 747 आपसे 10 मील की दूरी पर है. अगले 5 मील में वो आपको क्रॉस करेगी. अगर प्लेन आपको दिखाई दे रहा है तो रिपोर्ट करें."

कज़ाक फ़्लाइट के पायलट ने दत्ता से दूरी कन्फ़र्म करने को कहा. दत्ता ने जवाब दिया,
“Traffic is at 8 miles now FL 140 (14,000),” यानी "ट्रैफ़िक अब आठ मील की दूरी पर है. और उसकी ऊंचाई 14 हज़ार फ़ीट है."
KZ 1907 ने जवाब दिया, “हम दूसरी फ़्लाइट को देखने की कोशिश कर रहे हैं.” 

इसके बाद दत्ता को कोई और मेसेज नहीं मिला. ATC रडार की स्क्रीन पर घूमते ब्लिप्स एक -दूसरे में फ्यूज़ हुए और ग़ायब हो गए. दत्ता को अनहोनी का अंदेशा हो चुका था. 

यहां से क़रीब 130 किलोमीटर दूर हरियाणा के चरखी दादरी में किसान खेत का काम निपटा कर घर लौट रहे थे.

बचपन में हमने पढ़ा है प्रकाश की गति ध्वनि की गति से तेज होती है. लेकिन आवाज़ की खूबी है कि आप तक पहुंचने के लिए ज़रूरी नहीं कि आप उसकी ओर मुख़ातिब हों. आसमान से एक ज़ोर के धमाके की आवाज़ आई तो लोगों की नज़रें आसमान की तरफ़ उठीं. वहां आग के दो गोले थे जो धरती की ओर बढ़ रहे थे. इतना तेज धमाका हुआ था कि लोगों के घर हिलने लगे थे.
घरों के अंदर बैठे लोगों को लगा भूकंप आ गया, तो वो खुले मैदानों की ओर भागे. इंडिया टुडे ने तब अपनी रिपोर्ट में बताया था कि 600 मारुति कारों के बराबर मलबा ज़मीन में बिखरा पड़ा था. दोनों प्लेन सरसों और कपास के खेतों में गिरे थे. क़िस्मत अच्छी थी कि मलबे की जद में कोई घर या इंसान नहीं आया था.

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साउदी अरेबियन फ़्लाइट की पैसेंजर लिस्ट (तस्वीर: getty)

7 किलोमीटर के इलाक़े में जगह-जगह पासपोर्ट, खाने के पैकेट, चप्पलें, खुले सूटकेस बिखरे पड़े थे. बहुत से भले लोग थे जो लाशों के लिए चादरें लेकर आ गए थे. लेकिन लाशें बचीं ही कहां थी. जब 500 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ रहे दो विमानों में भिड़ंत हो तो यात्रियों चालकों के बचने की गुंजाइश कम ही बची थी. और 93 लोग ऐसे थे जिनकी शिनाख्त कभी नहीं हो पाई. मानव अंग का ऐसा ढेर जमा हुआ कि धर्म के ठेकेदार इस बात को लेकर भिड़ गए कि कौन सा हाथ मुसलमान है और कौन सा पैर हिंदू. पैसेंजर लिस्ट में नामों के हिसाब से अनुपात में मानव अंगो का ढेर बांटा गया. आधों को मुस्लिम प्रथा से दफ़नाया गया और आधों की हिंदू रीति से अंत्येष्टि की गई. 

हादसे के बाद इन्वेस्टिगेशन की बारी थी. लीड कर रहे थे KPS नायर. नायर तब डायरेक्टरेट जनरल ऑफ़ सिविल एविएशन (DGCA) में डेप्युटी डायरेक्टर हुआ करते थे. उनका पहला काम था दोनों प्लेन के ब्लैक बॉक्स ढूंढना. जिनमें मौजूद कॉकपिट वॉइस रिकॉर्डर (CVR) और फ्लाइट डाटा रिकॉर्डर (FDR) की मदद से दुर्घटना के कारणों का पता लगाया जा सकता था. CVR में पिछले 30 मिनट की रिकॉर्डिंग मिलती और FDR से ऊंचाई, स्पीड, फ़्लाइट पाथ, इंजन पावर आदि का पता लगता. बहुत कोशिशों के बाद 13 नवंबर की शाम तक दोनों ब्लैक बॉक्स मिल पाए.

ए.के. चोपड़ा जो DGCA में नॉर्थ रीजन की एयर सेफ़्टी के इंचार्ज थे, वो भी वहां मौजूद थे. उन्होंने एक अजीब बात नोट की. कज़ाक प्लेन का आगे का हिस्सा पूरी तरह सही सलामत था. इसका मतलब था दोनों प्लेन सामने से नहीं टकराए थे. इसके अलावा दोनों प्लेन्स की कंडीशन देखकर पता चलता था कि कज़ाक प्लेन नीचे की ओर से साउदी जा रहे प्लेन से टकराया था. अब सिर्फ़ एक सवाल बचा था. कज़ाक प्लेन को 15 हज़ार फ़ीट पर उड़ने की परमिशन मिली थी. और साउदी प्लेन को 14 हज़ार फ़ीट की. तो दोनों में टक्कर हुई कैसे? और ये कि हादसा किसकी गलती से हुआ था?
 

फ़्लाइट भारत की ज़मीन पर गिरी थी. इसलिए इंटरनेशनल नॉर्म के हिसाब से तहक़ीक़ात भारतीय एजेंसियों को करनी थी. सबकी निगाहें दिल्ली ATC पर थीं. क्या इंचार्ज VK दत्ता कोई गलती कर गए थे? दोनों प्लेन और ATC के बीच हुई फ़ाइनल बातचीत की ट्रांसक्रिप्ट छानी गई तो पता चला VK दत्ता की कोई गलती नहीं थी. उन्होंने बिलकुल सही इन्स्ट्रक्शन दिए थे. तस्वीर साफ़ हुई जब CVR की रिकॉर्डिंग सामने आई. हुआ क्या था? याद रखें कि कज़ाक फ़्लाइट को लैंड करना था, वो डिसेंट में थी. जबकि साउदी फ़्लाइट टेक ऑफ़ करके ऊंचाई पर जा रही थी, यानी असेंट.
कज़ाक प्लेन में रेडियो ऑपरेटर इगोर रैपे थे. उन्होंने ही ATC से 15000 फ़ीट तक डिसेंट का क्लियरेंस लिया था. नैविगेटर थे ज़ाहनबेक अरिपबाएव. उन्होंने फ़ीट को मेट्रिक में कन्वर्ट कर पायलट को बताया. पायलट को इंफ़ो मिली कि वो 4570 मीटर तक उतर सकते थे.
 

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दोनों प्लेंस का मलबा (फ़ाइल फोटो)


6.38 मिनट पर रैपे ने पायलट से दोबारा कन्फ़र्म करने को कहा. ठीक इसी समय साउदी फ़्लाइट के पायलट ATC से 14 हज़ार फ़ीट तक यानी ऊपर जाने का क्लियरेंस ले रही थी. इसके 9 सेकेंड बाद रेडियो ऑपरेटर रैपे ने दत्ता से कहा कि वो 15 हज़ार फ़ीट तक पहुंच चुके हैं. लेकिन रैपे का ये अंदाज़ा एकदम ग़लत था. फ़्लाइट डेटा रिकॉर्डर से बाद में जो जानकारी मिली उसके अनुसार कज़ाक फ़्लाइट 16438 फ़ीट तक ही पहुंची थी. दत्ता ने कज़ाक पाइलट को ये भी बताया गया था कि 14000 पर एक दूसरी फ़्लाइट है जो 5 मील की दूरी पर है. अंतिम रिपोर्ट के अनुसार सारा कन्फ़्यूज़न यहीं पर हुआ. 14 हज़ार फ़ीट पर दूसरे प्लेन की बात की गई थी. लेकिन कज़ाक फ़्लाइट के पाइलट को शायद ये समझ आया कि उन्हें 14000 फ़ीट तक उतरना है.

6.39 पर रैपे ने पायलट से कहा, इसी लेवल पर बने रहो. पायलट ने रैपे से पूछा, हमें किस लेवल पर रहने को कहा गया था? रैपे ने जवाब दिया, Keep the 150th, don't descend! यानी “15 हज़ार के लेवल पर बने रहो. और नीचे नहीं जाना” 6.40 पर पायलट ने ऑटो पायलट बंद किया. और फ़्लाइट इंजीनियर से ऐक्सेलरेट करने को कहा. इसके ठीक 4 सेकेंड बाद रैपे चिल्लाए ,
“Get to 150 because on the 140th, uh that one !”यानी "15000 फ़ीट पर ले चलो क्योंकि 14000 फ़ीट पर दूसरा प्लेन, वो रहा."

'दैट वन' बट 'टू लेट' 'दैट वन ’, इन शब्दों से अंदाज़ा लगता है कि उन्हें साउदी प्लेन दिखाई दे गया था. रिपोर्ट के अनुसार संभवतः रैपे की नज़र ऑल्टिमीटर पर पड़ी थी. जिसमें 14 हज़ार फ़ीट दिखाई दे रहा था. जबकि उन्हें तो 15 हज़ार फ़ीट पर रहना था. पाइलट ये सब मेट्रिक सिस्टम में समझ रहा था. और इसी में सारा कन्फ्यूजन हुआ. कज़ाक प्लेन की CVR रिकॉर्डिंग यहीं पर ख़त्म हो गई. साउदी प्लेन के CVR के एंड में एक इस्लामिक प्रार्थना सुनाई दी. जो मृत्यु के समय बोली जाती है. इससे पता चलता है कि साउदी प्लेन को कज़ाक प्लेन दिखाई दे गया था. लेकिन तब तक इतनी देर हो चुकी थी कि कोई कुछ नहीं कर पाया. नवंबर-दिसंबर 1996 के इंडिया टुडे मैगजीन के अंक में इस दुर्घटना की भयावहता का ब्यौरा मिलता है.

टक्कर के समय विमानों की ऊंचाई: समुद्र तल से लगभग 14,500 फीट, 
रफ्तार: 500 किमी प्रति घंटा.
मलबे का वजन: 500 टन से ज्यादा, यानी
600 मारुति कारों की आसमान से बरसात
होने के जैसा नजारा.
मलबे का फैलाव: 5 किमी के घेरे में. दोनों
विमानों के फैले मलबे के बीच दूरी 7 किमी.
कुल मृतकः 351 (312 सऊदी एअरवेज
के विमान में और 39 कजाक विमान में थे.)
शवों की स्थिति: 257 काफी हद तक सही
सलामत, 62 बुरी तरह जले हुए और 32 पूरी
तरह नष्ट.
मृतकों की नागरिकता: 23 भारतीय, 8
सऊदी, 9 नेपाली, 3 पाकिस्तानी, 2
अमेरिकी, ब्रिटिश और 1 बांग्लादेशी. 86
की शिनाख्त नहीं हो सकी.

इस सब के बीच एक सवाल ये था कि पायलट्स एक-दूसरे के प्लेन को देख क्यों नहीं पाए? इसका कारण था मौसम. घने बादलों के कारण प्लेन एक-दूसरे को देखने में असमर्थ थे. इस दुर्घटना में 349 लोगों की मृत्यु हुई थी. और ये आज तक दुनिया में हुआ सबसे बड़ा मिड ऐयर हादसा है. इस हादसे के बाद दिल्ली से उड़ने वाली सभी फ़्लाइटस में ट्रैफ़िक कोलिजन अवॉइडेंस सिस्टम (TCAS) लगा होना अनिवार्य कर दिया गया. एयर फ़ोर्स से फ़्लाइट कॉरिडोर का एक और हिस्सा लिया गया. लैंडिंग और टेक ऑफ़ के लिए अलग पाथवेज निर्धारित किए गए. इस दुर्घटना का एक बड़ा कारण भाषा और स्पीच के कारण हुआ कन्फ़्यूज़न था. इसलिए 1998 में भारत सहित 100 देशों ने ICAO की जनरल असेंबली में एक प्रपोज़ल रखा. जिसमें निहित था कि 'लैंग्विज प्रोफिसिएंसी स्टैण्डर्ड' यानी भाषा में निपुणता को लाइसेंसिंग का अनिवार्य अंग बनाया जाए. 

वीडियो: प्लेन क्रैश के वक्त क्या हुआ? सामने आया हादसे का पहला वीडियो