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रघुवीर सहाय, जो पूछते थे राष्ट्रगीत में भारत-भाग्य-विधाता कौन है

आनेवाला खतरा पहचान लेने वाले कवि र.स. को आज गणतंत्र दिवस पर याद कीजिए.

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रघुवीर सहाय
रघुवीर सहाय आज अगर वह जीवित होते तब 87 बरस के होते, लेकिन 26 बरस पहले ही उनका देहांत हो गया. 87 बरस से ज्यादा की उम्र के कई साहित्यकार अभी हिंदी साहित्य संसार में संलग्न और सक्रिय हैं. लेकिन रघुवीर सहाय इतना नहीं जी पाए. इतना जीते चले जाने को जैसे उन्होंने बेहयाई माना. भारतीय लोकतंत्र और समाज को लेकर ज्यादा बेचैन रहने वाले कवि हिंदी में ज्यादा जी नहीं पाते. इस तथ्य को एक सरलीकरण मानकर नकारा भी जा सकता है. लेकिन रघुवीर सहाय की मृत्यु को सामान्य मृत्यु की तरह स्वीकार नहीं किया गया. एक कवि-आलोचक ने उन पर लिखे मोनोग्राफ में इस मृत्यु को अपमान, अन्याय और बेचैनियों की परिणिति बताया है.

‘‘कितना दुःख वह शरीर जज्ब कर सकता है?

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वह शरीर जिसके भीतर खुद शरीर की टूटन हो’’

गए दिनों हिंदी में रघुवीर सहाय पर हमले तेज हुए हैं. एक कवयित्री ने उन्हें मध्यवर्गीय संवेदना का लिजलिजा कवि कहा तो इसी कवयित्री के समकालीन एक कवि ने कहा कि रघुवीर सहाय को ओवर इस्टीमेट किया गया है. इस कवि का मानना है कि रघुवीर सहाय के पास एक बौद्धिक खीझ है, लेकिन कोई विकल्प उनके पास नहीं है. भारतीय राजनीति के प्रतिसंसार का जो मॉडल उनके पास है, वह किसी काम का नहीं है. इस पर रघुवीर सहाय के ही शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि वे तमाम संघर्ष जो रघुवीर सहाय ने नहीं किए अब अपना हिसाब मांगने चले आए हैं. लेकिन साहित्य की भीतरी राजनीति से ग्रस्त ये हमले रघुवीर सहाय की प्रतिष्ठा और प्रासंगिकता रत्ती भर भी कम नहीं कर पा रहे हैं. भारतीय लोकतंत्र और समाज की विडंबनाएं उन्हें बराबर एक बहुउद्धृत कवि के रूप में स्वीकार्य बनाए हुए है.
रघुबीर सहाय
रघुबीर सहाय

‘‘देश के सभी सिनेमाघरों में फिल्म से पहले राष्ट्रगान चलाना अनिवार्य होगा.’’ कुछ वक्त पहले आए सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद रघुवीर सहाय की कविता ‘अधिनायक’ वायरल हुई :

‘‘राष्ट्रगीत में भला कौन वह

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भारत-भाग्य-विधाता है

फटा सुथन्ना पहने जिसका

गुन हरचरना गाता है

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मखमल टमटम बल्लम तुरही

पगड़ी छत्र चंवर के साथ

तोप छुड़ा कर ढोल बजा कर

जय-जय कौन कराता है

पूरब-पश्चिम से आते हैं

नंगे-बूचे नरकंकाल

सिंहासन पर बैठा

उनके तमगे कौन लगाता है

कौन कौन है वह जन-गण-मन

अधिनायक वह महाबली

डरा हुआ मन बेमन जिसका

बाजा रोज बजाता है’’ 

रघुवीर सहाय की कविता संकट का विकल्प भले ही न देती हो, लेकिन वह संकट में संयम जरूर देती है. उन्होंने लोकतंत्र में प्रजा होने के विवेक को गढ़ा है. उन्होंने राष्ट्र की असल अवधारणा को अपनी कविता के इलाके में विवेचित किया है. व्यवस्था में व्यर्थ करार दे दिए गए व्यक्ति को उन्होंने विकल्प से पहले बोलने का साहस देने की कोशिश की.
रघुबीर सहाय की एक कविता
रघुबीर सहाय की कविता 'पढ़िए गीता'.

गए कुछ दिनों का भारतीय समाज अगर देखें तो वह नोटबंदी के प्रभावों/दुष्प्रभावों से कतारों में बेहाल रहा. ऐसे में क्रोध है पर विरोध नहीं है. सहसा मिलने वाली उस शक्ति का अभाव है, जिसे मुश्किल परिस्थितियां अपने साथ लाती हैं. बड़े फैसलों के बाद छोटे सच हाथ लग रहे हैं, जो बहुत थोड़े ही वक्त में एक बहुत बड़े झूठ में गर्क हुए जा रहे हैं. लोग एक अनिश्चतता, अनिर्णय और व्यर्थता में थकते चले जा रहे हैं. फैसले अलग हो सकते हैं, लेकिन अपने मूल प्रभाव में यह सब कुछ पहली बार नहीं हो रहा है. इस तड़प और असहायताबोध से रघुवीर सहाय भी गुजरे थे.
कविता को उसमें उपस्थित प्रिकासिटी ही प्रासंगिक बनाती है. बेहतर कविताएं इसलिए भी बेहतर होती हैं क्योंकि वे आनेवाला खतरा पहचानती हैं. रघुवीर सहाय की एक कविता ने ‘आनेवाला खतरा’ कई बरस पहले कैसे पहचाना था, देखिए :

‘‘औरतें पिएंगी आदमी खाएंगे -- रमेश

एक दिन इसी तरह आएगा -- रमेश

कि किसी की कोई राय न रह जाएगी -- रमेश

क्रोध होगा पर विरोध न होगा

अर्जियों के सिवाय -- रमेश

खतरा होगा खतरे की घंटी होगी

और उसे बादशाह बजाएगा -- रमेश’’

हिंदी दिवस पर रघुवीर सहाय की कविता ‘हमारी हिंदी’ को याद करना, अब हिंदी में एक अनुष्ठान बन चुका है. हिंदी की जरा भी दुर्दशा कहीं दिखती है, रघुवीर सहाय याद आते हैं :
रघुवीर सहाय
 

‘‘कहनेवाले चाहे कुछ कहें

हमारी हिंदी सुहागिन है सती है खुश है

उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे

और तो सब ठीक है पर पहले खसम उससे बचे

तब तो वह अपनी साध पूरी करे’’

हिंदी में अंग्रेजी का डर कैसे काबिज है, यह भी उन्होंने अपनी ‘डर’ शीर्षक से एक बहुत छोटी-सी कविता में पकड़ा था :

‘‘बढ़िया अंग्रेजी

वह आदमी बोलने लगा

जो अभी तक

मेरी बोली बोल रहा था

मैं डर गया’’ 

रघुवीर सहाय ने कविता में सदा उस बोली के लिए संघर्ष किया जिसके दो अर्थ न हों. वह घुमा-फिराकर भी सीधी बात कहना जानते थे. वह चीख की जरूरत और उसे द्विअर्थी बनाकर पेश किए जाने की साजिश को समझते थे. इस समझ ने ही उन्हें हिंदी में अनूठा बनाया और इस अनूठेपन ने ही उन्हें दीर्घजीवी. इस समझ को बराबर समझते चलने की जरूरत है :

एक बार जान-बूझकर चीखना होगा

जिंदा रहने के लिए

दर्शक-दीर्घा में से

रंगीन फिल्म की घटिया कहानी की

सस्ती शायरी के शे’र

संसद-सदस्यों से सुन चुकने के बाद.

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