BREXIT कन्फर्म हो गया. ब्रिटेन अब यूरोपियन यूनियन से बाहर है. BREXIT पर यूनाइटेड किंगडम में 23 जून को वोटिंग हो गई थी. 46 मिलियन लोग वोट के लिए रजिस्टर्ड थे. मौसम बहुत ख़राब हो गया था पर वोटर टर्नआउट ज्यादा था. लोगों ने दबा के वोटिंग की. प्रधानमन्त्री डेविड कैमरून तीन महीने बाद इस्तीफ़ा दे देंगे. जबकि चुनाव तीन साल बाद हैं. ब्रिटेन का अलग होना उनको भारी पड़ गया. टोटल 382 एरियाज हैं. सुबह तक 319 एरियाज में 217 पर छोड़नेवाले 'लीवर्स' कैंप आगे चल रहे थे. उस समय तक 51% छोड़ने के पक्ष में और 48% रहने के पक्ष में वोट कर चुके थे. उलट-फेर की आशा थी पर यही रेशिओ बना रहा. एक दिन पहले तक ब्रिटेन के अखबार दम साधे कन्फ्यूज करनेवाली हैडलाइन दे रहे थे. पर BBC ने 'भविष्यवाणी' की थी कि ब्रिटेन यूरोपियन यूनियन से बाहर हो जायेगा. कई लोग ये अफवाह भी फैला रहे थे कि जहां ज्यादा पढ़े-लिखे लोग होंगे वो 'रहने' के पक्ष में वोट करेंगे. इससे दुनिया के मार्किट में खलबली मची है. 1985 के बाद POUND अभी तक के सबसे निचले स्तर पर है. मार्किट से लोग पैसा उठा रहे हैं. जापान में ट्रेडिंग कुछ देर के लिए रोक दी गयी है. सबसे ज्यादा फर्क जापान को ही पड़ेगा. इंडिया में लोग निगाहें गड़ाए बैठे हैं. ब्रिटेन बाहर रहे या अन्दर हमको बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा. शुरू में लगा कि वोटिंग साथ रहने के पक्ष में जा रही है. पर SUNDERLAND की वोटिंग के बाद मामला उलट गया. यहां छोड़ने के पक्ष में बहुत ही ज्यादा मार्जिन से वोटिंग हुई. वोटिंग तो वोटिंग है. आखिरी क्षणों में भी पलट जाएगी.
आइये पढ़ते हैं BREXIT की पूरी कहानी:
पिछले 400-500 सालों से ब्रिटेन की राजनीति उनकी अपनी ही रही है. अपना काम वो स्टाइल में करते रहे हैं. सबको सिखाते भी रहे हैं. हमने तो उनकी संसदीय व्यवस्था अपने यहां लागू कर ली. पर पिछले एक-दो सालों में ब्रिटेन की राजनीति भी चारों ओर चर्चा का विषय बनी हुयी है. एक रेफरेंडम में स्कॉटलैंड ब्रिटेन से अलग होते होते बचा था. अभी ब्रिटेन के एग्जिट को लेकर काफी गहमा-गहमी है. अमेरिका और ईरान की तरह इंडिया वाले भी पूरी दुनिया को अपनी ही नज़र से देखते हैं. हमारी नज़र में यूरोपियन यूनियन एक जॉइंट फॅमिली है. बड़ा भाई घर छोड़ के जा रहा है. इस आधार पर हम लोग तो ब्रिटेन को जलील कर देंगे. वहां भी सभी लोग इसके पक्ष में नहीं है.

ब्रिटेन में इसके दो ग्रुप हैं: 'लीवर्स' यानी छोड़ने के पक्ष में. 'रिमेनर्स' यानी जो यूरोपियन यूनियन में ही रहना चाहते हैं. इसीलिए वोटिंग हो रही है.
यूरोपियन यूनियन क्या है और कैसे बना?
यूरोपियन यूनियन एक कस्टम्स यूनियन है. मतलब यूनियन के एरिया से बाहर के देशों से व्यापार के लिए कानून एक होगा. दूसरे वर्ल्ड वॉर के बाद यूरोप के देशों की स्थिति बहुत खराब हो गई थी. उनके गुलाम देश भी आज़ाद होने लगे. पैसा हाथ में था नहीं. अमेरिका, रूस और कई देश बिजनेस बढ़ाने लगे थे. तो 1956 में छः यूरोपियन देशों फ्रांस, उस समय का पश्चिम जर्मनी, इटली, बेल्जियम, नीदरलैंड और लक्सेम्बर्ग के बीच Treaty of Rome साइन हुई थी. इसके अंतर्गत European Economic Community बनाई गई. इस कम्युनिटी का मतलब यूरोप के देशों के लिए 'कॉमन मार्केट' बनाना था. जिससे आपस में सामान खरीद-बेच में कोई दिक्कत नहीं हो. पेपरवर्क में भी और ले आने ले जाने में भी. अपने इंडिया में कैसे यूपी-बिहार से कर्नाटक तक सामान ले जाने में खटिया खड़ी हो जाती है. GST भी पारित नहीं हो पाया है. ये सब दिक्कतें वहां दूर की गईं.
कभी हां, कभी ना
उस समय ब्रिटेन यूरोपियन देशों को यूरोपियन यूनियन में एक साथ होते देखते रहा पर मेम्बर नहीं बना. पर पांच साल के अन्दर समझ आ गया कि जॉइन करने में ही फायदा है. कंजर्वेटिव पार्टी सत्ता में थी. प्रधानमंत्री हेरॉल्ड मैकमिलन ने टांका भिड़ाना शुरू कर दिया. पर विपक्षी लेबर पार्टी ने चरस बो दिया. हेरॉल्ड अभी प्रेमपूर्वक समझाते इससे पहले फ्रांस के प्रेसिडेंट चार्ल्स द गॉल ने ब्रिटेन के प्रस्ताव को वीटो कर दिया. 1973 में अगले कंजर्वेटिव पार्टी के पीएम एडवर्ड हीथ ने किसी तरह ब्रिटेन की यूरोपियन यूनियन में एंट्री करा दी. पर 1974 में लेबर पार्टी सत्ता में आ गई. लेबर पार्टी में दो गुट हो गए. एक रहना चाहता था, दूसरा छोड़ना चाहता था. इसके चलते ब्रिटेन के इतिहास में पहली बार एक मुद्दे पर रेफरेंडम कराया गया. 1975 में. रहने के फेवर में आया. 1980 में लेबर पार्टी के कुछ नेताओं ने सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के नाम से नई पार्टी बना ली और विरोध करते रहे.
चीजें बदलीं
यूरोपियन इकनॉमिक कम्युनिटी भी बदली. पहले यूरोपियन कम्युनिटी और फिर यूरोपियन यूनियन बन गया. आज छः से बढ़ के कुल 28 मेम्बर हैं. रूस से अलग हुए यूक्रेन और इस्लामी देश टर्की भी इसके सदस्य बनना चाहते हैं.
यूनियन का अलग स्टाइल है
यूरोपियन यूनियन में सारे मेंबर्स राज्यों की तरह हैं. यूनियन का एक पार्लियामेंट है. जिसमें हर मेम्बर देश से सदस्य हैं. इनका एग्जीक्यूटिव यानी सरकार टाइप का भी है: यूरोपियन कमीशन जिसमें प्रेसिडेंट और एक कैबिनेट भी है. इसके बनाये कानून सारे देशों पर लागू होते हैं.
ब्रिटेन यूनियन का दामाद है
ब्रिटेन और इसका सहोदर आयरलैंड दोनों ऐसे देश हैं जो यूरोपियन यूनियन में रहते हुए भी इससे अलग हैं. यूनियन में 1992 में एक Mastricht Treaty साइन हुई. इसमें यूनियन की एक करेंसी बनाने का प्रस्ताव किया गया/ बाद में 'यूरो' नाम से ये करेंसी आई. फिर एक 'Schengen Agreement' भी हुआ. इसमें व्यापार के लिए बॉर्डर पर पेपरवर्क ख़त्म कर दिया गया. ब्रिटेन और आयरलैंड दोनों ही बातों से जुदा हैं. इनके लिए दोनों शर्तें लागू नहीं होती.
लेबर और कंजर्वेटिव का झंझट
बाद में लेबर और कंजर्वेटिव के झंझट में मामला उल्टा हो गया. लेबर पार्टी वर्कर्स का एजेंडा लेकर चलती है. इनको महसूस हुआ कि यूरोपियन इकनॉमिक कम्युनिटी में रहने में ही भलाई है. इन्होंने अपना राग बदल दिया. पर कंजर्वेटिव वालों का दांव उल्टा पड़ गया. वो फ्री मार्किट तो चाहते थे पर राजनीतिक और कानूनी गठजोड़ नहीं. ब्रिटेन की आयरन-लेडी मार्गरेट थैचर कंजर्वेटिव पार्टी से पीएम थीं. उन्होंने खूब जोर लगाया. कि बहुत कानून न बन पायें. पर उनकी पार्टी में भी दो गुट बन गए थे. इस गुटबाजी के चलते 1990 में थैचर हार गईं. यही नहीं इस गुटबाजी ने कंजर्वेटिव पार्टी को तीन चुनाव हरा दिए. जब कंजर्वेटिव पार्टी के डेविड कैमरून प्रधानमन्त्री बने, अपने लोगों को हिदायत दिए कि बकबक न करिए. पर धीरे से ये भी कह दिया कि मामले को हम देखेंगे.
मेन दिक्कत क्या है?
1.कंजर्वेटिव पार्टी को मेन दिक्कत फ्री लेबर मूवमेंट से है. क्योंकि यूनियन सिंगल मार्किट है. किसी देश का इंसान किसी भी देश में काम कर सकता है. 2.बाद में जुड़े पूर्वी यूरोप के देशों से भी लोग आ-जा सकते हैं. ये देश थोड़े गरीब हैं. उनके आने से भी चिढ़ है. 3.फिर यूरोपियन यूनियन की एग्जीक्यूटिव यानी सरकार जनता के चुनाव से नहीं आती. देशों के नेता भेज देते हैं. ये लोकतंत्र के खिलाफ है. ये सदियों पुराना सिस्टम है. 4.इसके अलावा मेम्बर रहने के लिए हर साल पैसे देने पड़ते हैं. हालांकि सारे सदस्यों के कॉन्ट्रिब्यूशन को मिला के भी पूरे यूरोपियन यूनियन की GDP का 2.5% ही है ये पैसा. 5.इससे ज्यादा कपारखाऊ है लगभग 7000 नियम-कानून. 6.इसके अलावा अभी सीरिया, ईराक से माइग्रेशन बहुत हो रहा है. ग्रीस की शाहखर्ची में भी पैसे देने पड़ रहे हैं.