The Lallantop

बुक रिव्यू: 'न बैरी न कोई बेगाना', क्राइम फिक्शन के बादशाह की ज़िंदगी का रोजनामचा

हिंदी जासूसी लेखन के सरताज सुरेन्द्र मोहन पाठक की ये आत्मकथा मिस करना साहित्यिक गुनाह है.

post-main-image
फोटो - thelallantop
27 जनवरी 2018 को जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथा 'न बैरी न कोई बेगाना' रिलीज़ हुई. ये किताब कई मायनों में एक अभूतपूर्व घटना है. इसके कंटेंट पर हम बाद में बात करेंगे, पहले इसके वजूद की अहमियत का तबसरा कर लें. हिंदी साहित्य ने जासूसी लेखन के साथ जो सौतेला व्यवहार किया है, उससे कौन सा साहित्यप्रेमी अंजान होगा! लुगदी कागज़ पर छपने वाली रचनाओं को हेय दृष्टि से देखने का एक लंबा इतिहास है अपने यहां. एक पूरी विधा को बड़ी बेरहमी से साइडलाइन किया गया. उचित सम्मान देना तो दूर, उसे ज़िक्र के काबिल समझने से भी परहेज़ किया गया. उस विधा को, जिसने बिलाशक हिंदी रचना-संसार के लिए सबसे ज़्यादा पाठक तैयार किए हैं. लुगदी साहित्य वो मील का पत्थर है, जो पुस्तक-प्रेम के लंबे सफ़र में सबसे पहले पड़ता है. इसी राह से गुज़रकर किताबों से इश्क़ परवान चढ़ता है. इनसे उन्सियत ही ये हौसला दिलाती है कि आप अज्ञेय, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी या विमल मित्र की दुनिया में कदम रख सको.
किताब का लॉन्च मशहूर डायरेक्टर अनुराग कश्यप के हाथों हुआ, जो खुद भी एसएमपी के फैन रहे हैं.
किताब का लॉन्च मशहूर डायरेक्टर अनुराग कश्यप के हाथों हुआ, जो खुद भी एसएमपी के फैन रहे हैं.


किताबों की दुनिया से प्रेम स्थापित करने में पल्प फिक्शन वैसे ही सहायक रहा है, जैसे प्रिया वरियर जैसी किसी हसीना की अदाएं आपको पहली बार इश्क़ के वजूद से वाकिफ कराती हैं. बावजूद इसके लुगदी साहित्य के साथ हमेशा सौतेला व्यवहार रहा. पाखी जैसी किसी पत्रिका ने इस नाइंसाफी पर बात करनी चाही, तो कितने ही सुर विरोध में उठ खड़े हुए. साहित्य सृजन और पाठन के लिए बेसिक अहर्ताएं गिनाई गईं. शुक्र है साहित्य पढने के लिए किसी एंट्रेंस एग्जाम की बात किसी महानुभाव ने नहीं कही. बहरहाल, वो जुदा मुद्दा है. उसके बारे में विस्तार से इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है:
गंभीर साहित्य पढ़ने वालों, क्या लुगदी साहित्य लिखने में मेहनत नहीं लगती?

तो कहने की बात ये कि मुख्यधारा के साहित्य की बेहिसाब हठधर्मी के बावजूद पल्प फिक्शन की प्रासंगिकता बनी रही. और इस विधा को भारत में सबसे ज़्यादा अगर किसी ने सम्मान बख्शा है तो वो हैं, सुरेन्द्र मोहन पाठक. अपने करिश्माई लेखन और बेहद आकर्षक अंदाज़ेबयां से उन्होंने तकरीबन अकेले इस विधा का गोवर्धन पर्वत संभाल रखा है. अब उसके सुखद नतीजे भी दिखाई देने लगे हैं. पिछले कुछ सालों से उनकी किताबें न सिर्फ बड़े पब्लिशर्स के यहां छप रही हैं, बल्कि बस/रेलवे स्टेशनों से निकलकर हवाई अड्डे के बुक स्टॉल्स तक पहुंच गई हैं. इसी क्रम में अब उनकी आत्मकथा भी आई है. जो न सिर्फ एक प्रतिष्ठित लिट फेस्ट में विमोचित हुई बल्कि साहित्यिक सर्कल में जिसकी पूरे सम्मान के साथ चर्चा हो रही है.
एसएमपी के लेखन का छठा दशक चल रहा है.
एसएमपी के लेखन का छठा दशक चल रहा है.


अब किताब पर बात करते हैं.
'न बैरी न कोई बेगाना' एसएमपी की आत्मकथा के तीन खण्डों की पहली किश्त है. इसमें प्रमुखता से उनका बचपन, किशोरावस्था और जवानी के कुछ सालों का लेखा-जोखा है. लेकिन क्या इस किताब में यही कुछ है? एक सफल लेखक की ज़िंदगी का रोजनामचा होने भर तक सीमित है ये किताब? नहीं, बिल्कुल नहीं. ये किताब एक दस्तावेज़ है. यादों का एक संदूक है, जिसके अंदर से इतना कुछ बरामद होता है कि बस मज़ा ही आ जाता है. पाकिस्तान में पैदा हुआ, बंटवारे का दंश झेल चुका एक शख्स़ बेहद ईमानदारी से उस दौर की तस्वीर बनाकर आपके सामने रख देता है. ये वही शख्स़ है, जो आज़ाद हिंदुस्तान में शहर-ए-दिल्ली के अब तक के सफ़र का गवाह भी है.
1947 का पार्टीशन इस धरती पर सबसे बड़े विस्थापन की वजह बना.
1947 का पार्टीशन इस धरती पर सबसे बड़े विस्थापन की वजह बना.


ये किताब पहले पन्ने से ही आपको जकड़ लेती है. एसएमपी के फैन तो खैर उनके अंदाज़ेबयां के मुरीद हैं ही, नए पाठक भी सहज वाक्यों की सुंदरता से मोहित हुए बिना नहीं रहेंगे. पहले पन्ने पर लिखा कुछ ये पढ़िए.
"हरि गोकुल नाम की किरयाने की मशहूर दुकान थी, जो मुझे अभी तक इसलिए याद है क्योंकि उसके बाहर काला नमक की एक-एक मन की शिलायें गायों के चाटने के लिये पड़ी रहती थीं. जब कि आज की तारीख में अपने रोजमर्रा के भोजन के लिये कोई आम हैसियत का शख्स काला नमक अफोर्ड ही नहीं कर सकता. मेरा देखा परोपकार का वो पहला कर्म था, जो मेरे को आज तक न भूला."
इस नैरेशन से ही आपको अंदाज़ा हो जाता है कि आगे क्या हाथ लगने वाला है. बदल चुके ज़माने की सूरत कुछ एक दशक पहले जाकर देखना हमेशा से दिलचस्प रहा है. ये और बेहतर तब होता है जब लिखने वाले की कलम में बला की रवानी हो.
ये वो दौर था जब मुस्लिम दोस्त से हिंदू दोस्त के घर आती गोश्त की बोटियां पब्लिक स्क्रूटिनी का मरकज़ नहीं हुआ करती थी. खानपान पर नज़र रखने और लोगों के फ्रिज में झांकने जैसी लीचड़पंती के दौर को ये याद दिलाना बेहद ज़रूरी है कि हिंदुस्तान के दो प्रमुख धर्म तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद सहअस्तित्व को जीते आए हैं. ये किताब ये काम बिना प्रीची हुए कर जाती है. भाषाओं की धार्मिक पहचान तय करने वालों को एक अध्याय तो ज़रूर ही पढ़ना चाहिए. वो, जहां पंजाबियों की उर्दू में महारत का ज़िक्र है. जहां रामलीला में ख़ालिस उर्दू के डायलॉग बोले जाते थे. जिस भाषा के बारे में लेखक - 'हिंदी' जासूसी साहित्य का प्रख्यात लेखक - फ़ख्र से कहता है, "आज जो भी मेरी ज़ात-औकात बतौर मिस्ट्री राइटर है, वो उर्दू से बनी है, उर्दू ने बनाई है."
उस वक़्त के पंजाब को किसी ऐसे शख्स की निगाह से देखना जिसने वो सबकुछ जिया हो बेहद उम्दा अनुभव है. मोहल्ले में लगने वाला तंदूर हो जिसपर आस पड़ोस के सब घरों की रोटियाँ बन जाती थी या 'असली' सरसों का साग बनाने की विधि हो. किसी की मौत पर हो रहा सामूहिक विलाप हो या बच्चों की आम की दावत. 2018 के महानगरों - गांवों में भी - रहने वाला क्राउड इन सब बातों के चित्रण से चमत्कृत न हो तो हैरानी होगी.
विभाजन की सबसे ज़्यादा मार पंजाब ने झेली.
विभाजन की सबसे ज़्यादा मार पंजाब ने झेली.


तकसीम के वक़्त के हालात का फर्स्ट हैण्ड अकाउंट आपको डिस्टर्ब किए बिना नहीं रहेगा. धीरे-धीरे माहौल में घुलती नफरत, आपसी विश्वास का कमज़ोर होते जाना, दहशत की बढ़ती मात्रा, लूटपाट का मंज़र-ए-आम और निर्वासितों की दयनीय ज़िंदगी. कैसे लोग अपनी ही जड़ों से हमेशा से लिए रुख्सती पाने के लिए अभिशप्त हो गए. कैसे एक लकीर ने ज़मीन के उस टुकड़े को हमेशा के लिए पराया कर दिया, जो कभी वजूद का हिस्सा था.
एसएमपी वो शख्स हैं जो आज़ादी के बाद से ही शहर-ए-दिल्ली के हमकदम रहे हैं. पल-पल बदलती दिल्ली को उनकी नज़र से देखना रोमांचकारी अनुभव है. तकसीम के फ़ौरन बाद जब शरणार्थियों ने दिल्ली में रहने के लिए आशियाने खोजे, तो पहले से लुटे-पिटे लोगों को दिल्लीवालों ने और लूटा. दस गुणा किराया तक वसूल लिया. ये सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक सरकार रेंट कंट्रोल एक्ट नहीं ले आई. कुलमिलाकर दिल्ली वालों ने वो कहावत पूरी तरह चरितार्थ कर दी थी, जो एसएमपी के ही एक मशहूर किरदार सुधीर कोहली की ज़ुबानी उनके पाठक कई बार सुन चुके हैं.
"दिल्ली में सिर्फ दो ही चीज़ों की अहमियत है. ज़मीन की और कमीन की."
और उस मामले में तो दोनों का ही दखल था.
ये जानकर हैरानी होती है कि टीबी तब लाइलाज बीमारी थी और इसकी चपेट में आए मरीज़ की मौत का इंतज़ार करने के अलावा और कुछ नहीं किया जा सकता था. टेसू जैसे त्यौहार का वर्णन अद्भुत है, जो वक़्त की आंधी में ख़त्म हो गया. मेरे जैसे बहुत से होंगे, जिन्होंने इस त्यौहार का ज़िक्र इस किताब में ही पहली बार पढ़ा होगा. ये दशहरे से थोड़ा पहले पड़ने वाला त्यौहार था जिसे लोकगीतों ने समृद्ध बना रखा था.
1950 के आसपास का दिल्ली का ITO इलाका.
1950 के आसपास का दिल्ली का ITO इलाका.


सुरेन्द्र मोहन पाठक का किताबों के अलावा अगर किसी और चीज़ में बेतहाशा मन लगता है तो वो है सिनेमा. उनसे अक्सर मिलने वाले साहेबान इस बात की तसदीक ज़रूर करेंगे कि सिनेमा पर उनकी जानकारी अद्भुत है. न जाने कब-कब के किस्से मुंह ज़ुबानी याद हैं उन्हें. इस किताब में हमारा उनकी इस दीवानगी की जड़ों से भी सामना होता है. शहरभर में घूम-घूम कर देखी गई फ़िल्में, टूरिंग टॉकीज़ सिस्टम, उस वक़्त दिल्ली में मौजूद सिनेमाघरों की ख़ासियत इन सबका बेहद दिलचस्प लेखा-जोखा आपको पढ़ने मिलेगा.
इसके अलावा किताब का बेहद दिलचस्प अध्याय वो है जहां डीएवी कॉलेज जलंधर के किस्से और जगजीत सिंह के कारनामे हैं. ग़ज़ल सम्राट के जीवन के इस दौर में झांकना किसी और ज़रिए से शायद ही मुमकिन हो. यकीनन ये इस किताब की स्टार अट्रैक्शन है. जगजीत सिंह बनने से पहले वाले जगजीत सिंह. रियाज़ करते जगजीत. बडबोले जगजीत. शरारती जगजीत. फिल्मों के गानों के साथ प्रयोग करते जगजीत. उनके फैन्स इस अध्याय को कई-कई बार पढेंगे, इसमें कोई शक नहीं.
साज़ के साथ जगजीत.
साज़ के साथ जगजीत.


किताब में और बहुत कुछ है. कॉलेज जीवन के किस्से, साथी लेखक वेद प्रकाश काम्बोज से दोस्ती, पॉकेट बुक्स इंडस्ट्री से शुरुआती भिडंत और ओम प्रकाश जैसी लुगदी साहित्य की बड़ी हस्ती से जुड़े वाकयात. कई जगह लेखक की बेबाकी हैरान करती है. ख़ासतौर से तब, जब वो अपने पिता को लेकर आलोचनात्मक रुख अपनाते हैं. कुल मिलाकर ये किताब कई फ्रंट पर अपील करती है. जैसे:
1. पार्टीशन और उसके इधर-उधर के वक़्त रहे हालातों का फर्स्ट हैण्ड अकाउंट. 2. आज़ाद भारत में दिल्ली का दिलचस्प सफ़र. 3. लुगदी साहित्य की दुनिया का रोचक वृत्तांत. 4. 55 सालों से अनवरत लिखते आ रहे एक महान शख्स की दिलचस्प ज़िंदगी का रोजनामचा.
जिसको जो पसंद हो वो उस हिस्से को चुन लें. वैसे चुनाव मुश्किल है. सब कुछ वाह-वाह ही है.
खामियों के खाते में महज़ टेक्नीकल चीज़ें शामिल की जा सकती हैं. जैसे कुछेक जगह तथ्यात्मक गलतियां हैं. उन्हें यकीनन सुधारा जाना चाहिए. प्रूफ रीडिंग की भी दिक्कतें हैं. किताब की एडिटिंग थोड़ी और चुस्त हो सकती थी. ख़ास तौर से तब जब इकबाल की ग़ज़लें या नज़्में लिखी हैं. उनके महज़ ज़िक्र भर से काम चल सकता था. खामियों के मुहाज़ पर चैप्टर्स के नाम भी परखे जाने चाहिए. 'बचपन', 'किशोरावस्था', 'युवावस्था' जैसे नाम बेहद नीरस लगते हैं. जितना दिलचस्प कथ्य है उसके हिसाब से ये बहुत फ्लैट लगता है. 'मिठाई से ज़्यादा वर्क को अहमियत न देने' वाली पाठक साहब की बात को मानते हुए भी यही कहना चाहूंगा कि वर्क भी खूबसूरत हो तो क्या हर्ज है?
एक सेमीनार में अपने अनुभव बांटते सुरेन्द्र मोहन पाठक.
एक सेमीनार में अपने अनुभव बांटते सुरेन्द्र मोहन पाठक.


बहरहाल. इस किताब का सबसे संतुष्ट करने वाला पार्ट यही है कि ये एक बटा तीन किताब है. ऐसी ही दो और किताबें पाठकों को मयस्सर होने वाली हैं. ये खुशखबरी है उन तमाम लोगों के लिए जो बीते हुए कल को किसी विश्वासपात्र शख्स़ के नज़रिए से देखना चाहते हैं. और वो शख्स शब्दों का जादूगर हो तो कहना ही क्या!
'न बैरी न कोई बेगाना' यकीनन तमाम साहित्यिक पैमानों पर डिस्टिंक्शन के साथ स्कोर करती है.

पुस्तक का नाम: न बैरी न कोई बेगाना 

प्रकाशक: वेस्टलैंड पब्लिशिंग प्राइवेट लिमिटेड 

ऑनलाइन उपलब्धता: अमेज़न पर यहां क्लिक करके खरीदें 

मूल्य:  299 रुपए मात्र




ये भी पढ़ें:
'जब जगजीत सिंह जानबूझकर नंगे हो जाते थे,' सुरेंद्र मोहन पाठक ने बताया किस्सा

वो लेखक जिसके आगे फिल्म इंडस्ट्री के दिग्गज हाथ जोड़े खड़े रहते थे

वीडियो: सुरेंद्र मोहन पाठक का लल्लनटॉप इंटरव्यू
https://www.youtube.com/watch?v=6Zd4gKl_tKw