एक हो गए भूमिहार-ठाकुर और चुनाव हार गए लालू
1971 में छात्रसंघ का चुनाव हुआ. लालू यादव चुनाव में खड़े हुए. लेकिन ठीक उसी वक्त राजपूतों का नेतृत्व करने वाले वशिष्ठ नारायण सिंह ने भूमिहारों के नेता कहे जाने वाले रामजतन सिन्हा को सपोर्ट कर दिया. अब चुनाव में एक तरफ भूमिहार-ठाकुरों का गुट था और दूसरी तरफ थे लालू यादव. इस चुनाव में रामजतन सिन्हा जीत गए और छात्रसंघ अध्यक्ष बन गए. सियासी तौर पर लालू यादव की ये पहली हार थी. लेकिन इसी के साथ बिहार की राजनीति में एक नया स्लोगन आ गया था. ये था 'राइफल-बुलेट जिंदाबाद.' ये दोनों ही प्रतीक दबंग जातियों के प्रतीक थे. और इन्हीं प्रतीकों ने लालू यादव को भी प्रतीकों की राजनीति से रुबरु करवा दिया. उन्हें समझ में आ गया कि उनकी आगे की सियासी लड़ाई अब भूमिहार/ ठाकुर बनाम ओबीसी और दलित होने वाली है. उन्होंने ये स्ट्रैटजी अपनाई भी. लेकिन उससे पहले तो पटना छात्रसंघ के अध्यक्ष बने 1973 में. और उस वक्त के जानकार बताते हैं कि इस बार रामजतन सिन्हा ने ही अंदरखाने उनकी मदद भी की. लेकिन लालू को हार याद थी. छात्रसंघ की राजनीति से निकलकर जब वो बिहार की राजनीति में आए, तो अपनी रैलियों में कहने लगे कि भूरा बाल साफ करो. भूरा बाल का मतलब था भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला . लेकिन हम फिलहाल लालू यादव की सियासत को अलग करते हैं और लौटते हैं भूमिहारों पर.

1971 में लालू यादव छात्रसंघ का चुनाव हार गए थे. हराने वाले थे रामजतन सिन्हा (बीच में) और वशिष्ठ नारायण सिंह.
आपातकाल के बाद जीता चुनाव, बिहार सरकार में मंत्री बन गए
1971 में पटना यूनिवर्सिटी में छात्रसंघ का चुनाव जीतने वाले रामजतन सिन्हा 1977 में सक्रिय राजनीति में उतरे. वो दौर आपातकाल के बाद के चुनाव का था. जनता पार्टी की लहर थी. और इसी लहर पर सवार होकर रामजतन सिन्हा भी लड़ गए विधानसभा का चुनाव. क्षेत्र बना जहानाबाद का मखदूमपुर. कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही. कर्पूरी ठाकुर बने मुख्यमंत्री. लेकिन जब 21 अप्रैल 1979 को कर्पूरी ठाकुर को हटाकर राम सुंदर दास बिहार के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने रामजतन सिन्हा को कैबिनेट में जगह दे दी. 1980 आते-आते देश के हालात बदल गए. कांग्रेस की वापसी हो गई. 1980 के चुनाव में मखदूमपुर से रामजतन सिन्हा को पहली सियासी हार मिली. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1985 में जब बिहार में विधानसभा के चुनाव होने थे, तो रामजतन सिन्हा कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर मखदूमपुर से चुनाव लड़े और जीते. पूरे देश में बोफोर्स कांड की धमक होने के बाद भी रामजतन सिन्हा 1990 का चुनाव जीत गए.
बिहार में आए लालू और बदल गई पूरी सियासत
लेकिन 1990 आते-आते बिहार के हालात बदलने लगे थे. जिस लालू यादव को रामजतन सिन्हा ने यूनिवर्सिटी के चुनाव में हराया था, वही लालू यादव अब बिहार के मुख्यमंत्री थे. 1995 में जब रामजतन सिन्हा मखदूमपुर से फिर से चुनावी मैदान में उतरे तो उनके सामने प्रत्याशी थे बागी कुमार वर्मा. सिर पर हाथ लालू यादव का था और बागी वर्मा ने लालू की हार का बदला ले लिया. चार बार के विधायक रहे रामजतन सिन्हा चुनाव हार गए थे. वहीं लालू यादव पहले जनता दल और फिर उसे तोड़कर बनाई गई नई पार्टी राष्ट्रीय जनता दल से बिहार के मुख्यमंत्री थे. चारा घोटाले में नाम आने के बाद लालू ने खुद पद छोड़ दिया और गद्दी पर बिठा दिया अपनी पत्नी राबड़ी देवी को. 1990 से 2005 तक पहले लालू और फिर राबड़ी देवी बिहार में ऐसे जमे कि किसी और को पनपने का मौका ही नहीं दिया.

लालू यादव बिहार की सियासत में जमे तो ऐसा जमे कि 2005 तक उन्हें कोई उखाड़ नहीं पाया.
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बने, अध्यक्ष रहते विधायकी का टिकट तक नहीं मिला
लालू की इसी छांव में रामजतन सिन्हा भी दब गए. वो साल 2000 में हुआ विधानसभा का चुनाव भी हार गए थे. लेकिन दो बार चुनाव हारने के बाद भी कांग्रेस आलाकमान ने उनका साथ दिया. रामजतन सिन्हा राजनीति प्रदेश की कर रहे थे, लेकिन उनके संबंध केंद्रीय नेतृत्व से हमेशा अच्छे रहे. और इसी का नतीजा था कि 2003 में उन्हें कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया. लेकिन 2004 में पूरे देश के सियासी समीकरण बदल गए. शाइनिंग इंडिया का नारा धराशायी हो गया था और केंद्र में सरकार बनी यूपीए की. प्रधानमंत्री बने मनमोहन सिंह. और सत्ता में साझीदार बने राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू यादव बन गए रेल मंत्री. बिहार में फरवरी 2005 में जब विधानसभा के चुनाव हुए, तो कांग्रेस और आरजेडी मिलकर चुनाव लड़ी. और नतीजे संतोषजनक नहीं थे. खुद पार्टी की ओर से रामजतन सिन्हा का टिकट काट दिया गया था, क्योंकि सीट आरजेडी के खाते में चली गई थी. और यहीं से शुरू हुआ रामजतन सिन्हा का सियासी पतन. पार्टी के प्रदर्शन को देखते हुए कांग्रेस आलाकमान ने उनकी अध्यक्षी छीन ली. और इसके बाद 29 सितंबर, 2005 को पटना में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई. प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले थे रामजतन सिन्हा. ऐलान किया कि वो कांग्रेस से अलग हो रहे हैं, क्योंकि कांग्रेस पार्टी ने उनके साथ न्याय नहीं किया है.
चार जीत के बाद लगातार पांच बार हारे चुनाव
अक्टूबर 2005 में जब फिर से बिहार विधानसभा के चुनाव हुए तो रामजतन सिन्हा लोजपा के टिकट पर मखदूमपुर से प्रत्याशी बने. नतीजे आए तो वो तीसरे नंबर पर थे. इसके बाद उनकी सियासत की चमक लगातार फीकी पड़ती गई. निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर पहले 2010 में जहानाबाद से हार और फिर 2015 में कुर्था से हारने के बाद वो सियासत में हाशिए पर चले गए. बिहार के पहले मुख्यमंत्री रहे श्री कृष्ण सिन्हा के नाम पर बनाया श्रीकृष्ण सिंह चेतना फ्रंट. खुद को भूमिहारों के नेता के तौर पर स्थापित करने की मंशा को लेकर बने इस फ्रंट की दो मांगे हमेशा से रही हैं. पहला सवर्णों को आरक्षण और दूसरा मुस्लिमों की भागीदारी. इसे लेकर रामजतन सिन्हा ने आगे बढ़ने की कोशिश की, लेकिन कामयाबी जैसा कुछ उनके खाते में नहीं आया.

कांग्रेस से अलग होने के बाद रामजतन सिन्हा सियासत में हाशिए पर चले गए.
पटना छात्रसंघ में जीती जदयू और पीके ने करवा दी पुनर्वापसी
और फिर बिहार में एंट्री हुई पॉलिटिकल स्ट्रैटिजिस्ट कहे जाने वाले पीके यानी प्रशांत किशोर की. एंटी पॉलिटिकल स्ट्रैटिजिस्ट के तौर पर नहीं, एक नेता के तौर पर हुई जो नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइडेट का उपाध्यक्ष बने. और इसी के साथ काम आया रामजतन सिन्हा का दूसरा रूप. नेता नहीं, टीचर वाला. रामजतन सिन्हा कांग्रेस के नेता तो रहे ही थे, वो पटना साइंस कॉलेज में कमेस्ट्री के टीचर भी थे, जो बाद में प्राचार्य बन गए थे. उनकी पत्नी पत्नी मगध महिला कॉलेज की प्रिंसिपल हैं. पीके की एंट्री के साथ ही छात्र जदयू संगठन भी ऐक्टिव हुआ था. उसने पटना यूनिवर्सिटी में चुनाव लड़ा. अध्यक्ष पद पर जीत हुई मोहित प्रकाश की. और इस जीत के पीछे की सबसे बड़ी वजह थी मगध महिला कॉलेज से मिले वोट. रामजतन सिन्हा की पत्नी वाले कॉलेज से मोहित प्रकाश को एक तरफा वोट मिले. और इन्हीं वोटों ने रामजतन सिन्हा को सियासत में लौटने की राह आसान कर दी.
नीतीश के चूड़ा-दही के भोज में शामिल हुए थे रामजतन
पटना की सियासत की नब्ज समझने वाले पत्रकार बताते हैं कि छात्रसंघ चुनाव में जीतने के बाद प्रशांत किशोर को रामजतन सिन्हा की अहमियत समझ में आ गई. ये अहमियत इसलिए भी थी, क्योंकि नए समीकरणों में जहानाबाद से जदयू को एक भूमिहार नेता की ज़रूरत थी. ललन सिंह भूमिहार नेता हैं, लेकिन वो खुद चुनाव लड़ेंगे. जहानाबाद के सांसद हैं अरुण सिंह. भूमिहार हैं और एनडीए का दामन छोड़कर अकेले ही ताल ठोक रहे हैं. ऐसे में जदयू-बीजेपी के बीच बने समीकरणों में कहा जा रहा है कि जहानाबाद की सीट जदयू के खाते में जाएगी. और प्रशांत किशोर को इस सीट के लिए कोई भूमिहार नेता ही चाहिए. ऐसे में रामजतन सिन्हा से बेहतर विकल्प कोई नहीं था. और यही वजह थी कि 14 जनवरी को जब पटना में जदयू का दही-चूड़ा का भोज था, तो रामजतन सिन्हा भी उस भोज में मौजूद थे. उसके करीब एक महीने बाद 12 फरवरी को रामजतन सिन्हा आधिकारिक तौर पर जदयू में शामिल हो गए.

रामजतन सिन्हा कभी सोनिया गांधी के बेहद नज़दीकी रहे थे. उन्हें इसका इनाम भी मिला था. वो बिहार प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए गए थे.
रामजतन सिन्हा को जानने वाले कहते हैं कि वो जिस आदमी से एक बार मिल लेते हैं, उसका चेहरा कभी नहीं भूलते हैं. शिक्षकों के बीच उनकी अच्छी पकड़ है, क्योंकि वो राज्यस्तरीय विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के अध्यक्ष भी रहे हैं. लेकिन वो विवादित भी रहे हैं. श्रीकांत घोष की किताब द इंडियन माफिया के मुताबिक रामजतन सिन्हा और सरदार कृष्णा दो विधायक थे. चुनाव के दौरान दोनों गुटों में फायरिंग हुई थी. सीआरपीएफ ने बीच बचाव किया, जिसमें सीआरपीएफ का एक जवान मारा गया, चार और लोग मारे गए. इसमें रामजतन सिन्हा को जेल जाना पड़ा था. इस दौरान उन्हें बतौर शिक्षक वेतन का भुगतान होता रहा और फिर ये मामला कोर्ट तक पहुंच गया. डॉ. धर्मप्रकाश नाम के एक शख्स ने पीआईएल दाखिल कर कहा कि रामजतन सिन्हा 92 दिनों तक जेल में रहे थे, तो उन्हें वेतन क्यों दिया गया. कोर्ट ने पीआईएल एक्सेप्ट कर ली. जांच का जिम्मा सौंपा गया हाईकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस एससी झा को. अब तक मामले में फैसला नहीं आया है, लेकिन रामजतन सिन्हा ने अपना सियासी फैसला सुना दिया है. अब वो जदयू की राजनीति करेंगे. और नीतीश कुमार ने उनसे कहा है कि उनका काम नए लोगों को सियासत में लाना है.