कांग्रेस के लिए असम में 16 अगस्त का दिन काफ़ी निराश करने वाला रहा. वजह, असम में कांग्रेस की क़द्दावर नेता मानी जाती रहीं सुष्मिता देव सिंह का पार्टी छोड़ना. सुष्मिता देव सिंह ना सिर्फ़ कांग्रेस की असम के सिलचर से सांसद रही हैं, बल्कि असम में पार्टी का महिला चेहरा भी रही हैं. अभी असम में कांग्रेस क़ायदे से अपनी हालिया विधानसभा हार का आकलन भी नहीं कर पाई थी कि सुष्मिता देव ने उसे झटका दे दिया. सुष्मिता देव ने सोनिया गांधी को अपना इस्तीफ़ा सौंपा. हालांकि इस्तीफ़े में पार्टी छोड़ने की वजह पर कोई बात नहीं कही. सुष्मिता भले ही पार्टी छोड़ने की वजहें ना बता रही हों, लेकिन सियासी जानकार और असम की राजनीति को क़रीब से समझने वाले लोगों के पास अपने-अपने तर्क हैं.
सुष्मिता देव: असम कांग्रेस की वो कद्दावर नेता, जो अब पूर्वोत्तर में ममता बनर्जी का चेहरा बनेंगी
असम में ममता ने कांग्रेस को जो खेल दिखाया, राहुल गांधी का मुंह हैरत से खुला रह गया होगा.


सुष्मिता देव ने अपने बायो में इस्तीफ़ा भेजते ही बदलाव कर दिया था.
सुष्मिता देव सिंह ने जैसे ही ट्विटर पर अपने बायो में ‘कांग्रेस सदस्य’ और ‘अखिल भारतीय महिला कांग्रेस अध्यक्ष’ के आगे ‘पूर्व’ लिखा तो लोगों ने क़यास लगाने शुरू कर दिए. कई लोगों का मानना था कि अभी सुष्मिता देव सिंह हवा का रुख़ समझेंगी. लेकिन जो सुष्मिता देव सिंह की राजनीति पर पैनी नज़र रखते हैं, उन्होंने अंदाज़ा लगा लिया कि ‘पांव रखने के लिए कोई न कोई ज़मीन तलाश ली गई है’. ठीक वैसा ही हुआ. सुष्मिता देव सिंह ने इधर इस्तीफ़ा दिया और उधर तृणमूल कांग्रेस के कोलकाता दफ़्तर पहुंच गईं. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे और सांसद अभिषेक बनर्जी ने सुष्मिता को टीएमसी की सदस्यता दिला दी. जो सुबह तक क़यास थे और जिन्हें जानने वाले अफ़वाह बता रहे थे, वो हकीकत बन चुका था. अब सुष्मिता देव टीएमसी की सदस्य हैं. लेकिन असल में इस सियासी फेरबदल के नेपथ्य में टीएमसी की कई दिन पुरानी जोड़-तोड़ की कोशिशें हैं.
इस सब पर बात करें, इससे पहले ये जान लीजिए कि सुष्मिता देव सिंह कौन हैं और किसी भी राजनैतिक पार्टी के लिए असम में उनकी क्या अहमियत है.
कौन हैं सुष्मिता देव सिंह?
असम की राजनीति में बराक वैली की अपनी अलग अहमियत है. ऊपरी असम से इतर यहां असमी भाषा बोलने वाले असमियों से कहीं ज़्यादा संख्या बंगाली बोलने वाले असमियों की है. इन्हीं बंगाली भाषी असमियों की राजनीति करने वाले परिवार से आती हैं सुष्मिता देव सिंह. कांग्रेस पार्टी के पूर्व नेता और मंत्री रहे संतोष मोहन देव की बेटी हैं. सुष्मिता के दादा सतिंद्र मोहन देव स्वतंत्रता सेनानी रहे. सतिंद्र बाद में असम के स्वास्थ्य मंत्री बने, और काफ़ी समय तक सिलचर म्यूनिसिपैलिटी बोर्ड के चेयरमैन भी रहे. सतिंद्र के बेटे और सुष्मिता के पिता संतोष मोहन देव सिलचर से 5 बार सांसद चुने गए. उसके बाद 2 बार त्रिपुरा से सांसद रहे. बाद में संतोष मोहन देव इस्पात मंत्री भी बने. सुष्मिता देव की मां भीतिका देव भी असम विधानसभा सदस्य के तौर पर सक्रिय राजनीति में रहीं.

सिलचर से लोकसभा चुनाव लड़ने के दौरान सुष्मिता का प्रचार करतीं प्रियंका गांधी वाड्रा. फाइल फोटो PTI
कॉलेज से ही राजनीति शुरू की
सुष्मिता देव ने दिल्ली के मिरांडा हाउस कॉलेज से ग्रेजुएशन किया. विषय था राजनीति विज्ञान. ग्रेजुएशन के दौरान ही सुष्मिता कांग्रेस की छात्र यूनियन NSUI में सक्रिय रहीं. मिरांडा हाउस से स्टूडेंट यूनियन का चुनाव भी लड़ा. इसके बाद सुष्मिता चली गईं लंदन. वकालत पढ़ने. लंदन की एक यूनिवर्सिटी से लॉ में ग्रेजुएट हुईं. इसके बाद लंदन से ही कॉरपोरोट लॉ में मास्टर्स की डिग्री ली. कोर्स पूरा करके भारत वापस आईं और दिल्ली से वकालत करने के लिए अपनी लॉ फ़र्म बनाई.
वकालत बहुत रास नहीं आई तो सुष्मिता सक्रिय राजनीति में अपने ख़ानदान की चौथी पीढ़ी बनकर असम आ गईं. शुरुआत हुई सुष्मिता देव की असम के दूसरे सबसे बड़े नगर निकाय सिलचर म्यूनिसिपैलिटी से. 2009 से 2014 तक सुष्मिता देव सिलचर म्यूनिसिपैलिटी की चेयरपर्सन रहीं. 2011 में पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ा और असम विधानसभा पहुंच गईं. इसके बाद साल 2014 में सुष्मिता देव ने अपने पिता और दादा के गढ़ रहे सिलचर से लोकसभा चुनाव लड़ा. 2014 से 2019 तक सुष्मिता सिलचर की सांसद रहीं.
कहां से शुरू हुई तनातनी?
सुष्मिता देव 2019 का लोकसभा चुनाव हार गईं. इसके बाद उनके पास अखिल भारतीय महिला कांग्रेस अध्यक्ष का पद रहा. 2021 में हुए असम विधानसभा चुनाव को 2024 के लोकसभा चुनाव का सेमीफ़ाइनल बताया जा रहा था. जब तक असम में सरकार और पार्टी दिवंगत कांग्रेस नेता तरुण गोगोई के पास रही, तब तक सब कुछ ठीक रहा. लेकिन उनके जाने के बाद पार्टी जब 2021 के विधानसभा चुनाव में उतरी, तो भयंकर खेमेबाज़ी से त्रस्त थी. तरुण गोगोई के बेटे गौरव गोगोई एक तरफ थे. पूर्व सीएम हितेश्वर सैकिया के बेटे देबब्रत सैकिया दूसरी तरफ थे. तब के कांग्रेस अध्यक्ष रिपुन बोरा एक तीसरी दिशा में थे. इस खेमेबाज़ी के बीच टिकट वितरण में सुष्मिता को मान नहीं मिला.

सुष्मिता देव अपनी नाराज़गी से आला कमान को बार-बार वाक़िफ़ कराती रहीं. फाइल तस्वीर PTI
असम की राजनीति पर लगातार नज़र रखते हैं पत्रकार के के शर्मा. इन्होंने बताया कि-
‘2021 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को पूरी उम्मीद थी कि उसके ‘महाजोत’ में जाने से इस बार राज्य में बीजेपी को परास्त किया जा सकेगा. लेकिन महाजोत यानि महागठबंधन हुआ तो आधा दर्जन सीएम कैंडिडेट दिखाई देने लगे. इस दावेदारी में टिकट बंटवारे पर कई बार असम कांग्रेस में तल्ख़ी दिखाई दी. कांग्रेस के लोग तो बाद में बल्कि जो महाजोत में दल थे, उनकी भी टिकट बंटवारे में अनदेखी हुई. इसी में से एक थीं सुष्मिता देव. जिन्हें इतना अनदेखा किया गया कि सुष्मिता का इस्तीफ़ा बीच चुनाव में ही लगभग तय हो गया था. लेकिन कांग्रेस आलाकमान बना बनाया खेल किसी क़ीमत पर बिगड़ने नहीं देना चाहता था. सो सुष्मिता रुक गईं. हालांकि उसके बाद से ही कांग्रेस से कई बार वैचारिक मतभेद जता चुकीं सुष्मिता के इस्तीफ़े की ज़मीन तैयार हो गई थी.’
कहने वाले यही कहते रहे कि कांग्रेस ने जिस तरह बदरुद्दीन अजमल की पार्टी AIUDF से साझेदारी की, उसे लेकर भी सुष्मिता नाराज़ थीं. क्योंकि कांग्रेस-AIUDF के साथ लड़ने का मतलब था कि बराक घाटी के मुस्लिम बहुल इलाकों में सुष्मिता को कुर्बानी देनी पड़ती. सूत्रों का दावा है कि इसी के चलते फरवरी 2021 में सुष्मिता उस बैठक से बाहर निकल आई थीं जिसमें कैंडिडेट्स का चुनाव हो रहा था. तब खबर चली कि सुष्मिता पार्टी छोड़ देंगी, लेकिन किसी तरह वो विवाद शांत करा लिया गया.

पार्टी लाइन के ख़िलाफ़ जाकर CAA को सपोर्ट करना सुष्मिता के इस्तीफ़े की भूमिका बताता है. PTI
CAA पर भी कांग्रेस से इतर सोच
सुष्मिता देव ने तब सिटिज़नशिप अमेंडमेंट एक्ट (CAA) पर पार्टी लाइन से ख़िलाफ़त दिखाई, जब असम कांग्रेस में इसकी बिल्कुल जगह नहीं थी. कांग्रेस CAA के खिलाफ रही है. इसे लेकर सुष्मिता देव सहज नहीं थीं क्योंकि बराक घाटी के बांग्ला हिंदू इस कानून के समर्थन में है. इन्हीं बांग्ला भाषी असमियों पर सुष्मिता देव की सारी राजनीति टिकी हुई थी. ऐसे में सवाल तब भी उठ रहे थे कि पार्टी लाइन से डायरेक्ट बाहर जाकर सुष्मिता का भविष्य पार्टी में क्या होगा.
इसलिए जानकार बता रहे हैं कि सुष्मिता के जाने की भूमिका कई दिन से बन रही थी.

आख़िरकार सुष्मिता देव तृणमूल कांग्रेस के पाले में आ ही गईं. बांग्ला भाषी वोट बैंक पर ममता बनर्जी का ये दांव सटीक खेला गया बताया जा रहा है. तस्वीर PTI
तृणमूल कांग्रेस से बात कैसे और क्यों बनी?
सुष्मिता देव ने इस्तीफ़े की घोषणा की और लोग भांपने लगे कि अब अगला कदम क्या होगा. हालांकि जो तृणमूल कांग्रेस पर बारीक नज़र रखते हैं उन्हें घटनाक्रम का अंदाज़ा हो गया था. पिछले कई दिनों से असम की नई बनी पार्टी ‘रायज़ोर दल’ के अखिल गोगोई का बार-बार कोलकाता जाना नया समीकरण था. और जब सुष्मिता देव ने पार्टी छोड़ने की घोषणा की तो दो बातें साफ़ हो गईं, पहली, अखिल गोगोई और ममता बनर्जी की बात नहीं बनी. और दूसरी कि सुष्मिता देव अब ममता बनर्जी का पूर्वोत्तर में चेहरा होंगी.
ममता बनर्जी अब बंगाल के अलावा पूर्वोत्तर के राज्यों को भी साधना चाहती हैं. त्रिपुरा में चुनाव नज़दीक हैं. सुष्मिता देव जिस बराक वैली से आती हैं वहां बंगाली समीकरण बिल्कुल साफ़ हैं. ऐसे में ममता बनर्जी ने सुष्मिता देव को अपने पाले में करके सही समय में सही दांव चलने वाली बात साबित कर दी. ये दांव कितना कारगर होगा ये भी पता चलने में ज़्यादा वक़्त बचा नहीं है.