20वीं सदी का फ़ासिस्ट यूरोप शैंपेन के इस ब्रैंड का नाम था- तेताज़े. ये फ्रांस की एक मशहूर शैंपेन है. शैंपेन को अपना नाम मिला कंपनी के मालिक पियरे तेताज़े से. पियरे तेताज़े कट्टर दक्षिणपंथी विचारधारा के सपोर्टर थे. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब हिटलर की नाजी सेना ने पैरिस पर कब्ज़ा कर लिया, तब कुछ वक़्त के लिए पैरिस म्यूनिसिपल काउंसिल के चेयरमैन रहे पियरे तेताज़े. मगर हमको जो कहानी सुनानी है, वो इससे करीब 20-21 साल पहले के फ्रांस की है. तब की, जब यूरोप के कुछ हिस्सों में कट्टर दक्षिणपंथ मज़बूत हो रहा था. कई दक्षिणपंथी संगठन बन रहे थे. इनमें से एक का नाम था- ज्यूनिस पतरियोत्स. फ्रेंच भाषा के इस टर्म का मतलब होता है- देशभक्त युवा. पैट्रियटिक यूथ. साल 1924 में पियरे तेताज़े ने इस संगठन की नींव रखी थी. उनका ये साम्यवाद-विरोधी संगठन इटली में मुसोलिनी द्वारा बनाए गए फ़ासिस्ट संगठन 'ब्लैक शर्ट्स' से प्रेरित था.

मुसोलिनी का फ़ासिस्ट संगठन 'ब्लैक शर्ट्स' (फोटो: एएफपी)
स्टाइलशीट इसी पैट्रिअटिक यूथ से जुड़ी एक घटना है, जिसका हम अब ज़िक्र करने जा रहे हैं. क्यों? क्योंकि आज के इस एपिसोड में हम आपको जिस फ़ासीवाद-विरोधी आंदोलन के बारे में बताने जा रहे हैं, उस मूवमेंट की स्टाइलशीट कुछ-कुछ इस घटना से जुड़ी है. ये बात है 23 अप्रैल, 1925 की. देर शाम पैरिस की एक छोटी पहाड़ी के ऊपर बसे ख़ूबसूरत गांव 'मोमाट्र' में एक राजनैतिक सभा हो रही थी. मीटिंग में बोलने के लिए पहुंचे थे ख़ुद पियरे तेताज़े. इस तरह की दक्षिणपंथी अजेंडा वाली सभाएं तब पैरिस में आम थीं. मगर उस दिन इस सभा में कुछ ऐसा हुआ, जो कतई आम नहीं था. क्या हुआ था उस दिन?
उस दिन कुछ स्थानीय साम्यवादियों ने इस मीटिंग में सेंधमारी की. मंच पर जब फ़ासिस्ट नेताओं के भाषण शुरू हुए, तो उन्होंने मिलकर नारेबाजी शुरू की. ताने, गालियां, धमकियां, सब दीं. वो चाहते थे इतना तंग करें कि मीटिंग अस्त-व्यस्त हो जाए. मगर मीटिंग अपने मुताबिक चली और रात करीब साढ़े 11 बजे मुकम्मल हुई. जब पियरे और उनके समर्थक बाहर निकले, तो फ़ासीवाद-विरोधी धड़ा बाहर सड़क किनारे छुपकर उनका इंतज़ार कर रहा था. कोई उन्हें देख न पाए, ये सोचकर उन्होंने पहले ही सड़क किनारे लगी लाइटें फोड़ दी थीं. रात के अंधेरे में दोनों गुट भिड़े. आख़िर में जब लड़ाई का हिसाब-किताब निकला, तो पैट्रिअटिक यूथ के चार लोग मारे गए थे. 30 के करीब लोग घायल हुए थे. कम्यूनिस्ट धड़े ने कहा, फ़ासीवादियों ने जो बोया, वही काट रहे हैं. इनका कहना था कि जर्मनी और इटली में जो हो रहा है, उसे देखते हुए अब चुप नहीं बैठा जा सकता है.

पियरे तेताज़े (फोटो: एएफपी)
क्या है फ़ासीवाद? यहां आपने दो शब्द सुने. एक, फ़ासीवादी. दूसरा, फासीवाद विरोधी. मतलब जो दूसरा गुट है, वो पहले गुट का विरोधी है. दूसरा गुट बना ही है उस गुट का विरोध करने के लिए. ऐसे में आप अगर फासीवाद समझ लीजिए, तो ऐंटी-फासीवाद अपने आप समझ जाएंगे. क्या है फासीवाद? ये बना है इटैलियन भाषा के शब्द फासिको से. जिसका मतलब होता है, बंडल. बंडल माने गठरी. इसका ताल्लुक प्राचीन रोम सभ्यता से है. वहां लिक्टर नाम के अफ़सर हुआ करते थे. ये लिक्टर समझिए कि मैजिस्ट्रेट थे, जो अपराधियों को सज़ा सुनाते थे. इनके पास 'फ़ासिस' नाम का एक ख़ास हथियार होता था. इस हथियार में लोहे की कई सारी छड़ें एकसाथ बंडल की तरह बंधी होती थीं और इनपर एक ओर कुल्हाड़ी जैसा एक ब्लेड लगा होता था. 20वीं सदी में इटली से जिस फ़ासीवादी सिस्टम की शुरुआत हुई, उसने इसी फ़ासिस को अपना प्रतीक चिह्न बनाया था.
क्या थी फ़ासीवादी विचारधारा? ये तो हुई हिस्ट्री. अब समझते हैं कि इस फ़ासीवादी विचारधारा की सोच क्या थी? ये समझिए ऐसा समाज है, जिसकी लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों में कोई दिलचस्पी नहीं है. ये हिंसा के सहारे अपनी विचारधारा औरों पर थोपती है. एक ख़ास तरह का समाज लोगों पर लादती है. ऐसा समाज, जिसके तौर-तरीकों में एकरूपता है. यहां विविधता की कोई जगह नहीं. यहां एक ही धर्म, एक ही संस्कृति, एक ही परंपरा और नस्ल के लोग जगह पाएंगे. इस कैटगरी के बाहर आने वाले लोगों को हिंसा के सहारे ठिकाने लगा दिया जाएगा.
दूसरे विश्व युद्ध की दो बड़ी वजहें? आधुनिक दौर में किसने शुरू किया फासीवाद स्टेट का ये सिस्टम? ये सिस्टम शुरू किया इटली के तानाशाह मुसोलिनी ने. 1919 में मुसोलिनी ने 'फासी इटैलियानी दी कॉम्बैटिमेंटो' नाम का एक संगठन बनाया. इस संगठन का प्रतीक चिह्न वही प्राचीन रोमन सभ्यता वाला फासिस हथियार था. पहले मुसोलिनी. फिर हिटलर. 1934 आते-आते फासीवाद ने इटली और जर्मनी, दोनों को पूरी तरह काबू में कर लिया. फिर इन दोनों ने मिलकर पूरे यूरोप को विश्व युद्ध में झोंका. लाखों निर्दोष यहूदियों की हत्या करवाई. विश्व युद्ध में मारे गए करीब छह करोड़ लोगों की हत्या की दो सबसे बड़ी वजहों में एक था ये फासीवाद. और दूसरा कारण था साम्राज्यवाद.

इटली के तानाशाह मुसोलिनी और नाजी हिटलर (फोटो: एएफपी)
ऐसा नहीं कि मुसोलिनी और हिटलर का विरोध न हुआ हो. ऐंटी-फ़ासिस्ट धड़े ने इन फ़ासीवादों ताकतों से लड़ने की कोशिश की. मगर वो हार गए. दूसरे विश्व युद्ध में दोनों तानाशाहों के अंत के साथ लोगों ने सोचा, फ़ासीवाद भी ख़त्म हो गया. लेकिन वो ग़लत थे. फ़ासीवादी प्रवृत्तियां नियो-नाज़ीवाद बनकर उभरीं. पिछले कुछ समय से यूरोप के कई देशों में ये कट्टर-दक्षिणपंथी विचारधारा दोबारा मज़बूत होती जा रही है. फ़ासीवाद-विरोधी लोग इनमें ख़तरा देखते हैं. उनका कहना है कि अगर इन्हें दबाया नहीं गया, तो ये फिर कोई विनाश लाएंगे. इनमें से कई लोग हिटलर और मुसोलिनी के किए पर अफ़सोस करते हुए कहते हैं कि अगर फ़ासिस्ट विचारधारा के विरोधी उस समय ज़्यादा जोर लगाते, अगर वो फ़ासीवाद को उसी की भाषा में जवाब देते, तो शायद इतिहास कुछ अलग होता. और इसी तर्क को आधार बनाकर कई लोग 21वीं सदी में सक्रिय कट्टर और हिंसक दक्षिणपंथी संगठनों से भिड़ रहे हैं.
कौन हैं ये लोग? ये हैं- ऐंटी फ़ासिस्ट. जिनके एक असंगठित मूवमेंट का नाम है- ऐंटीफ़ा. ऐंटीफ़ा, यानी ऐंटी-फ़ासिस्ट का संक्षिप्त नाम. ये एक सीक्रेट वामपंथी ऑर्गनाइज़ेशन है. इसका मौजूदा संदर्भ जुड़ा है 25 मई को अमेरिका के मिनेसोटा प्रांत स्थित मिनियेपोलिस शहर में एक अफ्रीकन-अमेरिकी नागरिक जॉर्ज फ़्लॉइड की हत्या. जिसके विरोध में मिनियेपोलिस समेत अमेरिका के करीब 67 शहरों में हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गए हैं. माहौल इतना ख़राब है कि कुछ देर के लिए राष्ट्रपति ट्रंप को सीक्रेट बंकर में छुपना पड़ा. यही ट्रंप इन हिंसक घटनाओं के पीछे ऐंटीफ़ा का हाथ बता रहे हैं. उन्होंने ट्विटर पर ऐलान किया कि ऐंटीफ़ा को आतंकवादी संगठन का दर्जा दिया जाएगा.
किसका विरोध करते हैं ऐंटीफ़ा? ऐंटीफ़ा मेंबर नस्लवाद, होमोफ़ोबिया और लैंगिक भेदभाव का विरोध करते हैं. इनका कहना है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी अच्छी चीज है. लेकिन हर तरह की अभिव्यक्ति, मसलन कट्टर दक्षिणपंथी बातें करने वालों को अपने विचार प्रकट करने की आज़ादी नहीं होनी चाहिए. क्यों नहीं मिलनी चाहिए? क्योंकि ऐंटीफ़ा मानता है कि इस तरह की बातें समाज में फ़ासीवादी प्रवृत्ति को बढ़ाती हैं. लैंगिक और नस्लवादी हिंसा को बढ़ावा देती हैं. ऐंटीफ़ा के लोग आमतौर पर अराजकतावादी कहे जाते हैं. उनकी नज़र में सत्ता नस्लवाद और फासीवाद को बढ़ावा देने की सहअपराधी है. इसीलिए उनका स्टेट में ख़ास भरोसा नहीं होता. ये कट्टर-हिंसक दक्षिणपंथियों का पूरी तरह बहिष्कार करने की अपील करते हैं. उनकी दुकानों का बहिष्कार, उनसे रिश्ते तोड़ने की अपील. ये कंपनियों से कहते हैं कि इस तरह की विचारधारा वालों को काम पर न रखें. मकानमालिकों से अपील करते हैं कि वो ऐसे लोगों को किराये पर घर न दें.
कैसे काम करता है ऐंटीफ़ा? ऐंटीफ़ा के सदस्य दो तरह से काम करते हैं. एक तो ये ग्रुप बनाकर सोशल मीडिया पर दक्षिणपंथियों को घेरते हैं. इनका दूसरा तरीका है- अपने शहर के दक्षिणपंथियों की सभाओं में, उनके कार्यक्रमों में घुसकर उन्हें चुप कराने की कोशिश करना. किस तरह की कोशिश? कभी घूंसा मार दिया. कभी नारेबाजी की. कभी दक्षिणपंथियों पर मिल्कशेक फेंक दिया. ऐंटीफ़ा के ज़्यादातर सदस्य काले रंग की पोशाक पहनते हैं. काला रंग, जो कि विरोध का प्रतीक है. अपनी पहचान छुपाने के लिए ये चेहरे पर मास्क भी लगाते हैं.
अमेरिका में ऐंटीफ़ा मूवमेंट ने कब ज़ोर पकड़ा? अमेरिका में इसकी मौजूदगी कई दशकों से थी. यहां इनका मुख्य फ़ोकस था- नस्लवाद का विरोध करना. रिफ़्यूजी और माइग्रेंट्स के साथ होने वाले भेदभाव का विरोध करना. मगर 2000 से 2016 के बीच ये ज़्यादातर शांत बैठे रहे. इनकी ख़बरें नहीं आती थीं. फिर आया 2016. अमेरिकी राजनीति में ट्रंप की एंट्री हुई. ऐंटीफ़ा ने कहा, ट्रंप नस्लभेदी हैं. वो कट्टर दक्षिणपंथ के समर्थक हैं. ऐंटीफ़ा ने ट्रंप को फ़ासिस्ट भी कहा. इसी ट्रंप के विरोध में ऐंटीफ़ा मूवमेंट ने अमेरिका में ज़ोर पकड़ा. ट्रंप के सत्ता में आने के बाद ऐंटीफ़ा की सदस्यता में काफी इज़ाफा हुआ. ये सुर्खियों में आए 2017 में.

ट्रंप ने राष्ट्रपति बनके विरोध में ऐंटीफ़ा के लोगों ने ख़ूब हंगामा किया. (फोटो: एपी)
क्या थी वो घटना, जो ऐंटीफ़ा को सुर्खियों में लाई? ये घटना है 20 जनवरी, 2017 की. जिस दिन ट्रंप ने राष्ट्रपति का पदभार संभाला. इसके विरोध में ऐंटीफ़ा के लोगों ने ख़ूब हंगामा किया. वॉशिंगटन में कई दुकानों के शीशे फोड़ दिए इन्होंने. कारों को फूंक दिया. इसके बाद समय-समय पर ट्रंप-समर्थकों और श्वेत-श्रेष्ठतावादियों से भिड़ने के कारण ये सुर्खियों में आते रहे. उनके प्रोग्राम में घुसकर आयोजन रुकवाने की कोशिश करते थे ऐंटीफ़ा के लोग. ऐटींफा से जुड़ी कुछ चर्चित घटनाएं हैं., यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफॉर्निया में दक्षिणपंथियों का एक प्रोग्राम कैंसल करवाना. वर्जीनिया की एक दक्षिणपंथी रैली में डंडे लेकर पहुंच जाना और लोगों को रैली में जाने से रोकना. एक रैली में ऐंटीफ़ा के एक सदस्य ने एक दक्षिणपंथी के चेहरे पर घूंसा भी मारा था.
लिबरल क्या कहते हैं? इन घटनाओं का नतीजा ये हुआ कि ट्रंप समर्थक और श्वेत-श्रेष्ठतावादी धड़ा भी इन्हें निशाना बनाने लगा. रिपब्लिक पार्टी के कुछ लोगों ने इनपर बैन लगाने की भी कोशिश की. केवल दक्षिणपंथी ही नहीं, ज़्यादातर लिबरल भी ऐंटीफ़ा की आलोचना करने लगे. लिबरल्स का कहना है कि शांति से अपनी बात कहने का, सभाएं करने का अधिकार हर किसी को है. इसका विरोध करने वालों को किसी तरह का सपोर्ट नहीं मिलना चाहिए.
ट्रंप ने क्या कहा ऐंटीफ़ा पर? ये था ऐंटीफ़ा का बैकग्राउंड और उनके कुछ चर्चित कारनामे. अब लौटते हैं इसके वर्तमान ज़िक्र पर. 30 मई को अपने एक ट्वीट में ट्रंप ने कहा कि अमेरिका में हो रही मौजूदा हिंसा के पीछे ऐंटीफ़ा और रेडिकल वामपंथी संगठनों का हाथ है. इसी आधार पर ट्रंप प्रशासन ऐंटीफ़ा को आतंकवादी संगठन का दर्जा देने की बात कर रहा है. मगर वॉशिंगटन पोस्ट समेत कई मीडिया रिपोर्ट्स का कहना है कि प्रशासन ने इससे जुड़ा कोई साक्ष्य नहीं दिया है अब तक.

ट्रंप प्रशासन ऐंटीफ़ा को आतंकवादी संगठन का दर्जा देने की बात कर रहा है. (फोटो: ट्विटर)
अलग-अलग लोग, अलग-अलग बयान हिंसा किसने भड़काई, इसे लेकर अलग-अलग बयान आ रहे हैं. प्रशासन से जुड़े कई लोग, जिनमें मिनेसोटा के गवर्नर टिम वॉल्ज़ भी शामिल हैं, इस हिंसा और उपद्रव के पीछे श्वेत-श्रेष्ठतावादियों और ड्रग कार्टेल्स का भी हाथ बता रहे हैं. अलग-अलग बयानों से ये मामला बड़ा कन्फ़्यूज़िंग हो गया है.
ट्रंप पर सवाल एक सवाल ये भी है कि अगर ऐंटीफ़ा सच में इतना ख़तरनाक था, तो प्रशासन ने पहले ही क्यों नहीं उसके खिलाफ कार्रवाई की? कई जानकार ये सवाल भी कर रहे हैं कि ट्रंप श्वेत-श्रेष्ठतावादियों पर तो नर्म रहते हैं, तो फिर उनके विरोध में संगठित होने वाले ऐंटीफ़ा को ही क्यों निशाना बना रहे हैं? क्या इसकी वजह ये है कि अमेरिकी ऐंटीफ़ा ट्रंप और उनकी नीतियों का विरोध करता है? 2017 में वाइट सुप्रिमेसिस्ट्स ने की एक रैली के दौरान दक्षिणपंथियों और ऐंटीफ़ा के बीच झड़प हुई थी. एक कट्टर दक्षिणपंथी की कार से टक्कर खाकर यहां एक महिला की भी मौत हो गई थी. आलोचक याद करते हैं कि तब ट्रंप कट्टर दक्षिणपंथियों पर उतने सख़्त नहीं थे. बल्कि शुरुआत में तो वो सुप्रिमेसिस्ट्स का बचाव कर रहे थे.
जर्मनी में क्यों नाराज़ हैं लोग ट्रंप से? जर्मनी में ट्रंप के बयान का ख़ूब विरोध हो रहा है. ट्रंप के ऐंटीफ़ा विरोधी बयान से नाराज़ लोगों ने जर्मनी में ट्विटर पर 'मैं भी ऐंटीफ़ा' (#IchbinAntifa, #IamAntifa) हैशटैग ट्रेंड करवा दिया. जर्मनी में लोगों का कहना है कि उनका इतिहास उन्हें नस्लवाद और फ़ासीवाद का विरोध करने के लिए विवश करता है. ताकि उस फ़ासीवादी अतीत की फिर से पुनरावृत्ति न हो.
क़ानूनी पक्ष, थोड़ा ब्रीफ में अब बात करते हैं इस मामले के क़ानूनी पक्ष की. ट्रंप ऐंटीफ़ा को आतंकवादी संगठन ठहरा सकेंगे कि नहीं, इसपर भी संशय है. इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि अमेरिका में घरेलू ऐंटी-टेररिज़म से जुड़ा कोई प्रावधान ही नहीं है. अगर प्रावधान बनाया भी गया, तो शायद सबसे पहले ऐंटीफ़ा पर हिंसा भड़काने से जुड़े आरोप साबित करने होंगे.
क्या कट्टरता की जगह होनी चाहिए समाज में? सबसे आख़िर में सवाल आता है कि क्या ऐंटीफ़ा जैसे संगठन की जगह होनी चाहिए समाज में? लिबरल धड़े के बीच एक वाक्य ख़ूब चलता है. इस वाक्य को अभिव्यक्ति की आज़ादी का निचोड़, इसकी आत्मा समझिए. क्या है ये वाक्य? मूल रूप से फ्रेंच भाषा में लिखे गए इस वाक्य का हिंदी तर्जुमा है- मैं तुम्हारे कहे का कितना भी विरोध करूं, इससे कितना भी असहमत क्यों न होऊं, मगर मैं प्राण देकर भी तुम्हारे अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा करूंगा. ये पंक्ति फ्रांस के मशहूर दार्शनिक वोल्टेर की जीवनी लिखने वाली ईवलीन हॉल की है. लाख आलोचनाओं के बाद भी ये पंक्ति आदर्श है.
जिस तरह कट्टर और हिंसक दक्षिणपंथ की कोई जगह नहीं होनी चाहिए, उसी तरह कट्टर और हिंसक वामपंथ को भी स्वीकृति नहीं मिलनी चाहिए. हां, मगर ऐसा भी नहीं होना चाहिए कि राष्ट्रपति पक्षपात करता दिखे. ट्रंप पर नस्लवाद से लेकर दक्षिणपंथियों का सपोर्ट करने जैसे गंभीर आरोप लगते आए हैं. अमेरिका में अभी जो विरोध हो रहा है, उसके पीछे नस्लवाद और सिस्टमैटिक पक्षपात का बहुत बड़ा हाथ है.
विडियो- मिनियेपोलिस पुलिस अधिकारी की ज़बरदस्ती और जॉर्ज फ़्लायड की मौत के पीछे की कहानी