
ज़ुनैरा साक़िब
इस लेख की लेखिका, ज़ुनैरा साक़िब, 2012 से NUST (इस्लामाबाद) बिजनेस स्कूल में अंडर ग्रेजुएट्स और पोस्ट ग्रैजुएट्स की क्लासेज़ को पढ़ा रही हैं. ज़ुनैरा अखबारों और पत्रिकाओं में स्तंभ भी लिखती हैं. उन्होंने यह लेख humsub.com.pk के लिए लिखा था. 19 नवंबर, 2017 को पब्लिश हुआ यह लेख पाकिस्तान के स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले विषय 'पाकिस्तान स्टडीज' (मुताईला-ए-पाकिस्तान) के बारे में है. लेख का उर्दू से हिंदी में अनुवाद किया है 'दी लल्लनटॉप' के एक पाठक कपिल बजाज ने. पेशे से जर्नलिस्ट कपिल अपना एक ब्लॉग (थिंकिंग थ्रू) भी चलाते हैं.
इस लेख को दो तरह से पढ़ा जा सकता है. एक तो, ‘लेख’ के पहलू से कि - देखो पाकिस्तान में, पाकिस्तान के स्कूलों में, भारत के बारे में क्या क्या पढ़ाया जाता है.
दूसरा, ‘लेखिका’ के पहलू से. यह दूसरा पहलू मुझे ज़्यादा रोचक और ज़्यादा महत्वपूर्ण लगता है. क्योंकि - लिखने वाली पाकिस्तानी है और इस्लामाबाद (पाकिस्तान) में रहती है.
अतः ये लेख इस मायने में महत्वपूर्ण हो जाता है कि लेखिका ने इसे, इस मुद्दे को, नज़रंदाज़ नहीं किया. वरना, हमें बुरा लग सकता है लेकिन, क्या भारत में भी कमोबेश यही हालत नहीं हैं? स्कूलों में तो छोड़िये (जहां आए दिन सिलेबस को लेकर बवाल मचता रहता है, फिर वो चाहे ‘महाराणा प्रताप’ और ‘अकबर’ के किस्से हों या कुछ और) हमारे सामान्य जनजीवन में भी हम खुद को इन जैसे मुद्दों को नज़रंदाज़ करते या शै देते हुए नहीं पाए जाते हैं क्या? आप कहेंगे कि हालात पाकिस्तान में ज़्यादा बुरे हैं. मगर क्या हम-आप नहीं जानते कि बुराई में किसी के साथ तुलना करने से बुरा शायद कुछ नहीं? और फ़िर, चूंकि हमारे पड़ौसी मुल्क में हालात ज़्यादा बुरे हैं तो वहां इस लेख को लिखने के लिए, ऐसी क्रांतिकारी धारणाओं के लिए क्या ज़्यादा इच्छाशक्ति और साहस की जरूरत नहीं रही होगी? तो दोस्तों, इस लेख को पढ़ने के बाद पाकिस्तान की शिक्षा व्यवस्था को, वहां के समाज को गाली देने से पहले हमें एक बार कबीर का वो दोहा स्मरण कर लेना चाहिए – बुरा जो देखन मैं चला...
मुतालिआ-ए-पाकिस्तान की आख़िरी किताब