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अल्ताफ हुसैन: पाकिस्तान का वो नेता, जो पाकिस्तान में ही रहता तो उसके टुकड़े कर देता

जिसकी एक आवाज पर कराची जल उठता था. जिसकी मदद करने का आरोप भारत पर लगा.

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करीब तीन दशकों तक कराची पर राज किया अल्ताफ हुसैन और उसकी पार्टी MQM ने. उसके सपोर्ट का बेस थे मुहाजिर, खासतौर पर उर्दू बोलने वाले विस्थापित. जो या तो खुद, या उनका परिवार बंटवारे के समय भारत से पाकिस्तान गया था (फोटो: रॉयटर्स)
भारत बंट गया. दो हिस्से लगे. एक, भारत ही रहा. दूसरा, पाकिस्तान कहलाया. इस बंटवारे के बखत करीब 90 लाख मुसलमान यहां से वहां गए. नए मुल्क जाकर उन्हें नया नाम मिला- मुहाजिर. ये इनकी ही कहानी है.
90 लाख घटे 2= नाज़िर हुसैन और खुर्शीद बेगम.
आज का उत्तर प्रदेश तब यूनाइटेड प्रोविंस था. यहीं आगरा में कहीं घर था इस जोड़े का. नाज़िर स्टेशन मास्टर हुआ करते थे. वहां से निकलकर दोनों कराची बस गए. सिंध प्रांत की राजधानी थी कराची. ज्यादातर मुहाजिरों ने कराची और इसके आसपास के इलाकों को चुना बसने के लिए. नाज़िर को यहां एक मिल में काम मिल गया. कराची में अज़ीज़ाबाद इलाका है. वहां तीन बेडरूम वाले एक घर में 17 सितंबर, 1953 को पैदा हुआ नाज़िर और खुर्शीद का बेटा अल्ताफ हुसैन. ये बंटवारे के बाद पाकिस्तान गए मुसलमानों की भी कहानी है 11 जून, 2019. ब्रिटेन से खबर आई कि वहां की मैट्रोपॉलिटन पुलिस ने अल्ताफ हुसैन को गिरफ़्तार कर लिया है. गिरफ़्तारी का आधार हैं उसके भड़काऊ भाषण. हालांकि अल्ताफ को फिर जमानत भी मिल गई. इससे पहले जून 2014 में भी अल्ताफ को अरेस्ट किया गया था. इल्ज़ामों की लिस्ट में मनी लाउंड्रिंग, अपने पूर्व सहयोगी इमरान फार्रुक की हत्या और भाषणों से नफ़रत फैलाना जैसे आरोप शामिल थे. 1984 से 2019 के बीच की अल्ताफ हुसैन की कहानी जवानी और बुढ़ापे जैसी है. ऊपर जाकर ढलने की. मगर ये कहानी उल्टे पांव पहले बंटवारे बाद के पाकिस्तान पर जाती है. 'सरफ़रोश' में नसीरुद्दीन ने बताया था मुहाजिरों का दर्द हिंदुस्तान से आए मुसलमानों को अलग नाम मिलना बताता है कि ये मुसलमान वहां अलग समझे गए. बाहरी से बरते गए. मगर मुहाजिरों को लगता था, पाकिस्तान पर पहला हक़ उनका है. कि उन्होंने अपना घर-बार, जायदाद छोड़कर पाकिस्तान को चुना है. जान दांव पर लगाकर पाकिस्तान पहुंचने की तीर्थयात्रा पूरी की है. मगर पाकिस्तान का बाकी समाज उनके साथ ऐसा बरतता, जैसा 'सरफ़रोश' में गुलफ़ाम हसन मायूसी से सीमा को कहता है-
(पाकिस्तान में) चाहने वाले तो बहुत हैं सीमा जी. लेकिन हाल ये है कि वहां (पाकिस्तान में) आज भी हमें मुहाज़िर कहकर पुकारा जाता है. जब बंटवारे के समय यहां के मुसलमान अपने वतन की उम्मीद में पाकिस्तान पहुंचे, तो वहां के मुसलमान भाइयों ने उन्हें पास बिठाने की बजाय मुहाज़िर कहकर दुत्कार दिया. 50 साल गुजर गए, लेकिन आज भी हम मुहाज़िर हैं. पाकिस्तानी नहीं.
शुरुआत में फिर भी चीजें बेहतर थीं शुरुआत के कुछ साल यूं बीते समाज में कि भले हिकारत से देखे जाएं, मगर सरकारी नौकरियों, खासकर प्राशासनिक सेवाओं में काफी मौजूदगी थी मुहाजिरों की. इसलिए कि वो ज्यादा पढ़े-लिखे थे. प्राशासनिक सेवाओं के लिए योग्यता थी उनकी. कुछ इसलिए भी कि पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान खुद भी मुहाजिर थे. मुहाजिरों से हमदर्दी रखते थे. उन्होंने फेडरल सिविल सर्विस नौकरियों में मुहाजिरों के लिए दो फीसद आरक्षण का इंतजाम किया. जबकि पाकिस्तान की कुल आबादी में उनकी जमा तादाद डेढ़ फीसद के करीब थी. मुहाजिरों के लिए हुआ ऐसा सिस्टम पाकिस्तान के बाकी मुसलमानों को पसंद नहीं था. खासतौर पर पंजाब को. असर, दौलत और ताकत, तीनों में पंजाब सबसे ऊपर था. फिर पेनिक शुरू हुआ असल दिक्कतें शुरू हुईं 70 के दशक की शुरुआत में. खासतौर पर जुल्फिकार अली भुट्टो के समय से. भुट्टो खुद सिंध से थे. उनके सपोर्ट सिस्टम का अड्डा था सिंध. उन्होंने पहले सिंध, फिर सेंटर में सिंधियों को तवज्जो देना शुरू किया. करीब दो दशक तक पाकिस्तानी सिविल सर्विस में हावी रहने के बाद मुहाजिरों का हिस्सा घट गया. एक नया जियोग्रेफिक कोटा सिस्टम शुरू हुआ. इसमें बड़े शहरों, शहरों और ग्रामीण इलाकों में रहने वाले समुदायों से कितने लोग सरकारी नौकरियों में आ सकते हैं, इसकी एक राशन जैसी व्यवस्था शुरू हुई. किस बात का डर था मुहाजिरों को? एक तो मुहाजिर पहले ही नीची नज़र से देखे जाते थे. ऊपर से यहां भी उनका अपर हैंड खत्म हो गया. उन्हें लगा, अब उनके लिए उम्मीदें खत्म. ऊपर से सिंध की आधिकारिक भाषा उर्दू से बदलकर सिंधी कर दी गई. इसका काफी विरोध हुआ. प्रेशर में आकर भुट्टो को सिंधी के साथ-साथ उर्दू को भी आधिकारिक भाषा का दर्ज़ा देना पड़ा. इस कवायद से मुहाजिर और डर गए. ऊपर से जब ज़िया-उल-हक़ जब आए, तो उन्होंने अपने फायदे के लिए कराची के मुहाजिरों, पठानों और पंजाबियों के बीच सांप्रदायिक बंटवारे को बढ़ावा दिया. ज़िया के दौर में पंजाबियों और पठानों को ज्यादा तवज्जो दी गई. कराची का बिजनस, इसका कारोबार जैसे-जैसे तरक्की करता गया, बड़ी संख्या में पठान और पंजाबी यहां आकर बसते गए. फिर जब सोवियत ने 1979 में जब अफगानिस्तान पर हमला किया, तो उसके बाद अफगानिस्तान से खूब सारे शरणार्थी भागकर पाकिस्तान आने लगे. कई सारे सिंध और खासतौर पर कराची भी आए. इससे सिंध की डेमोग्रफी बदलने लगी. मुहाजिरों को लगा, वो संख्या में कम पड़ गए, तो और नज़रंदाज किए जाएंगे. अल्ताफ कथा ये तो हुए मुहाजिर इन जनरल. अब अल्ताफ इन पर्टिकुलर की बात. अल्ताफ को मिमिक्री का बड़ा शौक था. वो बड़े-बड़े मौलानाओं की हूबहू नकल उतारता. खुद उसके दादा मुफ़्ती रहे थे भारत में. उसे संगीत का भी बड़ा शौक था. गाना गाता. हारमोनियम बजाता. 1974 में कराची के इस्लामिया साइंस कॉलेज से BSC की पढ़ाई. फिर 1979 में यूनिवर्सिटी ऑफ कराची से बैचलर ऑफ फार्मेसी. कॉलेज में स्टूडेंट यूनियन का हिस्सा. जून 1978 को अल्ताफ ने ऑल-पाकिस्तान मोहाजिर स्टूडेंट्स ऑर्गनाइजेशन (APMSO) बनाया. फिर शुरू हुई मुहाजिर आइडेंटिटी की अल्ताफ की पॉलिटिक्स और मार्च 1984 में उन्होंने मुहाजिर कौमी मूवमेंट (MQM) खड़ा किया. वो पाकिस्तान का पहला नेता था, जिसे मुहाजिरों और उनके अंदर के फ्रस्ट्रेशन को मुद्दा बनाने का आइडिया आया. मुहाजिरों के लिए क्या- समंदर चार प्रांत थे तब पाकिस्तान में. हर प्रांत की एक बुनियादी नस्ल थी. पंजाब में पंजाबी. सिंध में सिंधी. बलूचिस्तान में बलोच और खैबर पख्तूनख्वा में पठान. मतलब चार मेन आइडेंटिटी. पाकिस्तान में लोग कहते हैं. पंजाब पंजाबियों के लिए. सिंध सिंधियों के लिए. बलूचिस्तान बलोचों के लिए. खैबर पख्तूनख्वा पख्तूनों के लिए. और मुहाजिरों के लिए क्या? समंदर. MQM का मकसद था इस पांचवीं आइडेंटिटी- मुहाजिर को मजबूत करना. ये मुहाजिरों को उनका हक़ दिलाने की बात करते थे. सपोर्ट का इनका मेन टारगेट था- शहरों में रहने वाले, मिडिल-क्लास, उर्दू जुबां वाले मुहाजिर. मुहाजिर बनाम पश्तून 15 अप्रैल, 1985. जगह: कराची 20 साल की बुशरा ज़ैदी अपने कॉलेज के पास की सड़क पर थी, जब एक बस ने उसे कुचल दिया. बुशरा के साथ हुए ऐक्सिडेंट की ख़बर जंगल की आग थी. फैली, फैली और फैलती गई. जिस बस ने बुशरा को कुचला था, उसका ड्राइवर पश्तून था. ख़ैबर-पख्तूनख्वा की साइड का. पश्तूनों का दबदबा था ट्रांसपोर्ट में. ट्रांसपोर्टर्स के बीच इतनी होड़ थी कि सारे बस ड्राइवर एक-दूसरे से आगे निकलने में लगे रहते. नतीजा- रैश ड्राइविंग. लोग पहले से ही ऐसे बस ड्राइवरों से परेशान थे. तो बुशरा का केस मुहाजिरों का पश्तूनों के खिलाफ कलेक्टिव गुस्सा बन गया. गुस्से में लोग सड़कों पर उतर आए. पुलिस से भिड़ गए. ये MQM के लिए बड़ी मुफीद स्थिति साबित हुई. वो उर्दू बोलने वाले मुहाजिरों और बाकी समुदायों के बीच के सांस्कृतिक बंटवारे को भुनाने की कोशिश कर रहा था. बड़े नाजुक से फर्क थे ये. जैसे मुहाजिर और पंजाबी ले लीजिए. मुहाजिरों को चाय पीने की आदत थी. खेती-गृहस्थी करने वाले पंजाबी दूध-दही ज्यादा पीते. MQM ने इन फर्कों को खूब दुहा. कराची इनका बेस बना क्योंकि यहां मुहाजिरों की बहुतायत थी. अल्ताफ तीन तक गिनती गिनता, लोगों के होंठ सिल जाते MQM ज़मीन से जुड़ा संगठन था. इसके लोग घर-घर जाकर प्रचार करते. सपोर्ट जुटाते. लोगों से उनकी दिक्कतें पूछते. वो पहले से डरे लोगों को और डराते. उनके दिमाग में बैठा देते कि मुहाजिरों का भविष्य खतरे में है. अल्ताफ हुसैन लोगों से कहता, वो इस्लामिक चरमपंथियों का एंटीडोट है. फिर अल्ताफ की हस्ती भी लोगों को उसकी तरफ खींचती थी. हज़ारों की भीड़ उसे सुनने आती. वो भाषण देने उठता और गिनता- एक, दो, तीन. और तीन कहते-कहते वहां ऐसी खामोशी कि सुई गिरे तो भी आवाज़ हो. अल्ताफ यूं बोलता, जैसे सरगम का नी. पेट से हाई नोट पर आवाज़ उठती. उसको बोलने से ज्यादा चिल्लाना कहा जाएगा. लोग सुनते, तो लगता एकाएक शरीर में ऐड्रेलिन का ज्वार आ गया. उसके भाषणों में हिंसा होती. वो कहता, ज़रूरत पड़े तो हथियार भी उठा लो. MQM दान-पुण्य के काम भी करता. अस्पताल, ऐम्बुलेंस सेवा, ज़रूरतमंदों को नकद मदद. कहते हैं कि MQM अपने तमाम खर्चों का बिल कराची के कारोबारियों पर फोड़ता था. अल्ताफ और MQM की कहानी हिंसा बिना अधूरी है MQM को लगा, इससे तो नौकरियों में और होड़ बढ़ जाएगी. तो उसने मांग उठाई कि कम से कम 20 साल से कराची में रह रहे लोगों को ही यहां का बासिंदा माना जाए. बस उन्हें ही वोट देने और ज़मीन-जायदाद खरीदने का अधिकार हो. बल्कि अल्ताफ की तो ये तक मांग थी कि सरकार मुहाज़िरों को बंदूक रखने का लाइसेंस दे. कहते हैं कि कराची के निस्तार पार्क में 8 अगस्त, 1986 को हुई MQM की पहली जनसभा में खूब हवाई फायरिंग हुई यहां. पार्टी के कार्यकर्ता अपने साथ बंदूकें और राइफल्स लेकर आए थे. खबरों के मुताबिक, इसी साल हैदराबाद के पक्का किला में बोलते हुए उसने लोगों से कहा था- पहले हम आज़ादी के लिए लड़े. अब जबकि आज़ादी मिल चुकी है हमें, तो हम अपने लिए एक मुल्क खोज रहे हैं. इसी शाम कराची में दंगा छिड़ा और करीब 12 लोग मारे गए. 1987 के नवंबर में MQM ने पूरे विधि-विधान से राजनीति में पैर डाला. इसी साल एक रैली में बोलते हुए अल्ताफ ने कहा-
मुहाज़िरों को VCR नहीं काम आएंगे. रंगीन टीवी और इस तरह के तमाम ऐशो-आराम की चीजें भी काम नहीं आएंगी. ये चीजें हमारा बचाव नहीं कर सकती हैं. मुहाजिरों को अपने लिए सुरक्षा का इंतजाम करना होगा.
मुहाजिरों के लिए बनाई गई पार्टी फिर मुहाजिरों के सबसे बड़े ठिकाने कराची में लगातार हिंसा फैलाने लगी. हत्याएं करना-करवाना, नस्लीय हिंसा, दंगे, ड्रग्स-हथियारों की ट्रैफिकिंग, ज़मीन माफिया, ये सब इसके लंबे-चौड़े रेज्यूमे का हिस्सा थे. MQM और अल्ताफ के तौर-तरीके राजनैतिक पार्टी के नहीं थे. ये चरपमंथी थे. एक हिंसक संगठन, जिसका मूल आइडिया ही हिंसा थी. उसकी एंट्री के बाद कराची में हड़तालें और हिंसा की घटनाएं बढ़ने लगीं. लगातार मार-काट होती रही. आए दिन कर्फ्यू लगता. हत्या, अपहरण, धमाके, कराची सबसे खतरनाक शहर बन चुका था. अक्सर पुलिस और MQM कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पें होने लगीं. पता: नाइन ज़ीरो कराची में अल्ताफ का घर. पूरा पता- 90/8, ब्लॉक 8, अज़ीज़ाबाद, कराची-75950. ये बन गया MQM का हेडक्वॉर्टर. इसके पुकारने का नाम था नाइन ज़ीरो. ये बस कोई पता नहीं था. ये MQM की ताकत का सेंटर था. सुरक्षा बल भी यहां हाथ डालने से डरते थे. ये कराची पर अल्ताफ़ की पकड़ का गढ़ था. कई जानवर पेशाब करके अपना इलाका मार्क करते हैं. इंसान अपने ठप्पे लगाकर अथॉरिटी बनाता है. कराची की पुलों, दीवारों, इमारतों जहां-तहां गुदा अल्ताफ का नाम, उसकी तस्वीरें उसकी अथॉरिटी का ठप्पा थीं. मुहाजिर आइडेंटिटी को एकजुट करने का असर देखिए कि पैदा होने के तीन साल के भीतर MQM ने कराची और हैदराबाद (पाकिस्तान वाला) में म्यूनिसिपल इलेक्शन जीत लिया. फिर नवंबर 1988 में आम चुनाव हुए. बेनजीर भुट्टो की पाकिस्तान पीपल्स पार्टी (PPP) पहले नंबर पर तो आई, लेकिन बहुमत नहीं ला पाई. दूसरे नंबर पर थी इस्लामी जम्हूरी इत्तेहाद (IJI), जिसे खुद पाकिस्तानी सेना और ISI ने क्यूरेट किया था. नवाज तब इसी का हिस्सा थे. तीसरे नंबर पर आई MQM. सिंध के शहरी इलाकों में उसे जबर्दस्त जीत मिली थी. बेनजीर ने इसको साथ लेकर सरकार बना ली. बेनजीर की सरकार चली गई सरकार का हिस्सा होने के बाद MQM को लगा, मुहाजिरों को लेकर उनकी मांगें मानी जाएंगी. लेकिन उनका सोचा हुआ नहीं. नतीजा ये कि PPP और MQM छिटकते गए. दोनों के कार्यकर्ता भिड़ने लगे. 1989 में MQM ने प्रदर्शन तेज कर दिया. गठबंधन टूट गया. कराची और हैदराबाद में खूब हिंसा हुई. इसी बीच मई 1990 में हैदराबाद के पक्का किला इलाके में एक बड़ा वाकया हुआ. कर्फ्यू में पुलिस घर-घर जाकर तालाशी ले रही थी. MQM के लोग इसका विरोध कर रहे थे. इसी पर जब फसाद शुरू हुआ, तो काबू करने के लिए पुलिस ने प्रदर्शनकारियों की एक भीड़ पर गोलियां चलाईं. तकरीबन 40 लोग मारे गए. बेनजीर सरकार का वैसे ही राष्ट्रपति और सेना से पंगा चल रहा था. इसी हिंसा का हवाला देते हुए राष्ट्रपति ने बेनजीर की सरकार बर्खास्त कर दी. पाकिस्तान से भाग गया अल्ताफ अक्टूबर 1990 में फिर से चुनाव हुए. पहले नंबर पर थी नवाज की पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज. दूसरे नंबर पर बेनजीर की PPP. MQM फिर से तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी. सरकार बनाने के लिए PML-N को MQM से गठबंधन करना पड़ा. नवाज ने भी MQM की मांगों पर कुछ नहीं किया. बल्कि और सख़्ती दिखाई. कराची और हैदराबाद में हिंसा की घटनाएं होती रहीं. माहौल गर्म था और इस सबके बीच एक मर्डर केस में जारी हुए वारंट से बचकर अल्ताफ पाकिस्तान से भाग गया. ब्रिटेन जाकर शरण मांगी. नागरिकता भी मिल गई. कहते हैं, नागरिकता हासिल करने के लिए अल्ताफ ने एक डील की थी. कि वो पाकिस्तान के कट्टरपंथी इस्लामिक संगठनों की मुखिबिरी करेगा. कहते हैं एक चिट्ठी लिखी थी उसने तब प्रधानमंत्री रहे टोनी ब्लेयर को. इसमें लिखा था कि ब्रिटेन ISI भंग करवा दे. क्योंकि जब तक ISI रहेगी, तब तक कई लादेन बनते रहेंगे. हालांकि MQM का पक्ष ये है कि अल्ताफ को जान से मारने की कोशिश हुई थी. और इसीलिए वो पाकिस्तान से भागा. मेकओवर फिर अल्ताफ वहीं ब्रिटेन से कराची चलाने लगा. कराची में MQM के समर्थक जुटते. मंच पर लगे माइक के सामने एक फोन रख दिया जाता. फोन के पार से लंदन के अपने दफ़्तर में बैठकर भाषण देते अल्ताफ की आवाज़ आती. अल्ताफ़ बोलता और लोग इधर नारे लगाते-
क़ाइद के फरमान पे, जान भी कुर्बान है वो दूर है तो क्या हुआ, दिलों में है बसा हुआ हर कदम हर रास्ते, क़ायद के वास्ते ये शेरे-ए-कायद आपका, नहीं किसी के बाप का ये जो दहशतगर्दी है, इसके पीछे वर्दी है नारा नारा नारा ए मुहाज़िर, जीये जीये जीये मुहाजिर
एक टर्म चल निकला- अल्ताफ हुसैन का मोज़िजा. मोज़िजा माने चमत्कार. लोग आते और अल्ताफ के चमत्कारों के किस्से सुनाते. उसकी छवि किसी पीर की तरह बनाने की कोशिश की गई. इमेज़ मेकिंग में मेकओवर भी शामिल था. गहरे रंग के धूप के चश्मे. मूंछें. ऐसे गेटअप में अल्ताफ की तस्वीरें कभी पेड़ के पत्तों, कभी मस्जिद की टाइल्स पर प्रकट होने लगीं. वो भी किस्सा है जब उसकी पार्टी के कुछ नेता अल्ताफ के लिए निष्ठा जताने लाहौर प्रेस क्लब पहुंचे. उन्होंने मीडिया वालों के आगे इज़हार किया कि वो सब अल्ताफ हुसैन के लिए कितने वफ़ादार हैं. एक नेता वसीम अहमद ने कहा- अगर मैं क़ायद के खिलाफ जाता हूं, तो मैं अपनी मां का बच्चा नहीं. एक और नेता ने कहा- अगर मैं क़ायद से धोखा करता हूं, तो मैं अपने बाप की औलाद नहीं. अल्ताफ कहता- एक और बांग्लादेश होगा अब ये दौर शायद कराची के इतिहास का सबसे खूनी, सबसे हिंसक दौर था. अल्ताफ बांग्लादेश की ही तर्ज़ पर कराची को पाकिस्तान से अलग करने की बातें करता. कहता, मुहाज़िरों के अधिकार नहीं दिए गए तो एक और बंटवारा होगा. आरोप लगा कि अल्ताफ सच में कराची को अलग करने की साज़िश रच रहा है. खूब हत्याएं हुईं. खूब अपहरण हुए. आर्मी अपना 'ऑपरेशन क्लीन-अप' लेकर कराची आई अब आया 92 का जून महीना. पाकिस्तानी आर्मी जाकर कराची में तैनात हो गई. इनके निशाने पर था MQM.उन्हें चुन-चुनकर ठिकाने लगाने की इस कार्रवाई का नाम था- ऑपरेशन क्लीन अप. MQM के कई लोग मारे गए. पार्टी में अफरातफरी मच गई. पार्टी के चुने हुए प्रतिनिधियों ने नैशनल असेंबली और सिंध असेंबली से इस्तीफ़ा दे दिया. इसके कई नेता भूमिगत हो गए. कुछ विदेश भाग गए. MQM को और कमजोर करने के लिए सेना और नवाज ने अपनाई 'फूट डालो' वाली पॉलिसी. नतीजा, MQM में दो फाड़. नए ग्रुप ने नाम रखा MQM हक़ीकी. ये कहते थे, हम असली वाले MQM हैं. कभी इसके साथ, कभी उसके साथ अल्ताफ लंदन में भले बैठा हो, लेकिन मुहाजिरों की राजनीति छोड़ी नहीं थी उसने. एक्सबॉक्स की तरह वो वहीं से बटन दबाकर यहां खेल रहा था. 'ऑपरेशन क्लीन-अप' की वजह से कराची में लोगों के बीच MQM के लिए और हमदर्दी हुई. बाकी पाकिस्तान में म्यूजिकल चेयर तो चल ही रहा था. अब नवाज, अब बेनजीर. अप्रैल 1993 में राष्ट्रपति ग़ुलाम इशाक खान ने नवाज की भी सरकार को बर्खास्त कर दिया. अक्टूबर में फिर से चुनाव हुए. MQM ने नैशनल असेंबली वाले इलेक्शन का तो बहिष्कार किया, मगर सिंध की अपनी ज़मीन नहीं छोड़ी. इस बार भी उसने अच्छा खेला और सिंध में PPP के साथ मिलकर सरकार बनाई. सड़क किनारे अल्ताफ के भाई-भतीजे की लाशें मिलीं MQM के दोनों गुटों के बीच मुहाजिरों को अपनी तरफ करने की भी होड़ थी. नतीजा, दोनों एक-दूसरे को मारने-काटने में लगे थे. लगातार हिंसा हो रही थी. 1995 वाले साल 1700 से भी ज्यादा लोग मारे गए कराची में. इसी साल सिंध के मुख्यमंत्री सैयद अब्दुल्ला शाह के छोटे भाई की हत्या कर दी गई. इल्ज़ाम लगा कि ये MQM ने किया है. कुछ दिनों बाद पुलिस ने अल्ताफ के बड़े भाई नाज़िर और भतीजे आरिफ़ को पकड़ा. पकड़े जाने के कुछ दिनों बाद सड़क किनारे लाशें मिलीं उनकी. फरवरी 1997 में फिर से बेनजीर की सरकार डिसमिस हो गई. उसके ऊपर पुलिस के हाथों फेक एनकाउंटर करवाकर MQM कार्यकर्ताओं को मारने का इल्ज़ाम था. एक बार फिर पाकिस्तान में चुनाव हुए और नवाज प्रधानमंत्री बन गए. फिर से MQM और नवाज ने हाथ मिलाया. MQM का दोबारा नामकरण हुआ इसी साल जुलाई में MQM के नाम का मुहाजिर गायब हो गया. उसकी जगह आया M फॉर मुत्तहिदा. यानी अब MQM माने था मुत्तहिदा क़ौमी मूवमेंट. नए नामकरण का मकसद था अपना सपोर्ट बेस बढ़ाना. सिंध में लगातार हिंसा की वारदातें हो रही थीं. MQM के दोनों गुट आपस में लड़ रहे थे. इनके बीच ड्रग्स और हथियार ट्रैफिक को कंट्रोल करने की भी लड़ाई थी. फिर हुआ ये कि अक्टूबर 1998 में सिंध के अंदर हकीम सईद की हत्या हो गई. हकीम की हस्ती बड़ी थी. बहुत बड़े मेडिकल रिसर्चर थे वो. उन्होंने ही हमदर्द फाउंडेशन शुरू किया था. 1948 में हमदर्द यूनिवर्सिटी की शुरुआत से अपने आखिर तक इसके वाइस चांसलर रहे. कुछ वक़्त के लिए सिंध के गवर्नर भी रहे. इस हत्या में MQM का हाथ बताया गया. कई MQM कार्यकर्ता पकड़े भी गए. इस हत्या के बाद सिंध में गर्वनर का शासन लगा दिया गया. और इसके साथ ही फिर से MQM और PML-N का गठबंधन भी टूट गया. अपने सबसे बड़े दुश्मन के साथ भी सरकार बनाई नवाज भी टिके नहीं. 1999 में परवेज़ मुशर्रफ ने उनका तख़्तापलट कर दिया. फिर जब मुशर्रफ पर इलेक्शन करवाने का प्रेशर बढ़ा, तो अक्टूबर 2002 में उन्होंने चुनाव करवाया. इसमें MQM को फिर से अच्छी सीटें आईं. और इसी ताकत के दम MQM अपनी सबसे बड़ी, सबसे कट्टर दुश्मन पाकिस्तानी मिलिटरी की सरकार में गठबंधन पार्टनर बन गया. वैसे, मुशर्रफ खुद भी तो मुहाज़िर थे. मुशर्रफ का दौर MQM के लिहाज से शांत रहा. मगर 2006 में कनाडा की फेडरल कोर्ट ने MQM को एक आतंकवादी संगठन डिक्लेयर कर दिया. पार्टी के सदस्यों की कनाडा में एंट्री बैन कर दी गई. ...लगा अब MQM के सुधरने के दिन आए 2007 में मुशर्रफ सरकार लाई 'नैशनल रिकंसिलिएशन ऑर्डिनेंस'. इसमें एक लिस्ट बनी, जिसमें शामिल लोगों पर चल रहे मामले वापस लेने का प्रावधान किया गया. इनमें अल्ताफ हुसैन का भी नाम था. ऐसा लगा कि शायद आधिकारिक मुआफ़ी मिल जाने के बाद MQM अपने तौर-तरीके बदल लेगी. हिंसा का रास्ता छोड़कर थोड़ी जिम्मेदार पॉलिटिक्स करने लगेगी. मगर ऐसा हुआ नहीं. आगे चलकर 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने इस ऑर्डिनेंस को रद्द कर दिया था. कराची में मार-काट की हद ही नहीं रही 2007 में बेनजीर की हत्या के बाद एक बार फिर PPP को बहुमत मिला. एक बार फिर सिंध और केंद्र, दोनों जगहों पर PPP ने MQM के साथ हाथ मिलाया. लेकिन दोनों की बननी थी नहीं, सो बनी नहीं. 2008 से कराची में फिर हिंसा की हद हो गई. मगर फिर ये गठबंधन भी खत्म हो गया. मई 2013 में चुनाव हुए. इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ ने कराची में MQM के वोट शेयर में सेंध लगाई. बावजूद इसके MQM को कराची में नैशनल असेंबली की 19 में से 16 सीटें मिलीं. ...और फिर MQM की उल्टी गिनती शुरू हुई ये दौर बहुत भारी था MQM पर. नवाज ने PM बनकर MQM पर सारे घोड़े खोल दिए. कराची में पाकिस्तान रेंजर्स को भेजा गया. MQM उनका खास निशाना थी. 2013 में कराची के अंदर तकरीबन पौने तीन हज़ार हत्याएं हुईं. 2014 में इनकी तादाद लगभग 1900 थी. MQM के मुताबिक, 2013 से 2015 के बीच उसके करीब 4,000 समर्थकों को अरेस्ट किया गया. कुछ लापता कर दिए गए. कुछ मार डाले गए. कुछ जेल में बंद कर दिए गए. उन्हें कैसे-कैसे टॉर्चर किया गया, ये बताते हुए MQM के एक सपोर्टर ने 2015 में वॉशिंगटन पोस्ट को बताया था. कि पाकिस्तानी रेंजर्स ने उसे 10 दिन तक लकड़ी के एक छोटे डब्बे में बंद करके रखा. एक दूसरे शख्स ने बताया कि रेंजर्स ने उसको पकड़कर टॉर्चर करते हुए बोला- अगर तेरी शादी हो चुकी है, तो हम तुझे नपुंसक बना देंगे. लोग पकड़े जाते और उन पर केस दर्ज़ किए बिना उन्हें खूब मारा-पीटा जाता. फिर उनसे अपराध कबूल करवाए जाते. MQM को डोनेशन देने वाले कारोबारियों को भी साफ चेतावनी दी गई थी. कि अगर उन्होंने पैसा दिया, तो जेल भेज दिए जाएंगे. नतीजा ये कि MQM को मिलने वाला डोनेशन तीन चौथाई घट गया. इसके नेता फार्रुक सत्तार ने एक इंटरव्यू में कहा कि ये उन लोगों के लिए सबसे मुश्किल वक़्त है. अल्ताफ का दुश्मन खुद अल्ताफ और फिर आई 22 अगस्त, 2016. MQM सपोर्टर कराची प्रेस क्लब में हड़ताल पर बैठे थे. इस दिन अल्ताफ ने कुल्हाड़ी पर अपना पैर दे मारा. इस तारीख को दिया उनका भाषण MQM का ताबूत सजाने वाला था. वो खुद अपने माथे पर 'पाकिस्तान का दुश्मन' होने का ठप्पा लगाने वाला था. अल्ताफ ने कहा-
इस पाकिस्तान को हमने, हमारे बुजुर्गों ने बनाया था. ये कितना भी गद्दार बोलें, मुझे ये पाकिस्तान नहीं चाहिए नहीं चाहिए नहीं चाहिए. मेरा न पाकिस्तान से कोई ताल्लुक है, न इस तहरीक़ से कोई ताल्लुक है. पाकिस्तान पूरी दुनिया के लिए एक नासूर है. पाकिस्तान दुनिया के लिए एक अज़ाब है. पाकिस्तान दुनिया के लिए दहशतगर्दी का एक एपिकसेंटर (अड्डा) है. कौन कहता है पाकिस्तान ज़िंदाबाद. पाकिस्तान मुर्दाबाद.
फॉर्मूला: अल्ताफ माइनस MQM कराची के MQM वाले अब क्या कहकर अल्ताफ का बचाव करते? अल्ताफ तो लंदन में बैठा था. वो ये सब बोलकर बच सकता था. मगर उसके समर्थक तो पाकिस्तान में रहते थे. सबसे बच जाएं, इससे कैसे पार जाते. MQM के लोकल नेताओं के पास अल्ताफ के बिना आगे बढ़ने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा. ये 'MQM माइनस अल्ताफ' वाली चीज तो सेना कब से साकार करना चाहती थी. अब मौका मुफीद था. पार्टी दो हिस्सों में बंट गई. एक, फार्रुक सत्तार का MQM-पाकिस्तान. दूसरा- अल्ताफ का MQM लंदन. अल्ताफ के हाथ से चीजें निकल चुकी थीं. उसके नेता और कार्यकर्ता लंबे समय से सेना और सरकार के निशाने पर थे. अब उन्होंने भी अल्ताफ को छोड़ दिया. नाइन ज़ीरो- कराची में MQM का हेडक्वॉर्टर सील कर दिया गया. अल्ताफ और MQM, दोनों का भारत का एजेंट साबित करने के लिए मीडिया कैंपेन पहले से चल ही रहा था. 22 अगस्त के भाषण के बाद किसी को इन आरोपों पर शक नहीं रहा. MQM और अल्ताफ की ऐंटी-पाकिस्तान की छवि पक्की हो चुकी थी. जिस इमरान को धमकाया था, उसी ने हराया अब कराची में बाकियों के अलावा MQM-पाकिस्तान था. और थी पाक सरज़मीं पार्टी (PSP). PSP के नेता सैयद मुस्तफा कमाल कभी MQM के ही थे. MQM के कराची मेयर रह चुके थे. बाद में पार्टी छोड़कर दुबई चले गए. फिर 2016 में लौटे और PSP बना ली. कहते हैं, मुहाजिरों को अल्ताफ से अलग करने की स्ट्रेटजी के तहत पाकिस्तानी सेना ने ही ये PSP बनवाया था. सेना PSP और MQM-P को मिलाना भी चाहती थी. हालांकि ये हो नहीं पाया. 2018 के चुनाव में MQM के लिए कोई उम्मीद नहीं बची. उसके वोटर इमरान के साथ चले गए. वही इमरान, जिसे कभी MQM ने कराची में कदम तक न रखने की धमकी दी थी. वैसे PTI के अच्छे परफॉर्मेंस की एक बड़ी वजह कराची में बड़ी संख्या में पश्तूनों की मौजूदगी भी रही. कराची प्लान पाकिस्तानी सेना और सरकारों को यकीन रहा कि MQM को भारत से मदद मिलती है. भारत न केवल उसे फंड मुहैया कराता है, बल्कि उसके लोगों को हथियार चलाने की ट्रेनिंग भी देता है. पाकिस्तान का मानना था कि भारत बांग्लादेश की ही तरह कराची को भी पाकिस्तान से अलग करने की साज़िश कर रहा है. और इसीलिए भारतीय खुफिया एजेंसी RAW अल्ताफ और उसके MQM की मदद कर रही है. पहले कराची में हुआ करता था भारतीय दूतावास. 1992 में जब सेना ने कराची में MQM पर फुल फोर्स से हमला किया, उसके बाद कराची का ये दूतावास बंद हो गया. पाकिस्तान में लोग मानते हैं कि पाकिस्तान ने जानबूझकर ऐसी स्थितियां बनाईं कि दिल्ली को ये दूतावास बंद करना पड़े. देखो सूरज डूब रहा है... कराची में खुलेआम अल्ताफ के खिलाफ कुछ बोलने की हिम्मत नहीं थी लोगों में. ये अतिशयोक्ति नहीं है कि कराची शहर में अल्ताफ की मर्ज़ी के बगैर एक पत्ता नहीं हिलता था. मगर अल्ताफ हुसैन शहद तो था नहीं कि एक्सपायरी डेट न हो. शहर उसकी मुट्ठी से फिसलता गया. एक लंबे समय तक ये होता रहा कि जितना सेना और सरकार MQM पर हमलावर होती, पार्टी उतनी ही मजबूत होती. अल्ताफ को लंदन में जमानत मिल गई है. मगर अब हालात बदल गए हैं. उसके पास न कार्यकर्ता बचे हैं. न कोई खास पकड़ बची है. हैं अब भी उसके सपोर्टर. मगर इतने नहीं कि अल्ताफ खेल में बना रहे. इतने बखत बाद अब शायद सच ही में मुहाजिरों ने उसे हास्ता ल विस्ता कह दिया है. अल्ताफ और उसकी MQM का सनसेट हो चुका है.
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