ये असम का इतिहास तय करने वाली रात थी. मुगल असम की सीमा से कुछ दूर थे. मुगलों और असम के सैनिकों के बीच युद्ध चरम पर था. इस रात असम का ऐसा शूरवीर तैयार हो रहा था जिसकी पहचान युगों-युग के लिए असम के इतिहास के पन्नों में दर्ज होने वाली थी. इस रात मुगलों की हार होनी थी, वो मुगल जिन्हें शक्तिशाली राजपूत भी नहीं हरा पाए थे.
1667 में एक सेनापति ने औरंगज़ेब को चुनौती दी थी. इस सेनापति ने मुगल सैनिकों को गुवाहाटी से बाहर धकेला था. औरंगज़ेब ने गुवाहाटी को वापस पाने के लिए प्रतिनिधि के तौर पर अपने सबसे शक्तिशाली सहयोगी राजपूतों के राम सिंह को भेजा. लेकिन उसे इस बात का बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था कि 'आहोम' ने अपने बेड़े में शेर पाला हुआ है- आहोम का सेनापति, लचित बोरफुकन. जिसने अपने खुद के मामा की जान ली थी. सिर्फ इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कि असम सफलतापूर्वक मुगलों को हरा दे. ये 1671 का प्रसिद्ध सराईघाट का युद्ध था.
मुगलों की ताकत में बस एक कमी थी, उनकी नौसेना. लचित बोरफुकन ने एक चाल चली. उसने अपने डेमोग्राफ़ी के ज्ञान और गुरिल्ला युद्ध की रणनीतियों का इस्तेमाल ज़मीन पर मुगल सैनिकों को जांचने में लगाया. फिर उन्हें ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर हरा दिया. कैसे अपने सेनापति के नेतृत्व में आहोम ने मुगलों को हराया था, इस बात की गाथा बार-बार गाई जाती है.
इस रात असम और मुगल दोनों का नसीब तय होना था. ये वो कहानी है जो असम के बच्चे-बच्चे को मुंह ज़ुबानी याद है. वो कहानी जो हर पीढ़ी को ज़िंदगी में रोज़ की मुश्किलों का सामना करने की हिम्मत देती है. ये एक निर्णायक लड़ाई थी, लेकिन इससे पहले वीर लचित बीमार पड़ गया. वो फिर भी डटा रहा अपने राजा चक्रध्वज सिंह को मिले उस कर्तव्य के लिए, जो उनके पिता जयधज सिंह ने उन्हें दिया था. राजा जयधज सिंह ने बेटे को अपने देश के खोए सम्मान को वापस हासिल करने का काम दिया था. लचित ने मिट्टी से तटबंधों का निर्माण करने का आदेश दिया.
लचित ने इसे एक रात में बनवाने का ज़िम्मा अपने
मामा मोमाई तामुली को दिया था. लोगों के बार-बार कहने के बावजूद लचित ने आराम करने से मना कर दिया. लचित काम कहां तक पहुंचा ये देखने के लिए कंस्ट्रकशन वाली जगह पर गया. लेकिन जब वो वहां पहुंचा तो उसने देखा, सारे सैनिक हताश पड़े हैं, सैनिकों ने मान लिया था कि वो चाहें जो कर लें, लेकिन सुर्योदय होने से पहले दीवार नहीं बना पाएंगे. उन्होंने युद्ध शुरू होने से पहले ही हार मान ली थी, ऐसा भय था मुगलों की ताकत और राजपूतों का.
इस पर लचित को अपने मामा पर बहुत गुस्सा आया. जो अपने सैनिकों को काम करने के लिए उत्साहित भी नहीं कर पाए. जिसकी वजह से देरी तो हुई ही, इसके साथ ही लचित की बनाई रणनीति पर भी संकट आ गया. उसने अपनी वो सोने की तलवार निकाली, जिसे आहोम का राजा अपने सेनापति को देता है और उससे अपने मामा का सिर धड़ से अलग कर दिया. 
लचित ने कहा, 'मेरा मामा मेरे देश से बड़ा नहीं है. लचित के ऐसा करने से सैनिकों में एक जोश भर गया. सूरज के उगने से पहले ही दीवार बनकर तैयार हो गई. वीर ने भूमि के साथ-साथ ब्रह्मपुत्र नदी पर भी अपनी जीत सुनिश्चित कर ली थी. उसने तबीयत खराब होते हुए भी अपने सैनिकों का मनोबल और विश्वास बनाए रखा. मुगलों को बाहर खदेड़ दिया गया. राम सिंह को दोबारा कोई मौका नहीं मिला गुवाहाटी को वापस अपने कब्ज़े में करने का. लचित ने अपने सैनिकों से कहा, 'जब मेरे देश पर आक्रमणकारियों का खतरा बना हुआ है, जब मेरे सैनिक उनसे लड़ते हुए अपनी ज़िंदगी दांव पर लगा रहे हैं, तब मैं महज़ बीमार होने के कारण कैसे अपने शरीर को आराम देने की सोच सकता हूं. मैं कैसे सोच सकता हूं अपने बीवी और बच्चों के पास घर वापस चले जाने के बारे में, जब मेरा पूरा देश खतरे में है. इसके बाद राम सिंह ने भी कबूला कि उनके दुश्मनों की सेना उनसे बेहतर थी.
हर साल 24 नवंबर को असम में इस वीर की बहादुरी का उत्सव मानाया जाता है. लचित के नाम पर ही नेशनल डिफेंस एकेडमी में बेस्ट कैडेट गोल्ड मेडल दिया जाता है.