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सती प्रथा को नकार रहे भाविश अग्रवाल को कुणाल कामरा ने दिया जवाब, परेशान अमीश त्रिपाठी हो गए

Sati Pratha में महिला को जलाने से पहले उसे नशा कराया जाता था, ताकि वो होश में ना रहे. उनको देवी बनाकर पेश किया जाता. उनका ब्रेनवॉश ये कहकर किया जाता की वो बहुत पुण्य का काम कर रही हैं. चिता पर बैठाने से पहले महिला के हाथ-पैर बांध दिए जाते.

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कुणाल कामरा, भाविश अग्रवाल और अमीष त्रिपाठी. (फाइल फोटो: इंडिया टुडे)

स्टैंडअप कॉमेडियन कुणाल कामरा (Kunal Kamra) और ओला कंपनी के CEO भाविश अग्रवाल (Bhavish Aggarwal) एक बार फिर से भिड़ गए हैं. इस बार मामला सती प्रथा से संबंधित है और इस बहस में लेखक अमीश त्रिपाठी (Amish Tripathi) भी शामिल हैं. दरअसल, भाविश ने X पर लिखा कि सती प्रथा का कोई प्रमाण बहुत मुश्किल से मिलता है. इस पोस्ट में अमीश के एक वीडियो का लिंक था. 

उस पूरे वीडियो का भाव कुछ ऐसा था कि भारत में सती प्रथा जैसी कोई चीज बहुत बड़े स्तर पर नहीं थी, और भारत के बारे में ऐसी बातें अंग्रेजों ने फैलाईं. मसलन कि वीडियो का टाइटल है,

Sati- Fact or Fiction? (सती- सच है या कल्पना?)

कुणाल और भाविश पिछले साल से ही X पर भिड़ते रहे हैं. इस बार भी कुणाल ने उनको करेक्ट करने की कोशिश की. उन्होंने लिखा,

राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ी. 1829 में इसे खत्म कर दिया गया था. भारत में सती प्रथा का अंतिम मामला हाल ही में 1987 में हुआ था. प्लीज अपनी (ओला की) गाड़ियों पर ध्यान दें, जिनकी हालत खराब है.

भाविश का बचाव करने अमीश आए. उन्होंने बचाव में ‘द बंगाल सती रेगुलेशन, 1829’ की कॉपी का एक स्क्रीनशॉट पेश किया. कुणाल भी इसी कानून की बात कर रहे थे. जिस हिस्से को भाविश ढाल बना रहे थे, उसमें सती प्रथा के अस्तित्व पर कहीं भी सवाल नहीं उठाया गया है. बल्कि इस बात के तर्क दिए गए हैं कि इस प्रथा को क्यों समाप्त किया जाना चाहिए. वो हिस्सा कुछ इस प्रकार है,

सती प्रथा, या हिंदुओं की विधवाओं को जिंदा जला देना या दफना देना इंसानी भावनाओं को उद्वेलित करने वाला है. इसे हिंदुओं के धर्म में कहीं भी अनिवार्य कर्तव्य के रूप में नहीं बताया गया है. इसके विपरीत, विधवाओं को पवित्रता और संन्यास का जीवन जीने के लिए प्रेरित किया जाता है. पूरे भारत में अधिकांश लोग इस प्रथा का पालन नहीं करते हैं. प्रमुख जिलों में तो ये प्रथा है ही नहीं. जिन जिलों में यह प्रथा सबसे अधिक प्रचलित है, वहां ये कुख्यात है कि कई बार ऐसे अत्याचार किए गए हैं, जो खुद हिंदुओं के लिए भी दुखदायी रहे हैं और उनकी नजर में अवैध और क्रूर हैं. इसको रोकने के लिए अब तक किए गए उपाय पर्याप्त साबित नहीं हुए. इसलिए कानून बनाने की जरूरत है.

The Bengal Sati Regulation
द बंगाल सती रेगुलेशन, 1829

रेगुलेशन के इस हिस्से का सारांश ये है कि सती प्रथा को देश के सारे हिंदू नहीं मानते और वो खुद भी इससे खुश नही हैं. इसलिए इसको खत्म करने की जरूरत है. कामरा ने अमीष के इस पोस्ट का रिप्लाई किया,

सरकारों की राजनीति में हमारे इतिहास के संघर्षों को कमतर ना करें. हिंदू धर्म किसी किताब से नहीं, बल्कि प्रथाओं से कंट्रोल होता है. ये प्रथा प्रचलित थी. साकारात्मक बदलाव के लिए काम करने वाली महिलाओं और पुरुषों ने इसके खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. उनके संघर्षों की कहानी दस्तावेजों में उपलब्ध है. दस्तावेजों में उपलब्ध पहला मामला ईसा पूर्व युग का है और आखिरी मामला 1987 का. यही कारण है कि बुकस्टोर्स में पौराणिक कथाओं और इतिहास की किताबों का सेक्शन अलग-अलग होता है. दोनों को मिलाकर लोगों को भ्रमित ना करें.

Sati- Fact or Fiction?

तमाम ऐतिहासिक दस्तावेज यह साबित करते हैं कि भारत में सती प्रथा का अस्तित्व रहा है. जहां तक इनकी संख्या का सवाल है, अंग्रजी लेखक एडवर्ड थॉमसन 19वीं सदी में अपनी किताब 'सत्ती' में इसकी संख्या हजारों में बताते हैं. प्रख्यात इतिहासकार सुमित सरकार और तनिका सरकार की संपादित किताब ‘वुमन एंड सोशल रिफॉर्म इन मॉडर्न इंडिया’ में लिखा है,

ये फैक्ट (सती प्रथा) इतना स्थापित है कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि ये पूरे बंगाल में बहुत बड़े स्तर पर हो रहा था. 1803-04 में कलकत्ता के 30 मील के दायरे में विलियम कैरी की जांच से पता चला कि 12 महीने की अवधि में 438 विधवाएं सती प्रथा से गुजरीं.

हालांकि, इस बात का कोई ठोस आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि सती प्रथा के कारण कितने महिलाओं की जान गई. क्योंकि आजादी के बाद भी ऐसे मामलों को प्रथा का नाम देकर पुलिस तक कम ही पहुंचने दिया गया. मीडिया रिपोर्ट्स और दूसरे दस्तावेजों से जुटाए गए आंकड़ों से पता चलता है कि 1943 से 1987 तक देश में सती के लगभग 30 मामले सामने आए.

राजा राममोहन राय का संघर्ष

आधुनिक भारत के जनक कहे जाने वाले राजा राममोहन राय ने इस प्रथा को खत्म करने के लिए लंबा संघर्ष किया. राय एक दफा किसी काम से विदेश गए थे. इसी दौरान उनकी भाभी की मौत हो गई. राय के लौटने के पहले ही उनकी भाभी को सती कर दिया गया. यानी कि जिंदा जला दिया गया. इसके बाद उन्होंने इस प्रथा के खिलाफ अपनी लड़ाई शुरू की.

1829 में इस पर रोक लगाए जाने से पहले भी कई बार इसको रोकने की कोशिश की गई. 1515 में पुर्तगालियों ने गोवा में इस पर रोक लगाई. डच और फ्रेंच ने हुगली चुनचुरा और पुड्डूचेरी में इसको रोकने की कोशिश की. इसके बावजूद भी ये जारी रही. यहां तक कि 1829 में कानून आने के बाद भी इसका एक दर्दनाक मामला सामने आया, जब आजाद भारत ने एक महिला को जिंदा जलते देखा. या उन लोगों को देखा जो एक महिला को जिंदा जला रहे थे.

रूप कंवर सती कांड 

राजस्थान के सीकर जिले में 4 सितंबर, 1987 को एक ऐसी घटना घटी जिसने पूरे देश का ध्यान खींचा. इसे ‘रूप कंवर सती कांड’ कहते हैं. इस प्रथा के बारे में एक पक्ष ये कहता है कि महिलाएं खुद ही सती होने का विकल्प चुनती हैं. ये बात सुनने में ही अटपटी लगती है कि कोई खुद को जिंदा जलाने का विकल्प कैसे चुन सकता है! रूप कंवर सती कांड में भी यही ‘तर्क’ दिया गया.

लेकिन ये प्रथा ऐसी थी कि महिला को जलाने से पहले उसे नशा कराया जाता था, ताकि वो होश में ना रहे. उनको देवी बनाकर पेश किया जाता. उनका ब्रेनवॉश ये कहकर किया जाता कि वो बहुत पुण्य का काम कर रही हैं. चिता पर बैठाने से पहले महिला के हाथ-पैर बांध दिए जाते थे. जब उनको जलाया जाता तो आसपास तेज आवाज में ढोल बजाए जाते. लोग जोर-जोर से हल्ला करते ताकि महिला के चिल्लाने की आवाज बाहर ना आए. इन सबके प्रमाण रूप कंवर सती कांड में भी मिले. 

इस कहानी को विस्तार से यहां पढ़ सकते हैं: रूप कंवर सती कांड के आरोपी बरी तो हो गए, लेकिन ये दर्दनाक कहानी आप पढ़ नहीं पाएंगे!

कुछ प्रत्यक्षदर्शी रूप कंवर के बारे में यहां तक कहते हैं कि जब उनको जलाया जा रहा था, तब वो संघर्ष कर रही थीं. और किसी तरह चिता से नीचे आ गईं. लोग इसके लिए भी पहले से तैयार थे. उनके हाथों में लाठी और डंडे थे. जिससे उन्होंने रूप कंवर को वापस आग में धकेल दिया. 31 जनवरी, 2004 को मामले के 25 आरोपियों को बरी कर दिया था. पिछले साल अक्टूबर महीने में इस मामले के अन्य 8 आरोपियों को बरी कर दिया गया.

वीडियो: मुताह प्रथा, जिसमें अय्याशी के लिए कॉन्ट्रैक्ट शादी का सहारा लिया जाता है