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दवाओं से ठीक नहीं होंगे भारत के लोग? 80% से ज्यादा भारतीयों में सुपरबग्स होने का दावा

अगर कोई शख्स बार-बार एंटीबायोटिक्स लेता है तो आगे चलकर हो सकता है उसका शरीर दवा देने पर पॉजिटिव रेस्पॉन्ड देना ही बंद कर दे. यानी बीमारी में कोई सुधार न हो. ऐसा इन्हीं मल्टीड्रग रेजिस्टेंट ऑर्गेनिज्म की वजह से होता है. गौरतलब है कि भारत में करोड़ों लोग अलग-अलग कारणों से बिना डॉक्टर की सलाह लिए एंटीबायोटिक्स लेते हैं.

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MDR के मरीज में पहली लाइन की दवाएं काम नहीं करती. उनके लिए हाई लेवल की दवाओं की जरूरत पड़ती है. (फोटो- Unsplash और PTI)

चर्चित मेडिकल जर्नल Lancet के एक नए रिसर्च ने भारत में एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस को लेकर बड़ा दावा कर दिया है. जर्नल में प्रकाशित इस रिसर्च में पाया गया कि भारत में 83 प्रतिशत मरीजों के शरीर में मल्टीड्रग रेजिस्टेंट ऑर्गेनिज्म (MDRO) मौजूद हैं. आसान भाषा में बताएं तो ज्यादातर भारतीयों के शरीर में ऐसे छोटे-छोटे बैक्टीरिया (या जीव) विकसित हो गए हैं जो दवाओं का असर नहीं होने देते. इन्हें 'सुपरबग' भी कहा जाता है.

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अगर कोई शख्स बार-बार एंटीबायोटिक्स लेता है तो आगे चलकर हो सकता है उसका शरीर दवा देने पर पॉजिटिव रेस्पॉन्ड देना ही बंद कर दे. यानी बीमारी में कोई सुधार न हो. ऐसा इन्हीं मल्टीड्रग रेजिस्टेंट ऑर्गेनिज्म की वजह से होता है. गौरतलब है कि भारत में करोड़ों लोग अलग-अलग कारणों से बिना डॉक्टर की सलाह लिए एंटीबायोटिक्स लेते हैं.

एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ गैस्ट्रोएंटरोलॉजी (AIG) हॉस्पिटल्स के शोधकर्ताओं इस रिसर्च के हवाले से चेतावनी दी है कि भारत में सुपरबग्स का खतरा अब सिर्फ अस्पतालों तक सीमित नहीं है, बल्कि ये हमारे समुदायों, पर्यावरण और रोजाना के जीवन में फैल चुके हैं.

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इस रिपोर्ट ने हेल्थ पॉलिसी में बदलाव और राष्ट्रीय जागरूकता अभियान की मांग की है. ये रिसर्च चार देशों—भारत, इटली, अमेरिका और नीदरलैंड्स में किया गया था. एनडीटीवी में छपी रिपोर्ट के अनुसार शोध में भारत से शामिल हुए लोगों में से 83 प्रतिशत में MDRO पाया गया. जबकि इटली में 31.5 प्रतिशत, अमेरिका में 20.1 प्रतिशत और नीदरलैंड्स में मात्र 10.8 प्रतिशत लोगों में इसकी पुष्टि हुई है.

भारतीय मरीजों में से 70.2 प्रतिशत में एक्सटेंडेड-स्पेक्ट्रम बीटा-लैक्टमेज (ESBL) प्रोड्यूस करने वाले बैक्टीरिया थे. ये वो बैक्टीरिया हैं जो सामान्य एंटीबायोटिक्स (दवाओं) के असर को खत्म कर देते हैं. वहीं, 23.5 प्रतिशत लोग ऐसे थे जिनमें कार्बापेनेम-रेजिस्टेंट बैक्टीरिया मिले. ये वो बैक्टीरिया है जिसकी वजह से आखिरी समय में दिया जाने वाला एंटीबायोटिक्स भी असर नहीं करता.

रिसर्च को लेकर AIG हॉस्पिटल्स के चेयरमैन डॉक्टर डी नागेश्वर रेड्डी ने कहा,

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"जब 80 प्रतिशत से अधिक मरीजों के शरीर में पहले से ही दवा-प्रतिरोधी बैक्टीरिया मौजूद हों, तो खतरा अब अस्पतालों तक सीमित नहीं है. ये हमारे समुदायों, पर्यावरण और दैनिक जीवन में घुस चुका है."

रिसर्च के अनुसार ये समस्या सामुदायिक स्तर पर गहरी जड़ें जमा चुकी है. भारत में एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस (AMR) एक ‘नेशनल लेवल इमरजेंसी’ बन चुका है. हर साल लगभग 58 हजार नवजात शिशुओं की मौत प्रतिरोधी संक्रमणों से हो रही है. आईसीयू और कैंसर सेंटरों में बैक्टीरिया आम हो गए हैं.

डॉक्टर रेड्डी ने बताया कि एक सामान्य संक्रमण वाला मरीज, जो ड्रग रेजिस्टेंट नहीं है, वो एंटीबायोटिक्स से तीन दिनों में ठीक हो जाता है. इलाज का खर्च करीब 70 हजार रुपये होता है. लेकिन MDR मरीज में पहली लाइन की दवाएं काम नहीं करतीं. उनके लिए हाई लेवल की दवाओं की जरूरत पड़ती है. सेप्सिस विकसित होता है, ICU में 15 दिनों से अधिक रहना पड़ता है और खर्चा 4-5 लाख रुपये तक पहुंच जाता है. इससे रिकवरी लंबी होती है, जटिलताएं बढ़ती हैं और जान जाने का जोखिम कई गुना हो जाता है.

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