फिल्म 'ट्रैफिक' चेन्नई की एक असली घटना पर बनी है. सबसे पहले मलयालम में आई थी. सुपरहिट होने के बाद तमिल और कन्नड़ में भी इसे बनाया गया.
ट्रैफिक फिल्म अपने नाम की तरह है. जैसे अलग-अलग दिशाओं से आ रहा ट्रैफिक एक सिग्नल पर मिलता है, फिर अपने-अपने रास्ते चला जाता है, वैसे ही फिल्म में अलग-अलग कहानियां एक दिन के लिए एक-दूसरे से जुड़ती हैं. और आपको एक रोड ट्रिप पर ले चलती हैं. ऐसी ट्रिप, जो एक मरती हुई बच्ची की जान बचा सकती है.फिल्म के प्लॉट में कई प्लॉट हैं. जो शुरुआत में थोड़ा कनफ्यूज भी करते हैं. 25 जून सबकी जिंदगी में एक अहम दिन है. घूसखोरी के चलते सस्पेंड कर दिया एक ट्रैफिक हवालदार अपनी नौकरी पर लौट रहा है. एक युवा न्यूज एंकर एक बड़े चैनल पर अपना पहला शो करने वाला है. एक बड़े स्टार की बेटी दिल की बीमारी के चलते अस्पताल में भर्ती हो रही है. एक युवा सर्जन की शादी की सालगिरह है. इन सभी की कहानियां इस तरह छोटे-बड़े तरीकों से जुड़ी हुई हैं, कि इनमें से एक का एक्सीडेंट हो जाने पर सबकी जिंदगियां हमेशा के लिए बदल सकती हैं. फिल्म के डायरेक्टर लेट राजेश पिल्लई ने 'हाइपरलिंक' सिनेमा का इस्तेमाल करते हुए फिल्म का पहला हिस्सा प्लॉट बनाने में लगाया है. जिस तरह किसी चीज को पढ़ते समय आप किसी शब्द पर '*' का चिन्ह देखते हैं. और पता करने के लिए कि उस शब्द का मतलब क्या है, आप पन्ने के अंत में लिखे फुटनोट को पढ़ते हैं, ठीक उसी तरह ये फिल्म चलती है. एक कहानी चलते हुए अचानक रुक जाती है, वहां से दूसरी कहानी जुड़ती है. और फिर कई कहानियों से होते हुए पहली पर वापस आ जाती है. आप सारे सिरे जोड़ लें तो आपको मुकम्मल कहानी मिल जाती है. कहने का मतलब, कहानी फ़्लैशबैक, फ़्लैश फॉरवर्ड और वर्तमान के बीच आगे पीछे करती रहती है.

मिशन पूरा तो होगा ही, ये आपको फिल्म देखते समय पता होता है. लेकिन फिल्म के अंत तक का सफ़र थ्रिल से भरा हुआ है. क्योंकि हवलदार गोड़बोले को ऐसी जगहों से गाड़ी निकालते हुए जाना है जहां किसी भी वक़्त हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़क सकते हैं. हाईवे पर बंद रास्ते मिलते हैं. वायरलेस सिग्नल से लेकर फ़ोन का नेटवर्क तक ले कर चला जाता है. गाड़ी पुलिस के ट्रैकिंग सिस्टम से बाहर भी हो जाती है. लेकिन गोड़बोले सिर्फ एक ही चीज जानता है. कि उसे समय पर पुणे पहुंचना है.मनोज बाजपेयी, जिमी शेरगिल, प्रोसेनजीत चटर्जी, सचिन खेड़ेकर, किटू गिडवानी, दिव्या दत्ता ने अच्छी परफॉरमेंस दी हैं. लेकिन हर एक को देखकर लगता है कि इनका रोल थोड़ा ज्यादा होना चाहिए. जिस एक्सीडेंट से फिल्म शुरू हुई, उसका ट्रीटमेंट बेहतर हो सकता था. एक्सीडेंट ट्रेजेडी की भावना पैदा करने में सफल नहीं होता. ऐसा लगता है प्लॉट को उड़ाने के लिए बस एक कन्नी भर की तरह एक्सीडेंट का इस्तेमाल किया गया. इंडिविजुअल प्लॉट्स का ट्रीटमेंट सतही रहा. इसका कारण पौने दो घंटे में 4 से ज्यादा प्लॉट समेटने की कोशिश को माना जा सकता है.
मनोज बाजपेयी, जिन्हें एक तरह से फिल्म का 'हीरो' माना जा सकता है, हमेशा की तरह कमाल रहे हैं. कुल मिलाकर 3-4 डायलॉग बोले हैं. लेकिन अच्छा अभिनय डायलॉग का मोहताज नहीं होता. कई फिल्मों में सेंट्रल रोल करने के बाद मनोज का मल्टी-एक्टर, मल्टी-प्लॉट फिल्म में काम करना थोड़ा चौंकाने वाला लगा. पर शायद यही उनकी ख़ास बात है.https://www.youtube.com/watch?v=IGXw0NMwcS8