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व्हू इज़ अफ्रेड अॉफ सनी लियोनी? : वन नाइट स्टैंड रिव्यू

आखिर क्यों हर नई फिल्म सनी लियोनी के किरदार को चारों अोर से रद्दा लगाकर सिस्टम में फिट करने की परियोजना बन जाती है?

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फोटो - thelallantop

फिल्म : वन नाइट स्टैंड

निर्देशक : जासमिन डिसूजा

कलाकार : सनी लियोनी, तनुज वीरवानी, नायरा बनर्जी

पहले के जमाने की फिल्मों में एक चीज़ बहुत अच्छी होती थी. नायिका यहां सिर्फ नायिका होती थी, अौर क्योंकि वो नायिका होती थी इसलिए वो 'सभ्य-सुशील' होती थी, परिवार संभालती थी, सदा अपनी 'पवित्रता' बचाती थी अौर कोई 'गलत काम' नहीं करती थी. इससे इतर नाचना-गाना, दारू पीना अौर अन्य गंभीर किस्म के तमाम 'अनैतिक' कामों के लिए हमारे सिनेमा में हेलन थीं. नायिका अलग, अाकांक्षा अलग. कोई कन्फ्यूजन नहीं. लेकिन फिर सनी लियोनी हमारे सिनेमा में आईं अौर नायिका के तौर पर स्थापित हुईं. अौर साफ सुधरी दो हिस्सों में बंटी हमारी फिल्म की कहानी उलझ गई.

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आज सनी लियोनी की नई फिल्म रिलीज हुई है, जिसका नाम है 'वन नाइट स्टैंड'. जैसा नाम से लगता है, फिल्म 'वन नाइट स्टैंड' के बारे में बिल्कुल नहीं है. हालांकि फिल्म को मालूम है कि दर्शक इसी 'वन नाइट स्टैंड' वाले शीर्षक के चलते सिनेमाहाल आए हैं, अौर इसीलिए वो बार-बार कभी फ्लैशबैक के माध्यम से तो कभी हीरो के दिमाग में घूमती छवियों के माध्यम से उस 'वन नाइट स्टैंड' को कथा में लौटाकर लाती है. लेकिन इससे गुजारा नहीं. अाखिर यह असलियत दर्शकों पर खुल ही जाती है कि यह फिल्म 'वन नाइट स्टैंड' के बारे में नहीं अौर कई निराश दर्शक इंटरवल के बाद घर लौट जाते हैं.

फिल्म की शुरुआत बेशक इसे 'इरोटिका' की अोर लेकर जाती दिखती है. इस तरह की फिल्मों का एक पैटर्न होता है. कहानी सदा नायक के माध्यम से खुलती है अौर नायिका यहां किसी मायावी जादूगर सी कथा में प्रवेश करती है. 'वन नाइट स्टैन्ड' में कहानी नायक उर्विल रायसिंह (तनुज वीरवानी) की ज़बानी खुल रही है.

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अोपनिंग किसी दार्शनिक कथन से, क्योंकि आगे आने वाला सेक्स कहीं 'उथला' ना हो जाए इसका डर है, जिसे देखकर भ्रम होता है कि हम 'वन नाइट स्टैंड' नहीं 'शिप अॉफ थीसियस' देखने अाए हैं.

कहानी थाइलैंड के फुकेत पहुंचती है जहां नायक अपनी इवेंट मैनेजमेंट कंपनी का टीम लीडर बनकर शो अॉर्गनाइज करवा रहा है. कट टू लाल दुपट्टे वाली लड़की उर्फ सेलिना उर्फ सनी लियोनी. फिर आती है तेज़ाब मार्का हीरो की दोस्तों से 'लड़की पटाने' की शर्त अौर नायिका का चाल समझ जाना. अौर समझने के बाद भी 'पट जाना'. फिर वो चंद दृश्य, जिनके बल पर फिल्म को मार्केट में बेचा गया. फिर कुछ उनके री-कैप. अौर जैसा हमारे सिनेमा द्वारा रचित ऐसी स्वप्न कहानियों में होता है, सुबह नायिका बस नाम बताकर चली जाती है. कोई पता-ठिकाना नहीं पीछे, बस उसकी याद रह जाती है.

लेकिन इसके बाद कहानी फुकेत से महाराष्ट्र के पूना शहर आ जाती है अौर कहानी में आ जाता है परिवार. अौर जहां परिवार है वहां तो मर्यादा का दामन भूलकर भी नहीं छोड़ा जा सकता.

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पैटर्न के अनुसार यहां भी नायक की एक 'समर्पित' बीवी है अौर एक 'अच्छा वाला' दोस्त है. तुतलाकर बात करनेवाला बच्चा भी है. समर्पित बीवी उसके लिए खाना बनाती है अौर दोस्त भटकते नायक को सही रास्ता दिखाता है.

यहां तक कि दिलफैंक नायक के अॉफिस में उसकी उम्रदराज सेकेट्री भी पैटर्न के अनुसार है. नायक का सूत्र है, 'सेक्सी सेकेट्री याने टैंप्टेशन, टैंप्टेशन याने कॉम्प्लीकेशन, हायली अवॉइडेबल'. स्पष्ट है कि सेक्स स्वयं में यहां समस्या है. कहानी एकदम पलट जाती है. नायक की जिन्दगी में वो लाल दुपट्टे वाली फिर आती है. लेकिन अब वो सपना नहीं, समस्या है.  फिल्म के प्रमोशन में इस दूसरे पार्ट को थ्रिलर कहकर विज्ञापित किया गया है. लेकिन यह थ्रिलर कम अौर सास-बहू वाले सीरियल्स की याद ज्यादा दिलाता है.

दरअसल इस फिल्म की कहानी दो हिस्सों में बंटी है. पहले में सेक्स है, इसलिए परिवार नहीं है. दूसरे में परिवार है इसलिए सेक्स नहीं है. लेकिन खास बात ये है कि प्यार यहां कहीं भी नहीं है. ना प्यार, ना दोस्ती, ना साझेदारी. फिल्म नायिका का बंटवारा भले ना कर पाए, लेकिन मौजूदा नायिका को ही तराशकर 'फैमिली स्ट्रक्चर' में फिट करना उसकी महती जिम्मेदारी है.

फिल्म इंटरवल से ही इस कोशिश में जुट जाती है. लगता है जैसे सनी को कास्ट कर अौर उसके इर्द गिर्द फिल्म की कहानी बुन फिल्म खुद शर्मिन्दा है. पूरे सेकेंड हाफ फिल्म जैसे पछताती है अौर 'गलती के सुधार' में जुटी रहती है.

मेरे प्रिय लेखक ज्ञानरंजन बचपन में देखे स्कूल के बारे में लिखते हैं कि 'मैं तो काफी दीनदयाल टाइप का बच्चा था, इसलिए मुसीबतें मेरे ऊपर कम आईं, पर रेखाअों से बाहर शरीर निकालनेवाले बच्चों की शामत तो आती ही थी'. ये रेखाएं अनुशासन की रेखाएं थीं, कायदों की रेखाएं थीं, सामाजिक रूढ़ियों की रेखाएं थीं. हिन्दी फिल्में दरअसल ऐसे ही स्कूल हैं, जिन्होंने ये बीड़ा उठाया है कि वे सनी लियोनी को इन अनुशासन अौर कायदे की रेखाअों के भीतर लायेंगे. जब फिल्म के दूसरे हाफ में सनी मर्मांतक आवाज़ में बोलती हैं, 'मेरी फैमिली मेरी प्रॉयोरिटी है' तो लगता है जैसे यह उनके किरदार के लिए नहीं, खुद उनके लिए है. उनकी बनाई आजाद खयाल लड़की की छवि के लिए. या शायद उस लड़की के लिए जिसे फिल्म पहले हाफ में पीछे छोड़ आई है. जिसके पीछे कोई घर-परिवार का बंधन नहीं, या शायद जिन्हें वो मानना नहीं चाहती.

फिल्म 'वन नाइट स्टैंड' की सबसे बड़ी समस्या वो वन नाइट स्टैंड बताया गया है जो नायक अौर नायिका के बीच हुआ. लेकिन फिल्म को, अौर हमको भी ये समझना होगा कि सेक्स समस्या नहीं होता बल्कि सेक्स को समस्या मानना ही दरअसल एक समस्या है. जिन झूठों का पुलिन्दा किरदार बुनते हैं यहां, उनका रास्ता इसी 'समस्या' मानने की प्रवृत्ति से निकलता है. थोड़ा आगे बढ़ेंगे तो देखेंगे कि समस्या उन गैर-बराबर रिश्तों में है जिनकी वजह से इंसान रिश्तों के बाहर अपना अस्तित्व, या कभी-कभी थोड़ी सी खुशी, खोजने लगता है. यह 'लक्षण' को 'समस्या' मानने की प्रवृत्ति है, जिससे 'वन नाइट स्टैंड' ग्रस्त है.

जब उर्विल अौर उसकी हमउमर, साथ काम करने वाली पत्नी सिमरन दोस्तों को पार्टी देते हैं अौर इस पार्टी में सिमरन अकेली रसोई से खाना तैयार कर आवाज लगाती है, 'guys, नीचे आ जाअो, खाना तैयार है', वहां समस्या है. जब एक पति अपनी पत्नी को उसकी तारीफ करते हुए ये कहता है कि 'तुम कभी शिकायत का मौका ही नहीं देती' तो वहां समस्या है. ये हमारे समय की फिल्म है. फिल्म की आधुनिकता यहां तक तो है कि वो नायिका के हाथों कहलवाली है कि 'लड़के को किया सब माफ़ क्यों अौर सिर्फ लड़की पर ही इल्ज़ाम क्यों'. लेकिन अंत में जड़ नैतिकताअों की कसौटी पर जीते-जागते इंसानों को कसते हुए यह फिल्म कहीं पुरानी पड़ जाती है.

लेकिन सबसे कमाल बात फिल्म के भीतर नहीं, फिल्म के बाहर है. मैं यह देखकर आश्चर्यचकित होता हूं कि फिल्म के प्रोवोकेटिव टाइटल अौर प्रोमोज के बावजूद सिनेमाहॉल में लड़कों से ज्यादा ताताद लड़कियों की है. कई अपने ब्वॉयफ्रेंड के साथ आई हैं तो कई झुंड बनाकर साथ में. वे गुपचुप बातें कर रही हैं अौर कभी खिलखिलाकर हंस भी रही हैं.

ये क्या माजरा है, कैसे इस आधे से ज्यादा खाली हॉल में इतनी लड़कियां एक भूतपूर्व पॉर्न स्टार की फिल्म देखने इकट्ठा हुई हैं? तभी फिल्म के क्रेडिट रोल होते हैं अौर मै नाम देखता हूं. सबसे पहले टाइटल क्रेडिट्स में एक लड़की का नाम आता है. 

वे एक ऐसी लड़की की फिल्म देखने आईं हैं जिसने अपनी जिन्दगी के फैसले खुद किए हैं.

यही डर है. सनी लियोनी आज हमारे सिनेमा की जरुरत हैं. लेकिन उनके होने से एक बहुत बड़ा खतरा भी है. इसीलिए तकरीबन हर फिल्म सनी लियोनी के किरदार को हर अोर से रद्दा लगाकर सिस्टम में फिट करने की परियोजना बन जाती है. डर है, कि कहीं जब लड़के उन्हें आइटम सॉंग में किसी 'सेक्स अॉबजेक्ट' की तरह देख रहे हों, ये लड़कियां उनसे आजाद फैसलों का मतलब ना सीख लें.

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