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फ़िल्म रिव्यू- श्याम सिंघा रॉय

कैसी है ये तेलुगु फिल्म, जिसका दलित को उठाकर कुएं में फेंकने वाला सीन भयानक वायरल हो रहा है?

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फिल्म के एक सीन में नानी और साईं पल्लवी.
हाल ही में नेटफ्लिक्स पर एक फिल्म आई है. 'श्याम सिंघा रॉय'. ये एक तेलुगु फिल्म है. पीरियड ड्रामा. बड़ा बज़ था इसका, क्योंकि साउथ के चर्चित एक्टर नानी ने इसमें लीड रोल किया है. उनके साथ साथ साईं पल्लवी भी लीड रोल में नज़र आती हैं. कैसी है फ़िल्म, कितना मज़ा आया, नहीं आया. आइए बात करते हैं.
मूवी के ओपनिंग सीन में हम मिलते हैं वासु से. वासुदेव को फ़िल्ममेकर बनना है. अभी बना नहीं है इसलिए खुद को अपकमिंग डायरेक्टर कहता है. टेस्ट अच्छा है उसका. अपने एक्टर्स की कास्टिंग पर उसकी अच्छी पकड़ है. वो एक्टर्स नहीं मॉडल्स चुनता है. महान फ्रेंच फिल्ममेकर रॉबर्ट ब्रेसों वाले मॉडल्स, जिन्हें ब्रेसों एक्टर्स से भी सुपीरियर मानते थे. वासु के कमरे की दीवारों पर उसका सिनेमा सजा है. यहां सैम मेंडेज़ की 'रोड टु परडिशन' भी है, गुरु दत्त की 'प्यासा' भी है और के. बालाचंदर की 1981 में आई फ़िल्म 'अकाली राज्यम' भी. एक फोटो 'बॉम्बे', 'रोजा', 'नायकन' वाले डायरेक्टर मणि रत्नम की भी लगी है. भला क्यों न होगी! एनएफडीसी से उसे फ़िल्म एप्रीसिएशन जैसा कोई सर्टिफिकेट भी मिला है.
फिल्म में नानी का कैरेक्टर एक अपकमिंग डायरेक्टर का है.
फिल्म में नानी का कैरेक्टर एक अपकमिंग डायरेक्टर का है.

आगे बढ़ें तो वासु एक डैशिंग सिंगल बैचलर है. हैदराबाद शहर की झलकियां देखते हुए हमें मालूम चलता है कि वो वहीं रहता है. एक शॉर्ट फिल्म बना रहा है, ताकि उस फिल्म को दिखाकर कोई मेजर प्रोजेक्ट हाथ लग सके.
फ़िल्म बनाने का पैसा नहीं है, इसलिए गुरिल्ला पद्धति से सब हो रहा है. वासु के दोस्त मदद कर रहे हैं. अपनी शॉर्ट फिल्म में एक प्रोग्रेसिव और निर्भीक लड़की के रोल के लिए उसे एक एक्ट्रेस चाहिए. ऑडिशन खराब जाते हैं. अंततः उसे कैफे में एक नॉन-एक्टर दिखती है. कीर्ति - जो रोल कीर्ति शेट्टी ने किया है. लेकिन कीर्ति को फ़िल्मों में कोई रुचि नहीं. अब हर ग्रेट फिल्ममेकर की तरह वासु को अपनी इस म्यूज़ को कन्विंस करना है, जो कि एक डायरेक्टर का सबसे बड़ा गुण होता है. अंततः वो कामयाब रहता है. फ़िल्म बनती है. उसे वो प्रोड्यूसर्स को दिखाता है, वो बड़े इम्प्रेस होते हैं. उसे एक फुल फ्लेजेड फीचर फ़िल्म मिल जाती है. उसे वो बनाता है. बढ़िया बनती है. चारों तरफ चर्चा हो जाता है. बॉलीवुड यानी मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री से उसे फ़िल्में बनाने के लिए साइन किया जाता है.
वासु का ड्रीम बड़ी तेजी से पूरा हो जाता है. यूं कि यकीन नहीं होता. यानी too good to be true. यानी, समझ लो कुछ बुरा होने को है. एक स्क्रीनप्ले इसी 'कुछ बुरे' के आने के बाद ही स्क्रीनप्ले बनता है. पटकथा लेखन की कक्षा का सबसे बड़ा सबक.
ये 'कुछ बुरा' क्या होता है, और कहानी आगे कैसे बढ़ती है, ये हम श्याम सिंघा रॉय में देखते हैं.
चूंकि ये एक पीरियड लव स्टोरी भी है तो फ़िल्म का एक मेजर पार्ट, पास्ट में भी घटता है. 1969 के बंगाल में. जहां नानी के कैरेक्टर के दूसरे कैरेक्टर का नाम श्याम सिंघा रॉय होता है. एक प्रोग्रेसिव और क्रांतिकारी मिज़ाज का आदमी. हालांकि ये किरदार बंदूक की जगह कलम से क्रांति लाने में यकीन रखता है. लेकिन वो एक्शन भी कर सकता है. अपने एक शुरुआती सीन में ही श्याम गांव के पंडितों से भिड़ जाता है जो एक दलित को कुंए से पानी नहीं लेने दे रहे होते हैं. अंत में वो उस दलित को ही उठाकर कुंए में फेंक देता है और कहता है - लो, पूरा कुंआ ही 'अपवित्र' हो गया. अब कहीं ओर से पियो पानी, या इसी से पियो. फिल्म के नायक का ये हीरोइज़्म रियलिस्टिक भी है और साउथ के सिनेमा की तरह ग्लोरीफाइड भी. फ़िल्म के एक बड़े एक्शन सीन में वो महंत और उसके आदमियों को उठा-उठाकर भी पटकता है. एक मुक्का और आदमी कई-कई मीटर दूर जाकर गिरता है. और इसी सीन में दर्शक फ़िल्म की गिरफ्त में पूरी तरह आ चुका होता है.
डायरेक्टर हैं राहुल सांकृतायन, जिन्होंने इससे पहले विजय देवरकोंडा स्टारर फ़िल्म 'टैक्सीवाला' बनाई थी. जो एक हॉरर कॉमेडी थी. उन्होंने 'श्याम सिंघा रॉय' के पीरियड फेज़ को ऑथेंटिकली निर्मित किया है. चाहे वो तब की लोकेशंस हों, कपड़े हों या तब की सामाजिक बुराइयों को ऑब्जर्व करना हो. 'श्याम सिंघा रॉय' caste system, untouchability और महिलाओं की दुर्दशा के खिलाफ लिखता है. इस कैरेक्टर में नानी काफी स्टाइलिश और चार्मिंग लगते हैं. राजदूत बाइक चलाते हुए मूंछों को ताव देते इस कैरेक्टर को देख लगेगा कि इसे कहीं तो देखा है. और वो सर्च चंद्रशेखर आज़ाद पर जाकर खत्म होगी. 'श्याम सिंघा रॉय' कुछ वैसा ही लुक है.
साई पल्लवी ने फिल्म में मैत्रेयी नाम का किरदार निभाया है, जो कि एक देवदासी है.
साई पल्लवी ने फिल्म में मैत्रेयी नाम का किरदार निभाया है, जो कि एक देवदासी है.

फ़िल्म की दूसरी सबसे मज़बूत पिलर है मैत्रेयी. ये रोल साईं पल्लवी ने किया है. जिनसे हम सेकेंड हाफ में मिलते हैं. उनका रोल वैसे ज्यादा लंबा नहीं, लेकिन ऐसा है जिसके बिना ये फिल्म पूरी नहीं हो सकती. साईं हर फ्रेम में ग्लो करती हैं. सादगी में भी. उनका चेहरा, एक्सप्रेशन, आंखों से बात कह जाना और स्क्रीन प्रेज़ेंस ऐसी है कि एक सेकेंड भी नज़र नहीं हटती. मैत्रेयी के किरदार में उनकी नृत्य मुद्राएं अनुपम हैं. हमें गुज़रे दौर के क्लासिक डांस फॉर्म्स याद आ जाते हैं. मुझे मैत्रेयी और इस पीरियड फेज़ में ये फिल्म - art और symmetry में डूबी नजर आई. मुझे ये फ्रेम्स masterpiece लगे. Simply delightful.
स्टोरी के लेवल पर 'श्याम सिंघा रॉय' कोई ऐसा आइडिया नहीं है, जो बहुत ही अलग हो. या फिर ऐसा नहीं है कि ये फिल्म एपिक बन पड़ी है. लेकिन ये लव स्टोरी देखते हुए हम इसमें डूबते ज़रूर हैं. अंत तक हुक्ड रहते हैं. शायद आखिरी सीन तक आते-आते आंखें भी भीगती हैं. इस लव स्टोरी को जो चीज़ अलग बनाती है वो इसमें मौजूद एक किस्म की सॉफ्टनेस, कोमलता है. और ये इस फ़िल्म में मेरा पसंदीदा हिस्सा है. साईं पल्लवी और नानी के किरदारों की लव स्टोरी नवरात्रि के नौ दिनों में अनफोल्ड होती है. चांद और नदी के बैकड्रॉप में हमें चंद्रमा के चरण दिखाए जाते हैं. आप इनके प्रेम के साक्षी बनते हो, और दोनों के प्रेम के लिए root करते हो.

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