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शिकारा: मूवी रिव्यू

एक साहसी मूवी, जो कभी-कभी टिकट खिड़की से डरने लगती है.

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'शिकारा' के पहले कुछ मिनट कुछ ज़्यादा ही फ़िल्मी लगते हैं.
'लव इन कश्मीर' नाम की एक मूवी की शूटिंग चल रही है. डायरेक्टर एक परफेक्ट सीन के लिए बार-बार रीटेक ले रहा है. क्यूंकि दो लोकल, जिन्हें शूटिंग के दौरान ही भीड़ से चुन लिया गया है, कपल होने की एक्टिंग ठीक से नहीं कर पा रहे. सीन के शूट-रीशूट के दौरान दोनों में प्रेम पनपने लगता है और फिर दोनों की शादी हो जाती है. ये सब 'शिकारा' मूवी के पहले कुछ मिनटों में घट जाता है. हमें पता है कि मूवी लव स्टोरी पर फोकस नहीं करने वाली. हालांकि मूवी की टैग लाइन है-
जब सिर्फ नफरतें बची रह जाएं, तो प्रेम आपका इकलौता अस्त्र है!
और यूं मूवी प्रेम और नफरतों के बीच झूलती है, जिसमें जहां नफरतों को पोट्रे करने में डायरेक्टर का हाथ पूरी तरह सधा हुआ है, वहीं प्रेम जो है, वो ओल्ड स्कूल, क्लीशे और बहुत ही ज़्यादा फ़िल्मी लगता है.
# कहानी-
‘शिकारा’ कहानी है, विस्थापित कश्मीरी पंडितों की. लेकिन चूंकि ये एक फिल्म है, कोई डॉक्यूमेंट्री नहीं, तो फिल्म में एक कहानी भी है. शांति धर नाम की एक कश्मीरी पंडित लड़की और शिव कुमार धर नाम के एक कश्मीरी पंडित लड़के की लव स्टोरी. तीस साल से बड़ी लंबी लव स्टोरी. 1985 से शुरू होकर 2018 तक की.
चलिए मूवी अच्छी है या बुरी, ये जानने के बदले मूवी से जुड़ी कुछ दिक्कतों का ज़िक्र कर लें. इसी में हम मूवी से जुड़े अच्छे और बुरे, दोनों पहलुओं की बात करेंगे.
मूवी में दिखाया गया है कि पाकिस्तान ने प्रत्यक्ष और अमेरिका ने परोक्ष रूप से कश्मीर की आग भड़काई. पर इसे बहुत छोटे में निपटा दिया गया कि ये आग लगी कैसे? मूवी में दिखाया गया है कि पाकिस्तान ने प्रत्यक्ष और अमेरिका ने परोक्ष रूप से कश्मीर की आग भड़काई. पर इसे बहुत छोटे में निपटा दिया गया कि ये आग लगी कैसे?

# विधु विनोद चोपड़ा की दिक्कत-
मूवी को प्रोड्यूस किया है फॉक्स स्टार स्टूडियो के साथ मिलकर विधु विनोद चोपड़ा ने. मूवी को डायरेक्ट किया है विधु विनोद चोपड़ा ने. इसकी एडिटिंग का डिपार्टमेंट भी उन्होंने ही देखा है. इसे लिखा भी उन्होंने ही है, राहुल पंडिता और अभिजात जोशी के साथ मिलकर. यानी अगर ड्रीम प्रोजेक्ट की कोई डेफिनेशन होगी, तो ‘शिकारा’ विधु विनोद चोपड़ा का ड्रीम प्रोजेक्ट कहा जा सकता है.
सुकेतु मेहता की एक क़िताब है ‘Maximum city: Bombay lost and found’. इस क़िताब में 'शिकारा' के डायरेक्टर विधु विनोद चोपड़ा के बारे में सुकेतु लिखते हैं-
विधु एक साथ ऑस्कर जीतने वाले और ख़ूब कमाई करने वाले डायरेक्टर बनना चाहते हैं, यही इनकी सबसे बड़ी कमी है. इसी चक्कर में ना ये पूरी तरह से आर्टिस्टिक हो पाते हैं और ना ही पूरी तरह से कमर्शियल बन पाते हैं.
'1942 अ लव स्टोरी', 'मिशन कश्मीर' और अब उनकी ‘शिकारा’ भी सुकेतु की बात पर फ़िट बैठती है. बड़े से रिफ्यूजी कैम्प में टमाटर से भरे ट्रक के पीछे भागते कश्मीरी पंडिता देखते हुए लगता है कि विधु एक हिम्मती फ़िल्म बनाना चाहते होंगे. लेकिन कश्मीरी पंडितों से भरी हुई सैकड़ों बसें विधु के इरादों को नकारती हैं. तब जब एक परिवार अपनी गाय के बछड़े को बीच रास्ते उतार देता है.
विधु की फ़िल्में अलग से पहचानी जाती हैं. एक माइल्ड टोन के चलते. विधु की फ़िल्में अलग से पहचानी जाती हैं. एक माइल्ड टोन के चलते.

ठीक तभी विधु विनोद चोपड़ा का डर बड़े पर्दे पर उभर जाता है. टिकट खिड़की का डर.
# एक्टर्स की दिक्कत-
लीड एक्ट्रेस सादिया की मासूमियत देखकर आपको विधु विनोद चोपड़ा की 'करीब' और उसमें नेहा का किरदार याद आता है, जिसे शबाना रज़ा (नेहा बाजपेई) ने निभाया था. सादिया की एक्टिंग और एक्सप्रेशंस इतने ज़्यादा नेचुरल हैं कि शांति धर का ये रोल उनको टाइपकास्ट करने की क्षमता रखता है. अगर इस साल किसी स्टारकिड का डेब्यू न हुआ, तो इस साल बेस्ट डेब्यू कैटेगरी के कई प्राइज़ वो घर ले जा सकती हैं.
एक सीन में शिव का अजीज दोस्त लतीफ उसे 'इंडिया' चले जाने को कहता है. हैरानी इस पर नहीं होती कि दोस्त ऐसा कह रहा है, बल्कि इस पर होती है कि शिव ऐतराज़ नहीं करता कि कश्मीर 'इंडिया' में ही तो है. यानी कि 'शिकारा' का लीड एक्टर कोई रिबेलियन नहीं है, हीरो नहीं है.
शिव का किरदार निभाने वाले आदिल खान की एक्टिंग भी अच्छी है, उनका कार के अंदर वाला एक लंबा अनकट सीन काफी प्रभावित करता है. जब उनके एक्सप्रेशंस बहुत धीरे-धीरे बदलते हैं और बैकग्राउंड में चलती कविता खत्म होते-होते आंसू ढुलकने लगते हैं.
एक लंबा अनकट सीन सीन, जिसमें आदिल खान की एक्टिंग दर्शनीय है. एक लंबा अनकट सीन सीन, जिसमें आदिल खान की एक्टिंग दर्शनीय है.

# स्क्रिप्ट की दिक्कत-
डॉक्यूमेंट्री या फीचर फिल्म? रियल या फिक्शन? क्लास या मास? लव स्टोरी या डिजास्टर? बैलेंस बनाने के चक्कर में स्क्रिप्ट गड़बड़ा जाती है. साथ ही मूवी को देखकर लगता है कि इसको किसी को दोष दिए बिना कश्मीर को जलते हुए दिखाना है, और यहीं फिल्म की स्क्रिप्ट खुद ही अपने पर एक पाबंदी लगा देती है.
ये फ़िल्म ‘हामिद’ या 'तहान' जैसी संवेदनशील या ‘दिल से’ जैसी बोल्ड हो सकती थी. लेकिन ‘शिकारा’ इन दोनों का ‘तेल-पानी’ जैसा घोल दिखाई देती है. आप पता कर सकते हैं कि कहां ‘मासूमियत’ है और कहां ‘बोल्डनेस’.
लतीफ और शिव की दोस्ती शुरू में ही ऐसे दिखाई जाती है कि पता चल जाता है इस दोस्ती का आगे क्या होने वाला है. किसी की मौत से 5-10 मिनट पहले माहौल ऐसा बना देते हैं कि पता चल जाता है, ट्रेजेडी होने वाली है.
देखिए, कश्मीरी पंडितों का क्या हुआ, इसमें आप क्रिएटिव लिबर्टी नहीं ले सकते, और इसलिए सब कुछ एक्सपेक्टेड होना लाज़मी है. लेकिन जो लव स्टोरी आपने डाली है उसमें थोड़ा लीक से हटा जा सकता था.
यूं स्क्रिप्ट गिरती ही स्टोरीलाइन के चलते है. और रही सही कसर दमदार या इमोशनल डायलॉग्स के ना होने से पूरी हो जाती है.
लेफ्ट में पाकिस्तान से विस्थापित हुए लोगों का शिविर (भाग मिल्खा भाग). राईट में कश्मीर से विस्थापित हुए कश्मीरी पंडितों का शिविर (शिकारा). लेफ्ट में पाकिस्तान से विस्थापित हुए लोगों का शिविर (भाग मिल्खा भाग). राईट में कश्मीर से विस्थापित हुए कश्मीरी पंडितों का शिविर (शिकारा). 

हालांकि मूवी के अपने मोमेंट्स हैं. तीस साल पुराने घर को दोबारा देखना इमोशनल करता है. शिव-शांति का प्रेम, एनिमेटेड मूवी 'अप' के लव एंगल सा इमोशनल है. लेकिन तब जब आप मूवी में इनवेस्टेड होते हैं. और ये इन्वेस्टमेंट आपको खुद करना पड़ेगा, क्योंकि मूवी में उस चुंबक का अभाव है
कश्मीर की सिनेमैटोग्राफी, जलते हुए सेट्स और रिफ्यूजी कैंप के बड़े हॉल के सन्नाटे, ये सब मूवी के कुछ और प्लस में से हैं.
# समीक्षा करने में दिक्कत-
ये उस विधा की मूवी है, जिसके बारे में बात करते हुए आप थोड़ा ज़्यादा ही आलोचनात्मक हो जाते हो. क्यूंकि ऐसी मूवीज़ ये मांग खुद करती हैं. वरना ऐसी मूवीज़, 'रेस 3' जैसी कई सुपरहिट मूवीज़ से कई गुना बेहतर हैं, अपने कंटेट के हिसाब से, संदेश के हिसाब से और ट्रीटमेंट के हिसाब से.
# म्यूज़िक के साथ दिक्कत-
विधु विनोद चोपड़ा की मूवी में म्यूज़िक कुछ सबसे स्ट्रॉन्ग डिपार्टमेंट्स में से एक होता है. इसमें इरशाद कामिल की एक कविता बिना म्यूज़िक के पढ़ दी गई है. साथ ही कश्मीरी म्यूज़िक को प्योर रखा गया है, जो प्यारा लगता है लेकिन ज़ुबान पर नहीं चढ़ता. अगर उनकी ही एक पिछली मूवी के गीत 'बूमरो' की तरह यहां भी फ्यूज़न वगैरह किया जाता, तो कुछ अच्छा और नया सुनने को मिल सकता था. संदेश शांडिल्य का म्यूज़िक सामान्य है.

बैकग्राउंड म्यूज़िक ए आर रहमान का है और वो इंटेंस सीन को और इंटेंस बनाता है. जैसे 'इश्क बिना क्या जीना यारों' गीत के बदलते टेंपो...
# दर्शकों की दिक्कत-
ये मूवी हर एक के लिए तो खैर नहीं ही है. लेकिन जिन गिने-चुने दर्शकों के लिए ये है, उनको भी एक निश्चित मूड लेकर ही सिनेमाघरों में एंटर करना पड़ेगा.
यूं शिकारा कैसी है, इसका उत्तर ये होगा कि मूवी देखते वक्त आपका माइंड सेट कैसा है?


वीडियो देखें:

राहुल रॉय को आज भी शाहरुख खान और जूही चावला की उस फिल्म को न करने का अफसोस है-

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