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क्या हुआ जब दो चोर, एक भले आदमी की सायकल लेकर फरार हो गए

सायकल भी ऐसी जिसे इलाके में सब पहचानते थे.

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सहज, सुंदर, सफल फिल्म.
मराठी सिनेमा को समर्पित इस सीरीज़ 'चला चित्रपट बघूया' (चलो फ़िल्में देखें) में हम आपका परिचय कुछ बेहतरीन मराठी फिल्मों से कराएंगे. वर्ल्ड सिनेमा के प्रशंसकों को अंग्रेज़ी से थोड़ा ध्यान हटाकर इस सीरीज में आने वाली मराठी फ़िल्में खोज-खोजकर देखनी चाहिए.
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आज की फिल्म है 'सायकल'.
हर एक की ज़िंदगी में कुछ न कुछ बेहद कीमती होता है. जिससे हमें बेहद लगाव होता है. जिसे हम अपने से अलग नहीं करना चाहते. किसी के लिए वो पालतू जानवर हो सकता है, किसी बच्चे के लिए खिलौना, किसी के लिए डायरी-घडी-पेन जैसी चीज़ तो किसी के लिए कुछ और. आज के हालात को देखा जाए तो कईयों के लिए ये चीज़ मोबाइल फोन भी हो सकती है. बहरहाल, उस अनमोल चीज़ को हम अपने से दूर किसी कीमत पर नहीं जाने देना चाहते. वो होता है न एक इमोशन, 'चाहे जान चली जाए लेकिन इससे जुदाई नसीब न हो'. ऐसे में अगर वही चीज़ खो जाए तो? क्या बीतेगी? हमारी इस फिल्म के हीरो के साथ ऐसा ही कुछ हुआ है. उसकी प्राणप्रिय साइकिल चोरी हो गई है. उसकी ज़िंदगी से जैसे चार्म ही निकल गया है.
फिल्म की कहानी है 1952 के आसपास की. उस वक्त की कहानी जब लोग भोले थे और दुनिया मासूम. इसी लाइन से फिल्म शुरू भी होती है. कोंकण के एक गांव में केशव नाम का एक ज्योतिषी रहता है. बेहद भला आदमी. हमेशा दूसरों की मदद करने के लिए तत्पर. सिर्फ एक चीज़ को लेकर पज़ेसिव है. उसके पास एक साइकिल है. पीले रंग की. बेहद खूबसूरत. ये साइकिल केशव को उसके दादा जी ने दी थी. और दादा जी को किसी अंग्रेज़ अफसर ने. केशव को इस साइकिल से इतना प्रेम है कि किसी को इस्तेमाल तक नहीं करने देता. इस्तेमाल क्या हाथ तक लगाने नहीं देता. उसका एक ही फंडा है, 'जान मांग लो लेकिन साइकिल नहीं'. फिर एक रात गांव में चोर आ जाते हैं. जनता पीछे लगती है तो भागने के लिए केशव की साइकिल उठा ले जाते हैं. केशव पर तो जैसे बिजली ही गिर जाती है.
 
इसी सायकल से मुहब्बत की कहानी है ये फिल्म.
इसी सायकल से मुहब्बत की कहानी है ये फिल्म.

आगे का सिलसिला बड़ा रोचक है. चोर गज्या और मंग्या जहां भी उस साइकिल के साथ जाते हैं उन्हें रॉयल ट्रीटमेंट मिलता है. क्यों? क्योंकि पूरा इलाका केशव और उसकी साइकिल से परिचित है. केशव की अच्छाई का प्रसाद पूरे इलाके ने चख रखा है. हर कोई जानता है कि पीली साइकिल केशव दादा की है और अगर उन्होंने साइकिल किसी को सौंप देने की दिलदारी दिखाई है तो वो यकीनन उनके ख़ास लोग होंगे. इसी वजह से चोरों को हर जगह प्यार मिलता है. उनकी आवभगत होती है. दूसरों की चीज़ें छीनकर भाग जाने वाले चोरों के लिए ये अद्भुत अनुभव है. उन्हें समझ ही नहीं आता कि कैसे रियेक्ट करें. आगे साइकिल का अंजाम क्या होता है ये फिल्म देखकर जानिएगा. प्रेडिक्टेबल तो है लेकिन मज़ेदार है.
'सायकल' उन फिल्मों में शामिल है जो आपको तब-तब देखनी चाहिए जब-जब आप डिप्रेस्ड महसूस कर रहे हों. ये फिल्म 'फील गुड फैक्टर' की तरह काम करती है. निराश जीवन में मुस्कराहट बिखेरने के काबिल. वैसी ही जैसे 'परसूट ऑफ़ हैप्पीनेस' थी. या फिर 'लाइफ इज़ ब्यूटीफुल' थी.
केशव पूरे इलाके में फ़रिश्ते के रूप में मशहूर है.
केशव पूरे इलाके में फ़रिश्ते के रूप में मशहूर है.

केशव दादा के रोल में ऋषिकेश जोशी ने टॉप क्लास परफॉरमेंस दी है. एक भला मानुस जो अपने सीमित संसाधनों में भी लोगों के काम आता रहता है. एक सीन है जब केशव अपने यहां भविष्य देखने आए एक गरीब क्लाइंट के झोले में चुपके से कुछ रुपए सरका देता है. बहुत उम्दा बन पड़ा है वो सीन. ऋषिकेश जोशी ने पूरी लगन से अपना पार्ट प्ले किया है. साइकिल से निरागस प्रेम और उसके खो जाने के बाद की अस्वस्थता दर्शकों तक पहुंचाने में वो सफल रहे हैं.
दोनों चोर भी बेहद क्यूट हैं. भाऊ कदम और प्रियदर्शन जाधव दोनों ही शानदार कास्टिंग का नमूना हैं. चोरी-चकारी जैसा काम करके जीने वाले इन बंदों के साथ अच्छाई की चपेट में आ जाने के बाद क्या होता है, ये वो बेहद उम्दा ढंग से परदे पर पेश करते हैं. फिल्म का सबसे शानदार सीन वो है जब इन दोनों को एक स्कूल में चीफ गेस्ट बनाकर उनका सम्मान किया जाता है. भाऊ कदम उस सीन में महफ़िल लूट ले जाते हैं. क्लाइमेक्स सीन और चोरों का लेटर आपको इमोशनल कर देगा.
दोनों चोर, गज्या और मंग्या, को केशव का रिश्तेदार समझा जाता है.
दोनों चोर, गज्या और मंग्या, को केशव का रिश्तेदार समझा जाता है.

फिल्म की सिनेमेटोग्राफी भी ज़ोरदार है. अमलेंदु चौधरी ने कोंकण की खूबसूरती को कैमरे की नज़र से बढ़िया टीपा है. डायरेक्टर प्रकाश कुंटे फिल्म के नैरेटिव को सिंपल रखने में कामयाब रहे हैं. और यही इस फिल्म की सफलता का बड़ा कारण भी है. सहज होने से ही ये फिल्म आप तक पहुंचती भी है.
अक्सर लोग कह देते हैं कि अच्छाई का कुछ हासिल नहीं है. उन्हें ये फिल्म देखनी चाहिए. जो बताती है कि भलमनसाहत के नतीजे व्यापक होते हैं. अच्छा काम फूलों की सुगंध की तरह दूर-दूर तक पहुंचता है. बिना प्रयास किए. और फिर लोगों की ज़िंदगी में फर्क भी पैदा करता है. आज के दौर अच्छाई का ज़िक्र कितना ही अप्रासंगिक लगता हो, उसके अस्तित्व की ज़रूरत कभी ख़त्म नहीं होने वाली.
प्रेम की महत्ता का मोल बताती इस फिल्म को देखिएगा ज़रूर. ऑनलाइन कहीं न कहीं मिल जाएगी पक्का. अभी साल भर पहले ही रिलीज़ हुई है.


वीडियो:

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