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फ़िल्म रिव्यूः रात अकेली है

नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी और राधिका आप्टे अभिनीत ये पुलिस इनवेस्टिगेशन ड्रामा आज स्ट्रीम हुई है.

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एक क़त्ल की तफ्तीश इंस्पेक्टर जटिल को इस टैनरी तक ले आती है जहां एक दूसरे डबल मर्डर के राज़ दफ़्न हैं. (फोटोः नेटफ्लिक्स इंडिया)

फ़िल्म: रात अकेली है । डायरेक्टर: हनी त्रेहन । कलाकार: नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे, आदित्य श्रीवास्तव, स्वानंद किरकिरे, शिवानी रघुवंशी, पद्मावती राव, निशांत दहिया, श्रीधर दुबे, ईला अरुण, तिग्मांशु धूलिया, श्वेता त्रिपाठी । अवधि: 2 घंटा 29 मिनट । प्लेटफॉर्मः नेटफ्लिक्स

ये कहानी नॉर्थ इंडिया में घटती है. बेलाघाट नाम की एक जगह पर. शहर में एक प्रतिष्ठित आदमी ठाकुर रघुवीर सिंह की हत्या हो जाती है. जांच करने आता है इंस्पेक्टर जटिल यादव. असल नाम जतिन हुआ करता था, मां ने गलती से जटिल लिखवा दिया मैट्रिक में. फिर बदला ही नहीं. रिश्वत वगैरह नहीं लेता, ईमानदार है. लेकिन पुरानी सोच का है. हालांकि उसमें बदलाव की गुंजाइश भी है. ब्लैक रॉयल एनफील्ड, एविएटर गॉगल्स, लेदर जैकेट पहनता है. जांच शुरू करता है. जिस हवेली में खून हुआ है वहां कई लोग रहते हैं. सब घर के मेंबर हैं. जैसे रघुवीर सिंह की दूसरी पत्नी राधा. पहली पत्नी से हुआ बेटा करण, बेटी करुणा, दामाद रवि सिसोदिया. बहन प्रमिला सिंह. उनका बेटा विक्रम, बेटी वसुधा. रघुवीर सिंह का साला रमेश चौहान. नौकरानी चुन्नी. हत्यारा इन्हीं में से कोई एक है. कौन है ये जटिल को पता लगाना है. और वो कहता भी है कि सच को तो हम कहीं से भी खोद निकालेंगे. इस केस में पोलिटिकल प्रेशर भी है. और मर्डर के अंदर मर्डर का मामला भी उलझा है. अंत में सारा सच निकलता है. 'रात अकेली है' को डायरेक्ट किया है हनी त्रेहन ने. बतौर डायरेक्टर ये उनकी पहली फिल्म है. इससे पहले वे नामी कास्टिंग डायरेकर रहे हैं. फिल्म की स्टोरी, स्क्रीनप्ले, डायलॉग्स तीनों स्मिता सिंह ने लिखे हैं. वे 'सेक्रेड गेम्स' की राइटिंग टीम का हिस्सा थीं. फिल्म में इंस्पेक्टर जटिल यादव का रोल नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने किया है. आमतौर पर क्राइम थ्रिलर्स के सेंट्रल कैरेक्टर अपनी चारित्रिक विशेषताओं के कारण याद रह जाते हैं. 'रात अकेली है' में जटिल की भी कुछ कैरेक्टरिस्टिक्स है. वो जिद्दी है, गुस्सा आता है, किसी से डरता नहीं, चाउमिन पसंद नहीं, फ्राइड राइस ही ऑर्डर करता है. शादी की बात को लेकर मां से उसकी लड़ाई होती रहती है. नहाने के बाद आइने के पीछे छुपाई फेयर एंड लवली लगाता है. लेकिन ये सब मिलकर उसकी एक यूनीक छवि नहीं उभार पाते. जैसे 2012 में आई सुजॉय घोष की फिल्म 'कहानी' में भी नवाज ने इनवेस्टिगेटर डीआईजी खान का रोल किया था. जो ब्रीफ रोल था लेकिन करारा था. या फिर 'तलाश' में लंगड़ाने वाले तैमूर का रोल. ये सब डिस्टिंक्ट थे. याद रहे. जटिल के किरदार के साथ ऐसा नहीं हो पाता. उसके रुढ़िवादी से समझदार होने की जर्नी कुछ सांत्वना देती है. नवाज का कोई खास इनवेंटिव मूमेंट भी फिल्म में नहीं है. उसके कैरेक्टर का अपनी मां के साथ जो ट्रैक है वो रिफ्रेशिंग लगता है. खासकर जब वो साबुन लगाए नहा रहा होता है और पानी आना बंद हो जाता है. तो वो मम्मी मम्मी चिल्लाता है. फिल्म का ये सबसे फनी सीन भी है. हालांकि ये बहुत छोटा है. राधिका आप्टे ने फिल्म में राधा का रोल किया है. बहुत मुश्किल होता है ये मानना कि ये कैरेक्टर चंबल का है. जिसे बेच दिया गया है. राधिका की भाषा में चंबल वाली कोई यूनीकनेस या कंसिस्टेंसी नहीं है. वो किरदार अपने परिवेश में स्थापित नहीं हो पाता. बहुत सारे कलाकारों से सजी इस फिल्म में मुझे ईला अरुण सबसे बेहतरीन, नेचुरल लगीं. उन्हें देखना राहत भरा होता है. उन्होंने जटिल की मां सरिता कुमारी का रोल किया. 'रात अकेली है' को लेकर कुछ ऑब्जर्वेशंस यूं हैं - [1.] हाल ही में 'पाताल लोक' इसी तरह की नॉर्थ इंडिया, खासकर यूपी के सेटअप वाली पुलिस इनवेस्टिगेटिव क्राइम थ्रिलर थी. उस सीरीज के बहुत सारे एलीमेंट 'रात अकेली है' में भी मिलते हैं. 2019 में रिच स्टारकास्ट वाली फिल्म 'नाइव्ज़ आउट' आई थी. जो एकदम इसी ढांचे की फिल्म थी. 'रात अकेली है' जैसी. जिसमें घर में मर्डर होता है और घर के सारे लोगों पर शक होता है. [2.] 'रात अकेली है' में मर्डर की कहानी के साथ समाज की जो मॉरल भ्रष्टता और पशुता उद्घाटित होती है वो ढूंढें तो हमें मीरा नायर की 2001 में आई मस्ट वॉच ड्रामा 'मॉनसून वेडिंग' में मिलती है. समाज में नैतिक भ्रष्टता, अपराध, पशुता और नृशंसता की एक ग्रिपिंग, मेनस्ट्रीम फिल्म याद आती है जिसे जोएल शूमाकर ने डायरेक्ट किया था. 1999 में रिलीज हुई इस फिल्म में लीड रोल निकोलस केज ने किया था. 'जोकर' वाले वाकील फीनिक्स भी इसमें दिखे थे. फिल्म का नाम था - '8 एमएम'. [3.] ऐसी इनवेस्टिगेशन क्राइम थ्रिलर्स में वैकल्पिक अंत या शुरुआत वाली फिल्मों की बात करें तो सबसे पहले 'मैमोरीज़ ऑफ मर्डर' याद आती है जिसमें हत्यारे को कभी नहीं बताया जाता है. 2003 में आई इस साउथ कोरियन फिल्मों को बॉन्ग जून हो ने डायरेक्ट किया था जिन्होंने इस साल की चर्चित फिल्म 'पैरासाइट' बनाई है. वहीं 2016 में आई मिनी सीरीज़ 'रेट्रिब्यूशन' में हत्यारे को साफ तौर पर शुरू में ही दिखा दिया जाता है. [4.] औरतों को लेकर हिंदी हार्टलैंड में, छोटे शहरों में क्या ओपिनियन और संकीर्ण सोच होती है, उसे फिल्म की राइटिंग में जगह दी गई है. इंस्पेक्टर जतिन यादव के कैरेक्टर को ही लें तो शुरुआती सीन में ही वो अपनी मां से आर्ग्यू कर रहा होता है. वे एक शादी में गए थे जहां मां एक लड़की को जटिल की फोटो दिखाती है और वो लड़की मना कर देती है क्योंकि वो सांवला है. घर लौटकर जटिल कहता है - "मेरी फोटो क्यों दिखा रही थी उसे? देखा नहीं कैसे कपड़े पहने हुए थे उसने. ऐसी लड़कियों को पसंद करेंगे क्या हम? हमको चाहिए कोई डिसेंट लड़की. चरित्रवान. जो घर और बाहर की सीमा का फर्क जानती हो". इस पर मां कहती है कि - "तुम्हारे दिमाग में गोबर भरा है. तुम फ्रस्ट्रेटेड आदमी हो. तुम्हारे लिए सब लड़कियां खराब हैं. तुम्हे चाहिए हूर की परी. जो सुंदर हो, सुशील हो और मुंह खोले तो भजन टपके". तो जटिल कहता है कि "आचरण सही रहे और दिखने में ठीक ठाक हो. कोई बहुत ज्यादा डिमांड नहीं है हमारी". इस पर उसकी समझदार मां कहती है - "प्यार इतना देख परख कर थोड़े ही करते हैं बेटा. हमें तो लगता है जीवन साथी वो है जिसके साथ जीने में मज़ा आए". जटिल की ये नैतिकतावादी, पवित्रतावादी सोच हालांकि कहानी के अंत तक जाते जाते बदलती है. लेकिन अगर ऐसा न भी हुआ होता तो वो उसकी मेकिंग ऐसी है कि औरतों के चरित्र पर एक रुढ़िवादी ओपिनियन होते हुए भी आरोपी औरत के चरित्र और केस की जांच दोनों को अलग रखकर देखना जानता है. [5.] रघुवीर सिंह की हवेली भी संकीर्ण सोच वाली ही है. यहां वो सबके सामने लड़की खरीद कर लाया. कबर्ड में प्लेबॉय मैगजीन रखता रहा. दीवार पर स्वच्छंद पेंटिंग्स लगाता रहा. लेकिन घर में औरतों के लिए हिसाब बिलकुल अलग है. जब केस की पूछताछ के लिए जटिल आकर घर की बेटी करुणा से मिलता है तो बुआ करुणा को टोकती है कि - "क्यों बेटा. घर में कोई आदमी नहीं और हमसे पूछे बिना तुमने इनको आने दिया". मतलब ये कि किसी पराए पुरुष से अकेले में मत मिलो. [6.] इस क्राइम इनवेस्टिगेशन ड्रामा या 'हू डन इट' थ्रिलर में एक खास किरदार मुन्ना राजा का भी है, जो एक लोकल विधायक है. एक सीन में इंस्पेक्टर मर्डर की जांच में एक टैनरी पहुंच जाता है जो कच्चे चमड़े की फैक्ट्री है. वहां एक आदमी से पूछता है इसका मालिक कौन है तो वो कुछ और बताने लगता है. जटिल कहता है हम तुमसे मालिक पूछ रहे हैं और तुम हमें कसाईबाड़े का पता बता रहे हो. तो वो आदमी कहता है - "अब इसका मालिक तो कोई एमएलए है साब. अब चमड़े का काम कौन अपने नाम से करता है साब". असल में ये टैनरी मुन्ना राजा की होती है जिसने दो लोगों का मर्डर करवाकर यहां दफन करवाया होता है. मुन्ना राजा का ये किरदार कुंडा से विधायक रहे राजा भैय्या की याद दिलाता है. एक तो नाम में समानता है. दूसरा राजा भैय्या की तरह फिल्म का विधायक भी इंडिपेंडेंट होता है. एक डायलॉग होता है जब जटिल को एसएसपी समझा रहे होते हैं - "देखो मुन्ना राजा भले ही निर्दलीय विधायक हैं लेकिन हर पार्टी की गिनती में आते हैं." कुछ ऐसा ही दबदबा असल में राजा भैय्या का रहा है. फिल्म में आदित्य श्रीवास्तव के निभाए इस कैरेक्टर का चश्मा भी राजा भैया जैसा होता है. जैसे उसकी टैनरी में लाशें गड़ी हैं, वैसे ही राजा भैया के तालाब से 2003 में कंकाल मिला था. जो संतोष नाम के आदमी का था. उसका स्कूटर राजा भैया की जीप से टकरा गया था जिसके बाद से वो गायब था. एक फिल्ममेकर मेनस्ट्रीम में ऐसे इशारे ही कर सकता है. उन्हें समझकर सतर्क होना फिर दर्शक का काम है. संक्षेप में, ओवरऑल फीलिंग यही है कि 'रात अकेली है' ऐसी फिल्म है जिसे आप देखने बैठते हैं तो आखिर तक देखते हैं. और ये जानने की जिज्ञासा बनी रहती है कि मर्डर किसने किया है. और इस जॉनर की किसी भी फिल्म को देखने के लिए ये पर्याप्त वजह है.
वीडियो देखें: फिल्म रिव्यू- रात अकेली है