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रिव्यू: अपने वक्त से बहुत आगे की फिल्म है 'डियर जिंदगी'

गौरी शिंदे, थैंक यू.

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फोटो - thelallantop

बचपन में जब रोना आता है, तो बड़े कहते हैं, 'आंसू पोछो'. जब गुस्सा आता है, तो बड़े कहते हैं, 'जस्ट स्माइल', ताकि घर की शांति बनी रहे. नफरत करना चाहते हैं तो, 'इजाजत नहीं है'. तब जब हम प्यार करना चाहते हैं, तो पता चलता है ये सारा इमोशनल सिस्टम ही गड़बड़ हो गया. काम नहीं कर रहा है. रोना, गुस्सा, नफरत... कुछ भी खुलकर एक्सप्रेस नहीं करने दिया. अब प्यार कैसे एक्सप्रेस करें!!!

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ये जो एक्सप्रेस करने का पंगा है न हमारे साथ... इसी को सुलझाती है 'डियर जिंदगी'. एक शानदार फिल्म.


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शाहरुख और आलिया की ये फिल्म अपने वक्त से कहीं आगे की है. कायरा जितनी कठिन और खुद में जितनी उलझी हुई है, उसे स्वीकार करने की हिम्मत अभी नहीं है हममें. गुस्सा कोयले की तरह होता है. उसे जलाना और बुझाना, दोनों आसान हैं. लेकिन देर तक बने रहने के बाद वो ज्वालामुखी जैसा हो जाता है. फिर उसके अस्तित्व पर फैसला लेने का अधिकार किसी एक के पास नहीं रह जाता. कायरा जब हमसे मिलती है, तो उसका गुस्सा भी इसी तरह बदल चुका होता है. वो तौर-तरीकों के उन दायरों से बाहर जा चुकी होती है, जहां हम उससे नज़रें मिला सकें.

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दूसरी तरफ डॉ. जहांगीर खान है. वो इतना सुलझा हुआ है कि हमें आश्चर्य होने लगता है. फिल्म देखने के कुछ देर बाद महसूस होता है कि किसी के इतना आसान होने का स्कोप तो हमने छोड़ा ही नहीं है अपने आसपास. वो किरदार हमें सुकून और ठहराव का फर्क बताता है. खुश होने और शांत रहने का फर्क बताता है. वो समझाता नहीं है, बस रास्ता दिखाता है. वो, जिसके पास कायरा की हर परेशानी का हल है. वो हमें बाहरी जरूर लगता है, पर अजनबी नहीं. क्योंकि कहीं न कहीं हम भी उस जैसा ही हो जाना चाहते हैं. लेकिन उलझनें ऐसी हैं कि खुद तो छोड़िए, हमें अपने आसपास भी कोई ऐसा नज़र नहीं आता.

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हम न तो कायरा जितनी उलझी जिंदगी झेल सकते हैं और न जहांगीर जितनी सुलझी जिंदगी संभाल सकते हैं. पर बीच का रास्ता भी तो नहीं छोड़ते हैं. वही ढूंढना है और इसमें अभी वक्त लगेगा.

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पचाने में परेशानी

फिल्म का हर किरदार अपनी जगह फिट है, पर कायरा और जहांगीर के किरदार पचाने में परेशानी हो सकती है. हमें जो चीज पसंद नहीं आती है, उसके आगे हम यूं आंखें मूंद लेते हैं, जैसे वो खत्म हो गई हो. लेकिन, कुछ भी यूं ही तो खत्म नहीं होता न. एक पेरेंट के नजरिए से कायरा को देखना मुश्किल हो सकता है. अगर संवेदनशीलता कुछ कम है, तो शायद आप उसे समझ भी न पाएं. रिएक्ट करने का उसका तरीका बेवकूफाना लग सकता है. रिश्ते निभाने को लेकर उसका अप्रोच गैर-जिम्मेदाराना लग सकता है, लेकिन ये आपका सच होगा. उसका नहीं. उसका जो सच है, वो उसके साथ जी रही है. वही सच उसे जहांगीर तक ले गया. जहांगीर उसके लिए एक ऐसा दरवाजा खोलता है, जिसके नीचे से निकलने के लिए हर कोई राजी होता दिखता है.

एक्सप्रेस करने का महत्व बताती है फिल्म alia-shahrukh

आर्टिकल की शुरुआत में लिखी लाइनें शाहरुख के हिस्से की हैं. इन्हें सुनकर लगता है जैसे अंधेरे में हाथ-पैर पटकते हुए कोई ताला हाथ लग गया हो. चाबी तो हम तब खोजेंगे, जब हमें पता हो कि ताला कहां है, कैसा है. ये लाइनें सुनते ही एक स्पार्क आता है कि हां, यहीं पर तो उलझी हुई है. एक्सप्रेस करने पर. बहुत कुछ है जो देख-सुन-समझ रहे हैं, बस एक्सप्रेस नहीं कर रहे हैं. न मम्मी-पापा से, न दोस्तों से, न डॉक्टर से... यहां तक कि खुद से भी नहीं. खुद के अंदर ही गट्ठर बनाए जा रहे हैं. नाराजगी और खीझ दबाते-दबाते कई बार खुशियों पर भी कंडे रख देते हैं. धुआं होता रहता है.

जहांगीर यही बताता है. सबसे जरूरी है एक्सप्रेस करना. किसी और से नहीं, तो कम से कम खुद से तो जरूर. हर सवाल का जवाब मिलेगा, बस जवाब तक पहुंचने का पेशेंस होना चाहिए. उसकी कुर्सी वाली कहानी आपके अंदर भरोसा जगाती है. प्यार करना सिखाती है और सबसे बड़ी बात, बार-बार प्यार करना सिखाती है. प्यार एक्सप्रेस करने में बहुत झिझकते हैं हम और दूसरी बार का तो सवाल ही नहीं उठता. लेकिन ये तो पड़ाव हैं. यहां आंसू बहाते हुए रुक तो नहीं सकते न.

गौरी अच्छी कहानी अच्छी तरह दिखाती हैं

फिल्म की डायरेक्टर गौरी शिंदे ने ऐड फिल्मों से शुरुआत की थी. बतौर डायरेक्टर 'इंग्लिश-विंग्लिश' उनकी पहली फिल्म थी. वो फिल्म जितना फेमिनिज्म पर थी, उतना है एक पति-पत्नी की अनकही बातचीत और एक मां-बेटी के मैच्योर होते रिश्ते की कहानी थी. गौरी के इस हुनर को खाद-पानी जरूर उन दिनों में मिला होगा, जब वो ऐड फिल्में बना रही थीं. उनमें तो इंसान के इमोशंस ही इकलौते टारगेट होते हैं.

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चार साल बाद अब जब वो वापस आईं, तो उसी सहजता के साथ उन्होंने एक और कहानी सुनाई. एक्सप्रेशन की बात कहने और दिखाने में जो फर्क है, गौरी उसे पाटती हैं. उनके पति आर. बाल्की में भी ये हुनर है, पर गौरी के मुकाबले उनके काम में भव्यता ज्यादा आ जाती है. अनुराग कश्यप भी इसी स्तर पर भावों को पेश करते हैं, बस थोड़े से अंधेरे के साथ. गौरी के साथ आप बहते चले जाते हैं. उनकी दोनों फिल्में ऐसी हैं, जो बतौर इंसान आपके अंदर बेहतर होने का भाव मजबूत करती हैं.

रवायत वाली कुछ बातें

फिल्म की स्टारकास्ट सटीक है, इसलिए कोई एक्टर कहीं कम-ज्यादा सा नहीं दिखता. फिल्म में कुणाल कपूर और अली जफर भी हैं. इनके किरदार बड़ी सफाई से ये बात रख जाते हैं कि उन्हें रिप्लेस नहीं किया जा सकता. फिल्म में इनके रोल बहुत बड़े नहीं थे. किसी छोटे-मोटे एक्टर से भी कराए जा सकते हैं. लेकिन इनका स्क्रीन पर होना इसकी गारंटी होता है कि आपको वही मिलेगा, जो आप चाहते हैं. बाकी सरहद और सैनिकों की बातें तो सेलेक्टिव मौकों के लिए होती हैं.

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फिल्म का म्यूजिक अमित त्रिवेदी ने दिया. गौरी की पिछली फिल्म में भी उन्होंने ही म्यूजिक दिया था. फिल्म का सबसे धाकड़ गाना लगा 'लव यू जिंदगी'. जसलीन रॉयल और अमित त्रिवेदी की आवाज जादू करती है.

ऐसी फिल्में ही बॉलीवुड को आगे ले जाएंगी

हिंदी सिनेमा से अक्सर अच्छी फिल्में न बनाने की शिकायत रहती है. हमें हर बार खान और बच्चन जैसी स्टारकास्ट की चाशनी में लपेटकर सिनेमाहॉल बुलाया जाता है और फिर 200-300 करोड़ का चश्मा पहनाकर फिल्म दिखा दी जाती है. 'डियर जिंदगी' के साथ ऐसा नहीं है. फिल्म में शाहरुख को वैसे यूज किया गया है, जैसे कोई एक्टर यूज होना चाहेगा. यहां उनका विकल्प सोचना भी गुनाह है. सिनेमा में बुरा तो कोई भी एलिमेंट नहीं होता है, लेकिन एक सुकून भरी फिल्म देखना सुखद अनुभव है, जहां हैपी एंडिंग देखकर आप ये नहीं कहते, 'ये तो होना ही था'.

https://www.youtube.com/watch?v=mKyTEJKF_SA
'डियर जिंदगी' का प्रतीक्षा पीपी का रिव्यू फिल्म रिव्यू: डियर जिंदगी  

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