डायरेक्टर राहुल सांकल्य की इस फिल्म के एक दृश्य में निम्मो (अंजलि पाटिल) और हेमू (करण दवे).
मुझे बचपन में कंचे इकट्ठा करने का शौक था. एक दिन मां ने मेरे सारे कंचे फेंक दिए. मैं रोता रहा, मार खाता रहा - इस बात पर कि मुझे गंदी आदत हो गई है. मुझे मार खाने का इतना ‘दर्द’ नहीं हो रहा था जितना मेरे कंचे की डिबियाओं के खो जाने का ‘दुःख.’ बच्चों का दर्द सबको दिखता है, लेकिन बच्चों का दुःख हम इग्नोर करते हैं. इस पूरी फ़िल्म में ‘बड़े लोग’, ‘मैच्योर लोग’, हेमू के दुःख को इग्नोर करते हैं. ठीक वैसे ही जैसे बिल्कुल रियल परिस्थितियों में हम करते हैं. 'मेरी निम्मो' का मुख्य किरदार – हेमू (करण दवे) सबसे इग्नोर किया जाता है. वो केवल इस बिना पर हाशिये पर है कि वो बच्चा है. अपनी मां से, और निम्मो (अंजली पाटिल, 'न्यूटन' फेम) से भी इग्नोर होता है. लेकिन ये इग्नोर होना ‘स्पेशल’ नहीं है बल्कि ठीक वैसा ही है जैसे कोई बच्चा, कोई भी बच्चा, बड़ों से होता है, होता था और होता आएगा.

ये कोई बुरी बात नहीं है, और इसमें मैं कोई ज्ञान भी नहीं देने वाला क्यूंकि मैं ख़ुद भी अतीत में ऐसा ही करता था और भविष्य में ऐसा ही करूंगा. मेरे ख़ुद के साथ भी ऐसा ही होता था. लेकिन चूंकि मैं यहां पर – ‘मेरी निम्मो’ की बात कर रहा हूं तो उस फ़िल्म की सबसे बेहतरीन बात से शुरू करना चाहता था. वो ये कि – ये फ़िल्म कोई शिक्षा नहीं देती कि आपको बच्चों पर ज़्यादा ध्यान देना चाहिए, न आपको गिल्ट देती है कि बच्चों के दुःख को सीरियसली लो. ये बस आपको बच्चों की नज़र दे देती है, आपको समझा देती है कि बच्चों को उनका ख़ुद का दुःख कैसा दिखता होगा. बस्स! कहानी सिंपल है जो लगभग हर बच्चे के साथ घटती है, चाहे थोड़ी अलहदा अंदाज़ में ही सही – एक आठ साल के बच्चे को अपने से बड़ी लड़की (बहुत बड़ी लड़की – जिसकी शादी तय हो गई है और कुछ ही दिनों में वो ससुराल चली जाएगी) से प्रेम हो जाता है. सीरियस वाला. लेकिन उस बच्चे को कोई सीरियसली नहीं लेता. बस आगे इसी को आधार बनाकर एक बहुत इनोसेंट कहानी दिखती है. कहानी से ज़्यादा उसका ट्रीटमेंट प्यारा है.

ये फ़िल्म अपने रियलस्टिक ट्रीटमेंट के चलते दर्शकों से सीधे कनेक्ट होती है और वे ख़ुद को इस फ़िल्म के किसी न किसी किरदार से ‘रिलेट’ कर सकते हैं. रिलेट मतलब - डायलॉग वगैरह ऐसे बोले हैं जैसे आस-पास बातें चल रही हों. आटा गूंथते हुए, साइकिल में हवा भरते हुए, ताश खेलते हुए.
- ‘पहले ही कहा था सत्यनारायण की कथा करवा लो’
- ‘का कल लिया तुमने और का कल लोगे, फैलो मत!’
- ‘अच्छे से सुना के अईयो’ ... ऐसे डायलॉग फ़िल्म को और रियलस्टिक बनाते हैं. आपने हाल-फिलहाल में ऐसी फ़िल्में (दम लगा के हईशा, निल बट्टे सन्नाटा, विकी डोनर, तनु वेड्स मनु, जॉली एलएलबी) देखी हैं तो आप पाएंगे कि छोटे बजट में ‘भारतीय परिवेश’ की फ़िल्में बनाना हमेशा विन-विन सिचुएशन होती है. फ़िल्म मेकर्स के लिए भी क्यूंकि उनका खर्चा कम होता है. दर्शकों के लिए भी क्यूंकि स्क्रिप्ट/कहानी को लेकर माउथ पब्लिसिटी से ऐसी फिल्मों पर आपकी नज़र में पड़ती है और आप बेस्ट फ़िल्में देख पाते हैं, न कि बेस्ट स्टार-कास्ट.

जब मैंने 'मेरी निम्मो' का प्रमोशन देखा तो लगा कि ’एक छोटी सी लव स्टोरी’ या किस्लोवस्की की ‘अ शॉर्ट फ़िल्म अबाउट लव’ जैसी होगी – या उससे प्रेरित. लेकिन दरअसल ये तो एक बाल फ़िल्म है, जिसको हर बच्चे के लिए रेकमंड किया जाना चाहिए. (ये बाल फ़िल्म की तरह परमिट हो रही हो ऐसा नहीं है, बस पूरी देख चुकने के बाद आपको पता चल ही जाता है.) जो प्रेम में ज़ावेद अख्तर का – ‘एक लड़की को देखा’ है, नग्नता के लिए गुलज़ार का – ‘चड्डी पहन के फूल खिला है’ है वही अश्लीलता के लिए राहुल सांकल्य की – ‘मेरी निम्मो’ है. राहुल इस मूवी के डायरेक्टर हैं. प्रोड्यूसर आनंद एल. राय हैं - 'तनु वेड्स मनु' वाले. फ़िल्म में कई सीन हैं जो सुनने-पढ़ने में एडल्ट लगते होंगे लेकिन हैं प्योर इनोसेंट. जैसे - एक सीन में बच्चे को चोट लगती है तो निम्मो कहती है – 'जा इसमें सूसू कर दे, घाव ज़ल्दी भर जाएगा'. दूसरे सीन में, बच्चा हेमू जब निम्मो को मंगलसूत्र पहनाता है और दौड़ते हुए उसके बंप्स दिख जाते हैं. या फिर एक तीसरा सीन जब निम्मो उसके साथ सुहागरात की रिहर्सल करती है.

इस मूवी में बचपना 2018 का नहीं है – जहां पर मोबाइल, वीडियो गेम्स और स्वीमिंग क्लासेज़ हैं. इसमें बचपना हमारे गुज़रे दौर का है – जिसमें गील-सूख, सेवन-टाइल्स, बड़े होने की चाहतें हैं. फ़िल्म में गीत कविताओं की तरह हैं. इस तरह की फिल्मों में ऐसा ही होता है. जैसा 'दम लगा के हईशा' में – 'मोह मोह के धागे' थी वैसे ही इसमें – ‘बुलबुल’, ‘ये भी बीत जाएगा’ और ‘तुमसे ही’ नाम की तीन कविताएं हैं. ‘तुमसे ही’ गीत की ये एक लाइन हेमू के निम्मो के प्रति प्रेम को और बच्चे होने के क्यूट वाले दुःख को सम अप करती है:
- तू बेख़बर है या बेमुरव्वत, या तेरी समझ से परे ये मुहब्बत. Other Reviews this week: