मुकुल श्रीवास्तव, दी लल्लनटॉप के रीडर हैं और लखनऊ यूनिवर्सिटी में मास कॉम डिपार्टमेंट के एचओडी हैं. जर्नलिस्ट तैयार करते हैं समझ लीजे. किचन में घुसे तो अपने बचपने के ये बर्तन-भांड़े उन्हें याद हो आए. वो तमाम चीजें जो उन्होंने अपने घर के किचन में हमेशा से इस्तेमाल होते देखी हैं. आपके लिए तस्वीरें जुटाई और भेज दिया हमें. आप भी पढ़िए, याद कीजिए, नोस्टैल्जिक हो जाइए. और कुछ सूझे तो भेज दीजिए lallantopmail@gmail.com पर.
किचन घर का वो हिस्सा जिसके इर्द-गिर्द हमारा पूरा घर घूमता है. जहां दिन भर में एकाध बार सभी का आना जाना होता है. मैं भी कुछ अलग नहीं हूं, मेरा भी अपने घर की किचन में आना-जाना होता ही रहता है. अभी एक रोज़ मैं किचन में गैस का लाईटर खोज रहा है और इस चक्कर में खो गया अपने बचपन की यादों में, जब किचन डिजाइनर नहीं बल्कि घर का एक पूजनीय हिस्सा हुआ करता था. जहां बिना नहाए जाने पर पाबंदी थी. बासी खाना लुत्फ़ लेकर नाश्ते में “पीढ़े” पर बैठकर खाया जाता था, डाईनिंग टेबल का नाम भी किसी ने नहीं सुना था. डबलरोटी (ब्रेड) विलासिता थी, जिससे सेहत खराब होती थी, खाते वक्त बोलना असभ्यता की निशानी थी और मां खाना बनाते न तो कभी थकती थी और न ही कभी यह कहती थी, आज खाना बाहर से मंगवा लिया जाए. कहने को हम लखनऊ जैसे शहर में रहते थे पर वो शहर आज के शहर जैसा नहीं था, गैस के चूल्हे आने शुरू ही हुए थे पर अंगीठी और चूल्हे से जुडी हुई चीजें अभी भी इस्तेमाल में थीं. जिनके इर्द-गिर्द हमारा बचपन बीता. फिर धीरे–धीरे वो सब चीजें हमारे जैसी पीढी की यादों का हिस्सा बनती चली गईं जैसे किचन में एक दुछत्ती का होना अब किचन में वार्डरोब होता है. वो ज्वाईंट फैमली का जमाना था, जब खाना बनाने में पूरे घर की महिलाएं लगती थीं और बच्चों के लिए यह दौर किसी उत्सव से कम न होता था. अब तो लोग शायद उन्हें पहचान भी न पाएं तो मैंने भी अपने बचपन के यादों के पिटारे के बहाने हमारे किचन से गायब हुई उन चीजों की लिस्ट बनाने की कोशिश की है जिनके बहाने ही सही उस पुराने दौर को एक बार फिर जी लिया जाए जो अब हमारे जीवन में दोबारा नहीं आने वाला है.
बटलोई या बटुली

बटलोई एक ऐसा बर्तन हुआ करता था, जिसमें सबसे ज्यादा दाल पकाई जाती थी गोलाकार नीचे से चपटी दाल पकने से दस मिनट पहले चूल्हे से उतार ली जाती थी और बटलोई की गर्मी से दाल अपने आप अगले दस मिनट में पक जाती थी तब भगोने उतने ज्यादा आम नहीं थे आमतौर पर बटुली कसकुट धातु से बनती थी. कसकुट एक ऐसी धातु है जो ताम्बे और जस्ते (एल्युमिनियम) के मिश्रण से बनती थी. अपनी बनावट में यह गगरी से मिलती-जुलती थी पर इसका मुंह ज्यादा बड़ा होता था और तला अंडाकार चपटा होता था. गैस चूल्हे के आने से इनकी उपयोगिता समाप्त हो गयी क्योंकि इनकी बनावट ऐसी थी जिसके कारण गैस पर इन्हें रखना मुश्किल होता था. दूसरा कारण स्टील का प्रयोग हमारे जीवन में बढना था जो सस्ता और ज्यादा टिकाऊ था. इस तरह बटुली हमारी यादों का हिस्सा बन गई और अब रसोईघरों में नहीं दिखती.
संडसी

लोहे की बनी हुई बड़े मुंह वाली जो आकार में प्लास की बड़ी बहन लगती थी, बटुली और बड़े आकार के गर्म बर्तनों को चूल्हे से उतारने के काम आती थी. अपनी बनवाट में यह बहुत पतली सी लोहे की 'V' आकार में होती थी पर मजबूत पकड़ के कारण बहुत काम की हुआ करती थी. अब ये रसोई घर में यह अमूमन स्टील की और छोटे आकार में मिलती है पर अब इसकी उतनी जरुरत नहीं पड़ती.
फुकनी

जब चूल्हे और अंगीठी का ज़माना था तब उनकी आग को बढाने के लिए आग को फूंकना पड़ता था जिसमें दफ्ती से लेकर कागज का इस्तेमाल होता था इसी काम को व्यवस्थित तरीके से करने के लिए फूंकनी का यूज किया जाता था. ठोस लोहे की बनी फुकनी आकार में बांसुरी की तरह होती थी जो दोनों और से खुली होती थी एक तरफ से फूंका जाता था दूसरी तरफ से फूंक आग में जाती थी. अब यह लुप्त प्राय श्रेणी में है शहरों में.
मर्तबान

अचार रखने के लिए खासकर इनका प्रयोग होता था चीनी मिट्टी के बने ये मर्तबान किचन का अहम् हिस्सा थे. जिनमें तरह तरह के अचार रखे जाते थे. नीचे से सफ़ेद और ऊपर ज्यादातर पीले या काले रंग के छोटे बड़े और मंझोले आकार के चीनी मिट्टी के ऐसे प्यालों में तीज-त्योहार के समय दही-बड़े और ऐसे पकवान रखे जाते थे जिनमें तरल ज्यादा होता था. बड़े सलीके से इन्हें किचन में बनें ताखे से उतारना पड़ता था. लाईफ जैसे जैसे फास्ट होती गयी इनकी जरूरत कम होती गयी इनकी जगह प्लास्टिक और स्टील से बने मर्तबानों ने ले ली जिनका मेंटीनेंस आसान और कीमत कम थी. भागती-दौडती ज़िंदगी ने कभी हमारी ज़िंदगी का अहम हिस्सा रहे इन मर्तबानों को हमारी ज़िंदगी से अलग कर दिया.
सूप

गूगल पर अगर आप सूप खोजने की कोशिश करेंगे तो आपको तरह-तरह के सूप बनाने की विधि बता देगा पर वो सूप कभी नहीं दिखाएगा जिस सूप की बात यहां की जा रही है. सरपत की पतली बालियों से बन कर बना यह देशी यंत्र एक वक्त में हमारी रसोई का इम्पोर्टेंट टूल था जिसका इस्तेमाल तरह-तरह के अनाजों को साफ़ करने के लिए किया जाता है, जिसे अवधी में पछोरना कहते हैं. सूप में अनाज को भर कर धीरे-धीरे एक विशेष प्रकार से उसे हवा में उछाला जाता था और सूप के नीचे आने पर हाथ से धीरे से थाप दी जाती थी. सूप का इस्तेमाल करना भी एक कला हुआ करती थी. हर कोई सूप का इस्तेमाल नहीं कर सकता है. अनाज सूप में रह जाता था और गंदगी बाहर आ जाती थी. अब शादी या किसी शुभ अवसर पर इसकी जरुरत पड़ती है क्योंकि यह हमारी परम्पराओं का हिस्सा रहा है पर इसे शहर की किचन में खोजना मुश्किल है.
खल मूसल

इसका एक और प्रचलित नाम इमाम दस्ता भी है जो तरह –तरह के खड़े मसालों को पीसने के काम में आता था अभी भी मांसाहार बनाते वक्त इनकी याद आती है जब खड़े मसालों का इस्तेमाल किया जाता है. मिक्सी और पिसे मसलों के बाजार में आ जाने से इनके प्रयोग की जरुरत नहीं पड़ती और किचन से यह धीरे से गायब हो गए यह लोहे और लकड़ी के हुआ करते थे. खल एक गोल जार जैसा होता था जिसमें मसाले डाल दिए जाते थे और मूसल एक डंडा नुमा आकृति थी जिससे मसालों पर लगातार चोट की जाती थी और धीरे –धीरे मसाले पाउडर जैसे हो जाते थे. खल और मूसल में जब मसाले कूटे जा रहे होते तो एक विचित्र तरह की आवाज निकलती थी जो इस बात का सूचक थी आज कुछ चटपटा मसालेदार घर की किचन में बनने वाला है.
सिल बट्टा

जब बात चटनी की हो तो सिल बट्टा के बगैर हमारी यादों की ये कहानी पूरी नहीं हो सकती पत्थर की सिल पर बट्टे से मसाले और चटनी पीसी जाती थी. आप सब कुछ अपने सामने देख सकते थे कि किस तरह फल पत्ती और मसाले एक भोज्य पदार्थ का रूप ले रहे होते, पर समय की कमी और मिक्सी की सुलभता से अब सब काम मिनटों में हो जाता है और किसी को कुछ पता भी नहीं पड़ता कि बिजली के जोर ने बंद डिब्बे के भीतर कैसे सबको मिला दिया. तब ज़िंदगी का लुत्फ़ लिया जाता था आने वाले कल को बेहतर बनाने के लिए आज को खो नहीं दिया जाता था. धीरे –धीरे चटनी मसाले एक दुसरे में मिलते थे यूं समझ लीजिए हौले-हौले ज़िंदगी का एक रंग दूसरे रंग से मिलता था और बनता था ज़िंदगी का एक नया रंग जिसमें मेहनत की अहम भूमिका हुआ करती थी.
कद्दूकस

इसका नाम कद्दूकस क्यों पडा इस प्रश्न का जवाब मुझे आज तक नहीं मिला क्योंकि इस कद्दूकस में मैंने कभी कद्दू का इस्तेमाल होते नहीं देखा. इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल जाड़ों के दिनों में गाजर का हलुवा बनाने के लिए गाजर को कसते जरुर देखा. मुली दूसरी सब्जी रही जिसको खाने के लिए कद्दूकस का इस्तेमाल होता था. एक चारपाई आकार का मोडल जिसमें अगर कोई चीज घिसी जाए तो उसके रेशे नीचे गिरते थे सलाद बनाने में और गरी को घिसने में भी खूब इस्तेमाल हुआ पर अब किसी के पास समय कहां हैं जब चीजों को घटते हुए देखा जाए अब तो इंस्टेंट का दौर है जो भी हो बस जल्दी हो आउटकम पर ज्यादा जोर है प्रोसेस पर कम नतीजा किचन से एक और परम्परागत यंत्र का गायब हो जाना.
फूल की थाली

फूल एक धातु का नाम है जो ताम्बे और जस्ते के मिश्रण से बनती थी स्टील तब इतना लोकप्रिय नहीं हुआ था. समाज का माध्यम वर्ग ज्यादतर अपने घरों में फूल के बर्तन इस्तेमाल करता था जिसमें लोटा, गिलास, कटोरा, थारा, परात, बटुली-बटुला, गगरा, करछुल, कड़ाही जैसी चीजें शामिल हुआ करती थीं. निम्न वर्ग एल्युमिनियम के बर्तनों का इस्तेमाल ज्यादा करता था पर अब इन सब धातुओं की जगह स्टील ने ले ली है. इसके अलावा राख और पत्थर भी थे, जिनके बिना कभी हमारे रसोई की कल्पना हो ही नहीं सकती थी राख की जगह आजकल बार और लिक्विड ने ले ली है. पत्थर से अब बर्तन मांजे नहीं जाते कारण गैस का आ जाना और बर्तन अब ज्यादतर स्टील के होते हैं, जिनकी सफाई में अब ज्यादा मेहनत नहीं लगती. भारत के शहरी रसोई घरों में समय का एक पूरा पहिया घूम चुका है और इसमें कुछ भी बुरा नहीं जो आज नया है कल किसी और की यादों का हिस्सा होगा रसोई घर के बहाने ही सही मैंने अपनी यादें सहेज लीं.
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