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सीरीज़ रिव्यू: खाकी - द बिहार चैप्टर

खाकी कई बार फिल्माए जा चुके टॉपिक के बावजूद फ्रेश और लॉजिकल सीरीज़ है.

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पूरा माहौल धुआं-धुआं कर दिया है

शूल, गंगाजल. यदि सिनेमा देखते हैं, तो आपने ये फिल्में शर्तिया देखी होंगी. ये वो फिल्में हैं जहां भयंकर क्राइम है, इसके साथ है पुलिस की क्रिमिनल और नेताओं से मुठभेड़. ऐसी ही एक सीरीज़ 25 नवंबर से नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हो रही है. देखते हैं क्या जलवा काटा है?

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'खाकी: द बिहार चैप्टर' का हर एपिसोड खत्म होते ही एक किताब का लंबा-सा नाम लिखकर आता है, "Bihar Diaries: The True Story of How Bihar's Most Dangerous Criminal Was Caught". इसी किताब पर 'खाकी' बेस्ड है. इसके लेखक हैं बिहार कैडर के आईपीएस ऑफिसर अमित लोढ़ा. खास बात ये है कि राइटर होने के साथ ही वो इस किताब के कैरेक्टर भी हैं. ऐसा ही सीरीज़ के साथ भी है. 'खाकी' पुलिस ऑफिसर अमित लोढ़ा और कुख्यात अपराधी चंदन महतो के टशन की कहानी है. अगर बड़े कैनवस पर देखें, तो ये सिस्टम और उसे ठेंगा दिखाते गैंगस्टर के द्वन्द्व की दास्तान है. कहानी बताने में समय नष्ट करेंगे नहीं, सीधे दूसरे अहम मुद्दों पर लैंड करते हैं.

पूरी सीरीज़ का मिज़ाज यही तस्वीर है

उमाशंकर सिंह इससे पहले 'महारानी' का स्क्रीनप्ले लिख चुके हैं. जनता ने उसे पसंद भी किया था. पर 'खाकी: द बिहार चैप्टर' का स्क्रीनप्ले 'महारानी' से ज़्यादा मैच्योर है. ज़्यादा डीटेल्ड है. ज़्यादा बिहारी है. बिहारी इसलिए क्योंकि सीरीज़ ही बिहार में सेट है. इसकी खास बात ये है कि उमाशंकर सिंह को कहीं की जल्दी नहीं है. वो पुलिस की धरपकड़ और क्रिमिनल की चालाकी को धीरे-धीरे अनफोल्ड करते हैं. हमने इससे पहले इसी कलेवर की गंगाजल और शूल जैसी फिल्में देखी हैं. ये भी कुछ बहुत नई नहीं है. पर पुरानी भी नहीं है. इसका कारण है, मेकर्स के पास किसी फ़िल्म की तुलना में यहां कहीं ज़्यादा समय है. अमित लोढ़ा और चंदन महतो की कैरेक्टर बिल्डिंग बहुत शानदार है. सब एकदम से नहीं होता, हर चीज़ का लॉजिक है. ऐसा लॉजिक है कि बहुत छोटा-सा किरदार तक आगे चलकर महत्वपूर्ण हो जाता है. जैसे एक बहुत छोटा किरदार है, जो अभ्युदय सिंह की मौत का कारण बनता है. जब वो कारण घट रहा होता है, आपके दिमाग में एक क्षण के लिए भी नहीं आता कि ये किरदार मौत में भूमिका निभाएगा. अब इसे स्पॉइलर ना समझिएगा. सीरीज़ की लिखाई भी बहुत डार्क है. जैसे एक समय पूरे गांव की हत्या कर दी जाती है. इस वजह से गांव का दौरा करने सीएम आते हैं. उनके लिए हवाई पट्टी का एच बनाया जा रहा होता है. चूना नहीं मिलता, तो पुलिस वाले आटा उठा लाते हैं और सीनियर के पूछने पर कहते हैं: 'चिंता मत करिए, जिस घर से उठाकर लाएं हैं, वहां कोई बचा ही नहीं.' संवेदनशीलता और मार्मिकता इस एक डायलॉग में अपने चरम पर होती है.

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अमित लोढ़ा के रोल में करन टैकर

ऐसे ही तमाम सीन और डायलॉग हैं, जो सातों एपिसोड खत्म होने के बाद भी आपके साथ रह जाते हैं. एक आम आदमी कहता है: हम कभी एप्लीकेशन देते हैं, कभी ट्रेन रोकते हैं, शायद किसी दिन भारत भाग्य विधाता की नज़र हम पर भी पड़ जाए. एक और डायलॉग है: बहुत बार पुलिस और चंदन महतो में बस वर्दी का फ़र्क रह जाता है. ये डायलॉग और ऐसी सिचुएशंस को लिखने के लिए वहां के समाज को समझना बहुत ज़रूरी है. उमाशंकर सिंह ने ये प्रूव किया है कि वो बिहार के समाज को बहुत ढंग से समझते हैं. उनकी लिखाई जातिवाद में गले तक धंसे बिहार की गाढ़ी तस्वीर खींचती है. पर कुछ-कुछ जगहों पर वाक्य विन्यास में मात खाती है. जैसे: 'सब धान बाइस पसेरी नहीं होते' को कहा गया है 'सब राइस बाइस पसेरी नहीं होते'. संभव है ये जानबूझकर ही किया गया है, पर क्यों? ये पता नहीं. और भी कुछ-कुछ जगहों पर ऐसा है. सबकुछ पॉइंट आउट कर पाना संभव नहीं है.

'खाकी' से पहले भव धूलिया 'रंगबाज' डायरेक्ट कर चुके हैं. वो भी गैंगस्टर की सच्ची कहानी थी. उसका पूरा अनुभव उन्होंने 'खाकी:द बिहार चैप्टर' में झोंका है. बहुत पकी हुई सीरीज़ बनाई है. गोली चलने से लेकर गिरफ़्तारी तक सबकुछ काफ़ी रियल लगता है. चंदन महतो को पकड़ने की योजना भी कोई परी कथा नहीं लगती. ना ही उस योजना का एक्जीक्यूशन किसी स्तर पर सतही लगता है. सीरीज़ देखते हुए तमाम पुलिसिया और गैंगस्टर फ़िल्में याद आती हैं. पर कहीं पर भी कुछ कॉपी नहीं लगता है. कई मौकों पर सब देखा-देखा ज़रूर लगता है. चूंकि सीरीज़ के क्रिएटर नीरज पांडे हैं. वो पुलिसिया ड्रामा के माहिर आदमी हैं. उनकी छाप भी इसमें दिखती है. ये सीरीज़ सात एपिसोड की है, इसे छह एपिसोड तक सीमित किया सकता था. आखिरी एपिसोड तक इसे खींचना थोड़ा बोरिंग हो जाता है. ऐसा लगता है कि थ्रिल और स्पीड की चोटी पर पहुंचकर मेकर्स की गाड़ी नीचे लुढ़क गई है. डॉक्टर सागर का लिखा गाना 'अइए ना हमरा बिहार में' अद्भुत है. अमूमन आप किसी भी सीरीज़ के क्रेडिट्स स्किप कर देते हैं, पर इसी गाने की वजह से आप इसे पूरा देखने पर मजबूर हो जाते हैं. अद्वैत नेमलेकर के म्यूजिक के बिना सीरीज़ अधूरी है. बहुत शानदार कम्पोजिशन है. चाहे गाना हो या बीजीएम.

चंदन महतो के रोल में अविनाश तिवारी

2001 में लगान आई थी, उसमें अमिताभ बच्चन के नरेशन ने कमाल किया था. ठीक वैसा ही वॉयस टोन और वैसा ही सधा हुआ लहज़ा अभिमन्यु सिंह का 'खाकी' में है. लाइफ ऑफ पाई के डायरेक्टर ने कहा था कि इरफ़ान खान को फ़िल्म में दी गई गुडबाय स्पीच के लिए अवॉर्ड मिलना चाहिए. ठीक ऐसा ही अभिमन्यु सिंह के नरेशन के लिए भी कहा जा सकता है. उनकी ऐक्टिंग तो है ही एक नंबर. पुलिस इंस्पेक्टर रंजन कुमार की ठसक और बेबसी दोनों ही उनके चेहरे पर दिखती है. मुक्तेश्वर चौबे के किरदार की चालाकी को आशुतोष राणा ने बहुत सही पकड़ा है. अभ्युदय सिंह के छोटे से रोल में रवि किशन भपते हैं. पुलिस अधिकारी के रोल में अनूप सोनी ने फ्लॉलेस काम किया है. चंदन महतो के साथी चमनप्रास को जतिन सरना ने खुद में बिठा लिया है. हालांकि ये भी सेक्रेड गेम्स के बंटी जैसा ही किरदार है. बस बोली-भाषा बिहार की है. चमनप्रास की पत्नी मीता के रोल में ऐश्वर्या सुष्मिता निखरकर सामने आई हैं. उनमें चालाकी भी है. एक गृहणी का भोलापन भी है. ऑफिसर अमित लोढ़ा के रोल में करन टैकर ने महफ़िल लूट ली है. शहर से आया हुआ लड़का कैसे बिहार के गांवों में खुद की खोज करता है और अपराधियों को चुन-चुनकर मारता है. करन टैकर इस सीरीज़ की खोज हैं. करन टैकर की पत्नी के रोल में निकिता दत्ता ने भी ऐप्ट काम किया है. अविनाश तिवारी हर बार की तरह इस बार भी अपने पिछले रोल्स से एकदम अलग रोल में, एकदम अलग अदाकारी का नमूना पेश करते हैं. चंदन महतो के अंदर का जानवर उनके चेहरे पर ही दिखता है. कई मौकों पर वो कुछ न करके भी सिर्फ़ होंठ टेढ़ा करते हुए हंसकर ही कमाल कर जाते हैं.

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मैंने इतना कुछ सीरीज़ के बारे में बताया, अब भी बहुत कुछ बाक़ी है. खाकी कई बार फिल्माए जा चुके टॉपिक के बावजूद फ्रेश और लॉजिकल सीरीज़ है. बस अंतिम एपिसोड तक इसे ना खींचा जाता तो और बेहतरीन सीरीज़ होती है. लपकर देख डालिए. नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हो रही है.

'खाकी- द बिहार चैप्टर' नेटफ्लिक्स सीरीज ला रहे हैं 'स्पेशल 26' के डायरेक्टर नीरज पांडे

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